इबादत
‘इबादत’ का अर्थ वास्तव में बन्दगी और दासता है। आप अब्द (बन्दा, दास) हैं। ईश्वर आपका प्रभु और उपास्य है। दास अपने उपास्य और प्रभु के लिए जो कुछ करे वह इबादत है, जैसे आप लोगों से बातें करते हैं, इन बातों के दौरान यदि आप झूठ से, परनिन्दा से, अश्लीलता से इसलिए बचें कि ईश्वर ने इन चीज़ों से रोका है और सदा सच्चाई, न्याय, नेकी और पवित्राता की बातें करें, इसलिए कि ईश्वर इनको पसन्द करता है तो आपकी ये सब बातें ‘इबादत’ होंगी, भले ही वे सब दुनिया के मामले ही में क्यों न हों। आप लोगों से लेन-देन करते हैं, बाज़ार में क्रय-विक्रय करते हैं, अपने घर में माता-पिता और भाई-बहनों के साथ रहते-सहते हैं, अपने मित्रों और सम्बन्धियों से मिलते-जुलते हैं। यदि अपने जीवन के इन सारे मामलों में आपने ईश्वर के आदेश को और उसके क़ानून को ध्यान में रखा, हर एक का हक़ अदा किया, यह समझ कर कि अल्लाह ने इसका आदेश दिया है, और किसी का हक़ नहीं मारा यह समझकर कि ईश्वर ने इससे रोका है, तो मानो आपका यह सम्पूर्ण जीवन अल्लाह की इबादत में व्यतीत हुआ। आपने किसी ग़रीब की सहायता की, किसी भूखे को भोजन कराया, किसी बीमार की सेवा की और इन सब कामों में आपने अपने किसी व्यक्तिगत लाभ या सम्मान या यश को नहीं बल्कि ईश्वर ही की प्रसन्नता को ध्यान में रखा, तो इन सब की गणना इबादत में होगी। आपने व्यापार या शिल्प या मज़दूरी का कार्य किया और उसमें ईश्वर से डरकर पूरी सत्य-निष्ठा और ईमानदारी से काम किया, हलाल की रोटी कमाई और हराम से बचे, तो यह रोटी कमाना भी अल्लाह की इबादत में लिखा जाएगा हालाँकि आपने अपनी रोज़ी कमाने के लिए ये काम किए थे। तात्पर्य यह कि दुनिया की ज़िन्दगी में हर समय हर मामले में ईश्वर से डरना, उसकी प्रसन्नता को ध्यान में रखना, उसके क़ानून का पालन करना, हर ऐसे लाभ को ठुकरा देना जो उसकी अवज्ञा से प्राप्त होता हो और हर ऐसी हानि को गवारा कर लेना जो उसके आज्ञापालन में पहुँचे या पहुँचने का भय हो, यह अल्लाह की ‘इबादत’ है। इस प्रकार का जीवन सर्वथा ‘इबादत’ ही ‘इबादत’ है, यहाँ तक कि ऐसे जीवन में खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना, बात-चीत करना सब कुछ ‘इबादत’ में शामिल है।
यह ‘इबादत’ का वास्तविक अभिप्राय है और इस्लाम का वास्तविक उद्देश्य मुसलमान को ऐसा ही उपासक और सेवक बनाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस्लाम में कुछ ऐसी इबादतें अनिवार्य की गई हैं, जो मनुष्य को इस बड़ी इबादत के लिए तैयार करती हैं। यूँ समझ लीजिए कि ये विशेष इबादतें इस बड़ी इबादत के लिए ट्रेनिंग कोर्स हैं, जो व्यक्ति यह ट्रेनिंग अच्छी तरह लेगा वह इस बड़ी और वास्तविक इबादत को उतनी ही अच्छी तरह अदा कर सकेगा। इसी लिए इन विशेष इबादतों को मुख्य कर्तव्य ठहराया गया है और इन्हें ‘दीन के अरकान’ अर्थात् धर्म-स्तंभ कहा गया है। जिस प्रकार एक भवन कुछ स्तंभों पर स्थित होता है, उसी प्रकार इस्लामी जीवन का भवन भी इन स्तंभों पर क़ायम है। इन्हें तोड़ देंगे तो इस्लाम के भवन को गिरा देंगे।
नमाज़
इन अनिवार्य चीज़ों में सबसे पहली ‘नमाज़’ है। यह नमाज़ क्या है? दिन में पाँच बार ज़बान से और अमल से उन ही चीज़ों को दोहराना जिन पर आप ‘ईमान’ लाए हैं। आप प्रातःकाल उठे और सबसे पहले स्वच्छ और शुद्ध होकर अपने ईश्वर की सेवा में पहुँच गए, उसके सामने खड़े होकर, बैठकर, झुककर, भूमि पर सिर रखकर अपने सेवक और दास होने का इक़रार किया, उससे मदद माँगी, उससे मार्गदर्शन चाहा, उसके आदेशों पर चलने की पुनः प्रतिज्ञा की, उसकी प्रसन्नता चाहने और उसके प्रकोप से बचने की इच्छा को बार-बार दोहराया, उसके ग्रंथ का पाठ दोहराया। उसके रसूल (पैग़म्बर) की सच्चाई पर गवाही दी और उस दिन को भी याद कर लिया जब आप उसकी अदालत में अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी के रूप में उपस्थित होंगे। इस तरह आपका दिन शुरू हुआ। कुछ घंटे आप अपने कार्यों में लगे रहे फिर ‘ज़ुहर’ (दिन ढलने) के समय ‘मुअज़्ज़िन’ (अज़ान देने वाले) ने आपको याद दिलाया, आओ और कुछ क्षण के लिए उस पाठ को फिर दुहरा लो। कहीं ऐसा न हो कि उसको भूलकर तुम ईश्वर की ओर से असावधान हो जाओ। आप उठे और ईमान ताज़ा करके फिर संसार और उसके कार्य की ओर पलट आए। कुछ घंटों के पश्चात् फिर ‘अस्र’ (दिन ढलने और सूर्यास्त के बीच) के समय आपको बुलाया गया और आपने फिर ईमान ताज़ा कर लिया। इसके पश्चात् ‘मग़रिब’ (सूर्यास्त) हुई और रात शुरू हो गई; प्रातः समय आपने दिवस का आरंभ जिस इबादत के साथ किया था, रात का आरंभ भी उसी से किया, ताकि रात को भी आप उस पाठ को भूलने न पाएँ और उसे भूलकर भटक न जाएँ। कुछ घंटों के पश्चात् ‘इशा’ (सूर्यास्त के लगभग दो घण्टे बाद) की नमाज़ हुई और सोने का समय आ गया। अब अन्तिम बार आपको ईमान की समस्त शिक्षा याद करा दी गई क्योंकि यह शान्ति का समय है। दिन के हंगामे में यदि आपको पूर्णरूप से ध्यान देने का अवसर न मिला हो, तो इस समय इत्मीनान के साथ ध्यान दे सकते हैं।
देखिए! यह वह चीज़ है जो हर दिन पाँच बार आपके इस्लाम के आधार को मज़बूत करती है। यह बार-बार आपको उस बड़ी ‘इबादत’ के लिए तैयार करती है जिसका अर्थ हम ने अभी कुछ पंक्तियों से पहले आपको समझा दिया है। यह उन सारी धारणाओं को ताज़ा करती रहती है जिनपर आपके मन की पवित्रता, आत्मा का विकास, शील, स्वभाव और आचरण का सुधार टिका हुआ है। विचार कीजिए, ‘वुज़ू’ (नमाज़ अदा करने से पूर्व हाथ, पाँव, मुँह आदि धोने की क्रिया) में आप उस तरीक़े को क्यों अपनाते हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने बताया है और नमाज़ में वे सब चीज़ें क्यों पढ़ते हैं जिनकी शिक्षा अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने दी है? इसी लिए तो कि आप हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आज्ञापालन को अनिवार्य समझते हैं। क़ुरआन को आप जान-बूझकर ग़लत क्यों नहीं पढ़ते? इसी लिए तो कि आपको उसके ईश्वरीय वाणी होने का विश्वास है। नमाज़ में जो चीज़ें ख़ामोशी के साथ पढ़ी जाती हैं यदि आप उनको न पढ़िए या उसकी जगह कुछ और पढ़ लीजिए तो आपको किसका भय है? कोई मनुष्य तो सुननेवाला नहीं, ज़ाहिर है कि आप यही समझते हैं कि ख़ामोशी के साथ जो कुछ हम पढ़ रहे हैं उसे भी ईश्वर सुन रहा है और हमारी किसी ढकी-छिपी गतिविधि से भी वह बेख़बर नहीं, जहाँ कोई देखनेवाला नहीं होता वहाँ कौन-सी चीज़ आपको नमाज़ के लिए उठाती है? वह यही विश्वास तो है कि ईश्वर आपको देख रहा है। नमाज़ के समय आवश्यक-से-आवश्यक कार्य छुड़ाकर कौन-सी चीज़ आपको नमाज़ की ओर ले जाती है? वह यही एहसास तो है कि नमाज़ को ईश्वर ने अनिवार्य किया है, जाड़े में प्रातःकाल और गर्मी में दोपहर को और प्रतिदिन सायंकाल के दिलचस्प मनोरंजनों में मग़रिब (सूर्यास्त) के समय कौन-सी चीज़ आपको नमाज़ पढ़ने पर तत्पर और क्रियान्वित कर देती है? वह कर्तव्य-बोध नहीं तो और क्या है? फिर नमाज़ न पढ़ने या नमाज़ में जान-बूझकर ग़लती करने से आप क्यों डरते हैं? इसी लिए कि आपको ईश्वर का भय है और आप जानते हैं कि एक दिन उसकी अदालत में हाज़िर होना है। आप बताइए कि नमाज़ से बेहतर और कौन-सी ऐसी ट्रेनिंग हो सकती है जो आपको पूरा और सच्चा मुसलमान बनानेवाली हो? मुसलमान के लिए इससे अच्छा प्रशिक्षण और क्या हो सकता है कि वह प्रतिदिन कई-कई बार ईश्वर का स्मरण, और उसके भय और उसके सर्वोपस्थित और सर्वज्ञ होने के विश्वास और अल्लाह की अदालत में पेश होने की धारणा को ताज़ा करता रहे और रोज़ाना कई बार अनिवार्य रूप से अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का अनुसरण करे और प्रातःकाल से सायंकाल तक प्रत्येक कुछ घंटों के पश्चात् उसको कर्तव्यपालन का अभ्यास कराया जाता रहे। ऐसे व्यक्ति से यह आशा की जा सकती है कि जब वह नमाज़ से निवृत होकर सांसारिक कार्यों में व्यस्त होगा, तो वहाँ भी वह ईश्वर से डरेगा और उसके क़ानून का पालन करेगा। और हर गुनाह और पाप के अवसर पर उसे याद होगा कि ईश्वर मुझे देख रहा है। यदि कोई इतनी उच्च कोटि की ट्रेनिंग के पश्चात् भी ईश्वर से न डरे और उसके आदेशों का उल्लंघन करना न छोड़े तो, यह नमाज़ का क़ुसूर नहीं बल्कि स्वयं उस व्यक्ति के विकृत मन का दोष है।
फिर देखिए, अल्लाह ने नमाज़ को जमाअत के साथ (सामूहिक रूप में) पढ़ने की ताकीद की है और विशेष रूप से सप्ताह में एक बार जुमा (शुक्रवार) की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़नी अनिवार्य कर दी है। यह मुसलमानों में एकता और बंधुत्व पैदा करनेवाली चीज़ है। उनको मिलाकर एक मज़बूत जत्था बनाती है। जब वे सब मिलकर एक ही ईश्वर की इबादत करते हैं, एक साथ उठते और बैठते हैं तो आप-से-आप उनके दिल एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं और उनमें यह एहसास पैदा हो जाता है कि हम सब भाई-भाई हैं। फिर यही चीज़ उनमें एक सरदार के आज्ञापालन की क्षमता पैदा करती है और उनको नियमितता का पाठ पढ़ाती है। इसी से उनमें आपस की हमदर्दी उत्पन्न हो जाती है, समानता और अपनापन आ जाता है। धनवान और निर्धन, बड़े और छोटे, उच्च पदाधिकारी और साधारण चपरासी सब एक साथ खड़े होते हैं, न कोई ऊँची जाति का होता है न कोई नीची जाति का।
यह उन बेशुमार लाभों में से कुछ लाभ हैं जो आपकी नमाज़ से ईश्वर को नहीं बल्कि स्वयं आप ही को प्राप्त होते हैं। ईश्वर ने आपके लाभ के लिए इस चीज़ को अनिवार्य किया है, और न पढ़ने पर उसकी नाराज़ी इसलिए नहीं है कि आपने उसको कोई हानि पहुँचाई बल्कि इसलिए है कि आपने ख़ुद अपने आपको हानि पहुँचाई। कैसी प्रबल शक्ति नमाज़ के द्वारा ईश्वर आपको दे रहा है और आप उसको लेने से भी जी चुरा रहे हैं। कितनी शर्म की बात है कि आप मुख से तो ईश्वर के ईश्वरत्व और रसूल (पैग़म्बर) के आज्ञापालन, और आख़िरत में अपने कर्मों के उत्तरदायित्व को मानें फिर भी आपका आचरण यह हो कि ईश्वर और रसूल (पैग़म्बर) ने जिस चीज़ को आपके लिए सबसे बढ़कर अनिवार्य किया है उसका पालन न करें। आपकी इस नीति के पीछे दो में से कोई एक चीज़ अवश्य काम कर रही है या तो आपको नमाज़ के अनिवार्य होने से इन्कार है या आप उसे अनिवार्य समझते हैं और फिर उसका पालन करने से बचते हैं। यदि अनिवार्य होने से इन्कार है तो आप क़ुरआन और अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) दोनों को झुठलाते हैं और फिर इन दोनों पर ईमान लाने का झूठा दावा करते हैं और यदि आप उसे अनिवार्य मानकर फिर उसका पालन नहीं करते तो आप बड़े अविश्वसनीय व्यक्ति हैं, आप पर संसार के किसी मामले में भी भरोसा नहीं किया जा सकता। जब आप ईश्वर की ड्यूटी में चोरी कर सकते हैं तो कोई क्या आशा कर सकता है कि मनुष्यों की ड्यूटी में चोरी न करेंगे।
रोज़ा
दूसरी अनिवार्य चीज़ रोज़ा है। यह रोज़ा क्या है? जिस पाठ को नमाज़ प्रतिदिन पाँच बार याद दिलाती है उसे रोज़ा वर्ष में एक बार पूरे महीने तक हर समय याद दिलाता रहता है।‘रमज़ान’ (अरबी का नवाँ महीना) आया और सुबह से लेकर शाम तक आपका खाना-पीना बन्द हुआ। सहरी (अरुणोदय से पूर्व की बेला जिसमें कुछ खा-पी लिया जाता है ताकि दिन में रोज़ा रखने में असाधारण कष्ट न हो।) के समय आप खा-पी रहे थे, अचानक अज़ान हुई और आपने तुरन्त हाथ रोक लिया। अब कैसा ही रुचिकर भोजन आगे आए, कैसी ही भूख-प्यास हो, कितनी ही इच्छा हो, आप शाम तक कुछ नहीं खाते। यही नहीं कि लोगों के सामने नहीं खाते, नहीं, एकांत में भी नहीं जहाँ कोई देखने वाला नहीं होता, एक बूंद पानी पीना या एक दाना निगल जाना भी आपके लिए असंभव होता चाहे कोई व्यक्ति भी देखने वाला न हो। फिर ये सारी रुकावट एक समय तक ही रहती है। इधर दिन डूबा और आप ‘इफ़्तार’ (कुछ खा-पीकर रोज़ा खोलने) की ओर लपके। अब रात भर बेख़ौफ़ होकर आप जब और जो चीज़ चाहते हैं खाते हैं। विचार कीजिए, यह क्या चीज़ है? इसकी तह में ईश्वर का भय है, उसके सर्वविद्यमान और सर्वज्ञाता होने का विश्वास है, आख़िरत के जीवन और ईश्वर की अदालत पर ‘ईमान’ है, क़ुरआन और रसूल (पैग़म्बर) का पूर्ण आज्ञापालन है, कर्तव्य का ज़बर्दस्त एहसास है, धैर्य और संकटों के मुक़ाबले का अभ्यास है, ईश्वर की प्रसन्नता के मुक़ाबले में मन की इच्छाओं को रोकने और दबाने की शक्ति है। प्रत्येक वर्ष ‘रमज़ान’ का मास आता है ताकि पूरे ही तीस दिन तक ये रोज़े आपको प्रशिक्षित करें और आप में ये समस्त गुण उत्पन्न करें ताकि आप पूरे और पक्के मुसलमान बनें, और ये गुण आपको उस ‘इबादत’ के क़ाबिल बनाएँ, जो एक मुसलमान को अपने जीवन में हर समय करनी चाहिए।
फिर देखिए, अल्लाह ने समस्त मुसलमानों के लिए रोज़ा एक ही विशेष महीने में अनिवार्य किया है ताकि सब मिलकर रोज़ा रखें, अलग-अलग न रखें। इसके बेशुमार दूसरे लाभ भी हैं। सारी इस्लामी आबादी में पूरा एक माह पवित्रता का मास होता है, सारे वातावरण पर ईमान, ईश-भय और आदेशों का पालन और नैतिक पवित्रता और आचरण-सौन्दर्य छा जाता है। इस वातावरण में बुराइयाँ दब जाती हैं और नेकियाँ उभरती हैं। अच्छे लोग नेक कामों में एक-दूसरे की सहायता करते हैं। बुरे लोग बुरे काम करते हुए शर्माते हैं। धनवान लोगों में ग़रीबों की सहायता की भावना जागृत होती है। ईश्वर के मार्ग में माल ख़र्च किया जाता है। सारे मुसलमान एक हालत में होते हैं। और एक हालत में होना उनमें यह एहसास पैदा करता है कि हम सब एक जमाअत (समुदाय) हैं। रोज़ा उनमें बंधुत्व, सहानुभूति और पारस्परिक एकता उत्पन्न करने का एक कारगर उपाय है।
ये सब हमारे ही फ़ायदे हैं। हमें भूखा रखने में ईश्वर का कोई लाभ नहीं। उसने हमारी भलाई के लिए रमज़ान के रोज़े हमारे लिए अनिवार्य किए हैं। बिना किसी उचित कारण के जो लोग रोज़े नहीं रखते वे अपने ऊपर स्वयं ज़ुल्म करते हैं और सबसे अधिक शर्मनाक नीति उनकी है जो रमज़ान में खुल्लम-खुल्ला खाते-पीते हैं, वे मानो इस बात की घोषणा करते हैं कि हम मुसलमानों के समुदाय से नहीं हैं। हमको इस्लाम के आदेशों की कोई परवाह नहीं है और हम ऐसे स्वच्छन्द हैं कि जिसको ईश्वर मानते हैं उसके आज्ञापालन से खुल्लम-खुल्ला मुँह मोड़ जाते हैं। बताओ जिन लोगों के लिए अपने समुदाय से अलग होना एक आसान बात हो, जिनको अपने सृष्टिकर्ता से बग़ावत करते हुए तनिक भी शर्म न आए और जो अपने धर्म के सबसे बड़े पेशवा के नियत किए हुए क़ानून को खुल्लम-खुल्ला तोड़ दें, उनसे कोई व्यक्ति किस प्रतिज्ञा-पूर्ति, किस सदाचार और विश्वसनीयता, किस कर्तव्यपरायणता और क़ानून के पालन की आशा कर सकता है।
ज़कात
तीसरी अनिवार्य चीज़ ‘ज़कात’ है। ईश्वर ने प्रत्येक मुसलमान धनवान व्यक्ति के लिए अनिवार्य किया है कि यदि उसके पास कम से कम साढ़े बावन तोला चाँदी या इसके मूल्य के बराबर धन हो और उसे रखे हुए पूरा एक वर्ष बीत जाए, तो वह उसमें से चालीसवाँ भाग अपने किसी ग़रीब नातेदार या किसी मोहताज, किसी असहाय निर्धन, किसी नवमुस्लिम, किसी मुसाफ़िर या किसी क़र्ज़दार व्यक्ति को दे दे। या सत्य-धर्म की सेवा व विस्तार में लगा दे।
इस प्रकार ईश्वर ने धनवानों की सम्पत्ति में निर्धनों के लिए कम से कम ढाई प्रतिशत भाग निश्चित कर दिया है। इससे अधिक यदि कोई कुछ दे तो यह एहसान है जिसका पुण्य और अधिक होगा।
देखिए, यह हिस्सा अल्लाह को नहीं पहुँचता। उसे आपकी किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं। परन्तु वह कहता है कि तुमने यदि प्रसन्नतापूर्वक मेरे लिए अपने किसी ग़रीब भाई को कुछ दिया तो मानो मुझको दिया, उसकी ओर से मैं तुम्हें कई गुना अधिक बदला दूँगा। हाँ, शर्त यह है कि उसको देकर तुम कोई एहसान न जताओ, उसका अपमान न करो, उससे धन्यवाद की आशा न रखो, यह भी कोशिश न करो कि तुम्हारे इस दान की लोगों में चर्चा हो और लोग तुम्हारी प्रशंसा करें कि अमुक सज्जन बड़े दानी हैं। यदि इन सभी नापाक विचारों से अपने मन को शुद्ध रखोगे और केवल मेरी प्रसन्नता के लिए अपने धन में निर्धनों को हिस्सा दोगे तो मैं अपने असीमित धन में से तुमको वह हिस्सा दूँगा जो कभी समाप्त न होगा।
ईश्वर ने इस ‘ज़कात’ को भी हमारे लिए उसी प्रकार अनिवार्य किया है जिस प्रकार नमाज़ और रोज़े को अनिवार्य किया है। यह इस्लाम का बहुत बड़ा स्तंभ है और इसे स्तंभ इसलिए माना गया है कि यह मुसलमानों में ईश्वर (की प्रसन्नता) के लिए बलिदान और त्याग का गुण पैदा करता है। स्वार्थ, तंगदिली और धन-लोलुपता के बुरे गुण को दूर करता है। धन की पूजा करनेवाला और रुपये पर जान देनेवाला लोभी और कंजूस व्यक्ति इस्लाम के किसी काम का नहीं। जो व्यक्ति ईश्वर की आज्ञा से अपने गाढ़े पसीने की कमाई बिना किसी निजी स्वार्थ के निछावर कर सकता हो वही इस्लाम के सीधे मार्ग पर चल सकता है। ज़कात मुसलमानों को इस बलिदान और त्याग का अभ्यास कराती है और उसको इस योग्य बनाती है कि ईश्वर के मार्ग में जब माल ख़र्च करने की आवश्यकता हो, तो वह अपने धन को सीने से चिपटाए न बैठा रहे बल्कि दिल खोलकर ख़र्च करे।
‘ज़कात’ का सांसारिक लाभ यह है कि मुसलमान परस्पर एक-दूसरे की मदद करें। कोई मुसलमान नंगा, भूखा और अपमानित न हो। जो धनवान हैं वे दीन-दुखियों को संभालें और जो निर्धन हैं वे भीख माँगते न फिरें। कोई अपने धन को केवल अपने भोग-विलास और ठाठ-बाट में न उड़ा दे, बल्कि यह भी याद रखे कि उसमें उसकी जाति के अनाथों और विधवा स्त्रियों और ग़रीबों का भी हक़ है। उसमें उन लोगों का भी हक़ है जो काम करने की योग्यता रखते हैं परन्तु धन के न होने के कारण मजबूर हैं। इसमें उन बच्चों का भी हक़ है जो प्राकृतिक रूप से मस्तिष्क और प्रतिभा साथ लाए हैं परन्तु निर्धन होने के कारण शिक्षा नहीं हासिल कर सकते। इसमें उनका भी हक़ है जो अपाहिज हो गए हैं और कोई काम करने के योग्य नहीं। जो व्यक्ति इस हक़ को नहीं मानता वह ज़ालिम है। इससे बढ़कर क्या ज़ुल्म होगा कि आप अपने पास रुपयों के खत्ते के खत्ते भरे बैठे रहें, कोठियों में ऐश करें, मोटरों में चढ़े-चढ़े फिरें और आपकी जाति के हज़ारों व्यक्ति रोटियों को तरसते हों और हज़ारों काम के व्यक्ति मारे-मारे फिरें, इस्लाम ऐसी ख़ुदग़र्ज़ी का दुश्मन है। ‘काफ़िरों’ (अधर्मियों) को उनकी सभ्यता यह सिखाती है कि जो कुछ धन उनके हाथ लगे उसको समेट-समेट कर रखें और उसे ब्याज पर चलाकर आस-पास के लोगों की कमाई भी अपने पास खीच लें, परन्तु मुसलमानों को उनका धर्म यह सिखाता है कि यदि ईश्वर आपको इतनी रोज़ी दे जो आपकी आवश्यकता से अधिक हो तो उसको समेट कर न रखिए, बल्कि अपने दूसरे भाइयों को दीजिए ताकि उनकी ज़रूरतें पूरी हों और आपकी तरह वे भी कुछ कमाने और काम करने योग्य हो जाएँ।
हज
चौथी अनिवार्य चीज़ ‘हज’ है। जीवन भर में केवल एक बार इसका पालन आवश्यक है, और वह भी केवल उनके लिए जो मक्का तक जाने का ख़र्च रखते हों।
जहाँ अब मक्का बसा हुआ है, यहाँ अब से लगभग चार हज़ार वर्ष पहले हज़रत इब्राहीम (अलैहि॰) ने एक छोटा-सा घर अल्लाह की इबादत के लिए बनाया था। अल्लाह ने शुद्ध हृदयता और प्रेम का यह सम्मान किया कि उसको अपना घर कहा और कहा कि जिसको हमारी इबादत करनी हो वह इसी घर की ओर मुँह करके इबादत करे और कहा कि हर मुसलमान चाहे वह दुनिया के किसी भाग में हो, यदि सामर्थ्य रखता है, तो जीवन में कम-से-कम एक बार इस घर के दर्शन के लिए आए और उसी प्रेम के साथ हमारे इस घर की परिक्रमा करे, जिस प्रेम के साथ हमारा प्रिय भक्त इब्राहीम करता था। फिर यह भी हुक्म दिया कि जब हमारे घर की ओर आओ तो अपने मन को शुद्ध करो, वासनाओं को रोको, रक्तपात और दुष्कर्म और दुर्वचन से बचो। उसी आदर और नम्रता के साथ आओ जिसके साथ तुम्हें अपने मालिक के दरबार में हाज़िर होना चाहिए। यह समझो कि हम उस सम्राट की सेवा में जा रहे हैं जो धरती और आकाश का शासक है और जिसके सम्मुख समस्त मनुष्य भिखारी हैं। इस नम्रता के साथ जब आओगे और स्वच्छ हृदयता के साथ हमारी ‘इबादत’ करोगे तो हम तुम्हें अपनी रहमतों से सम्पन्न कर देंगे।
एक पहलू से देखिए तो ‘हज’ सबसे बड़ी इबादत है। ईश-प्रेम यदि मनुष्य के हृदय में न हो, तो वह अपने कारोबार को छोड़कर, अपने प्रिय सम्बन्धियों और मित्रों से अलग होकर इतनी लंबी यात्रा का कष्ट ही क्यों करेगा। इसलिए ‘हज’ का इरादा स्वयं प्रेम और निष्ठा का प्रमाण है। फिर जब मनुष्य इस यात्रा के लिए निकलता है, तो उसकी हालत आम मुसाफ़िरों जैसी नहीं होती, इस यात्रा में उसका अधिक ध्यान ईश्वर की ओर रहता है। उसके दिल में उत्साह और उत्कण्ठा बढ़ती चली जाती है। जैसे-जैसे काबा निकट होता जाता है मुहब्बत की आग और अधिक भड़कती है, पाप और अवज्ञा से दिल ख़ुद-ब- ख़ुद नफ़रत करने लगता है, पिछले अपराधों पर शर्मिन्दगी होती है, आगे के लिए वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसको आज्ञापालन का सौभाग्य एवं कृपा प्रदान करे। इबादत (उपासना) और ईश्वर के स्मरण और गुणगान में आनंद आने लगता है। ‘सजदे’ लंबे-लंबे होने लगते हैं और देर तक सिर उठाने को जी नहीं चाहता। (‘सजदा’ अर्थात् झुकना, दंडवत, सिर ज़मीन पर रख देना, चेहरे के बल बिछ जाना। सजदा नमाज़ का एक विशेष अंग है जिसमें मनुष्य ईश्वर की बड़ाई और उसकी महानता के आगे अपना सिर ज़मीन पर रख देता है। यह ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक है)। क़ुरआन पढ़ता है तो उसमें आनन्द ही कुछ और आता है। रोज़ा रखता है, तो उसकी मिठास ही कुछ और होती है, फिर जब वह हिजाज़ के भू-भाग में प्रवेश करता है तो इस्लाम का समस्त प्रारंभिक इतिहास उसकी आँखों के सामने फिर जाता है, चप्पे-चप्पे पर ईश्वर से प्रेम करनेवालों और उसके नाम पर प्राण निछावर करनेवालों के चिन्ह दिखाई देते हैं। वहाँ की रेत का एक-एक कण इस्लाम की महानता का गवाह है और वहाँ की प्रत्येक कंकड़ी पुकारती है कि यह है वह धरती जहाँ इस्लाम उदित हुआ और जहाँ ईश्वरीय बोल ऊँचा हुआ। इस प्रकार मुसलमान का हृदय ईश-प्रीति और इस्लाम के प्रेम से भर जाता है और वहाँ से वह ऐसा गहरा प्रभाव लेकर आता है, जो जीवन के अन्तिम क्षण तक हृदय से दूर नहीं होता।
धार्मिक लाभों के साथ अल्लाह ने हज में अनगिनत सांसारिक लाभ भी रखे हैं। हज के कारण, मक्का सम्पूर्ण संसार के लोगों का केन्द्र बना दिया गया है। धरती के प्रत्येक भाग से अल्लाह का नाम लेनेवाले एक ही समय में वहाँ एकत्र हो जाते हैं, एक-दूसरे से मिलते हैं, आपस में इस्लामी प्रेम की स्थापना हो जाती है और यह चिन्ह हृदय में अंकित हो जाता है कि मुसलमान चाहे किसी देश और वंश के हों, सब एक-दूसरे के भाई हैं और एक जाति हैं, इस कारण हज एक ओर अल्लाह की इबादत है तो इसके साथ ही वह सम्पूर्ण संसार के मुसलमानों की कांफ्रेस भी है और मुसलमानों के विश्वव्यापी बन्धुत्व में एकता पैदा करने का सबसे बड़ा साधन भी।
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