Qur’an Part – 1

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क़ुरआन (भाग-1)

quran part 1शाब्दिक अर्थ:

क़ुरआन का शाब्दिक अर्थ है ‘पढ़ी जाने वाली चीज़’।

पारिभाषिक अर्थ:

इस्लाम की परिभाषा में क़ुरआन उस ईशग्रंथ को कहते हैं जो ईशग्रंथों की दीर्घकालीन श्रृंखला की अन्तिम कड़ी के रूप में अवतरित हुआ। इसका अवतरण जिस शब्द से शुरू हुआ। वह था–‘इक़रा’, यानी ‘‘पढ़ो!’’ लगभग 1400 वर्ष से अधिक काल बीता, एक दिन के भी अन्तर बिना यह ग्रंथ लगातार पढ़ा जाता रहा है। वर्तमान युग में किसी दिन-रात एक क्षण भी ऐसा नहीं बीतता जब विश्व के किसी न किसी भाग में यह पढ़ा न जा रहा हो। इस धरातल पर हर समय-बिन्दु पर कहीं न कहीं नमाज़ अवश्य पढ़ी जा रही होती है, और नमाज़ में क़ुरआन का कोई अंश, कोई भाग या कोई छोटा-बड़ा अध्याय पढ़ना अनिवार्य होता है। इसी प्रकार कहीं न कहीं क़ुरआन-पाठ (अर्थात् इसका पठन-पाठन, तिलावत) हर क्षण होता रहता है। यूँ यह ग्रंथ पूरे विश्व में सबसे अधिक ‘पढ़ी जाने वाली चीज़’ है।

परिचय:

ईशग्रंथ क़ुरआन, फ़रिश्ता ‘जिबरील’ के माध्यम से पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर अरब प्रायद्वीप के शहर मक्का से मिले हुए पहाड़ी सिलसिले के एक पहाड़ की ‘हिरा’ नामक गुफ़ा में अवतरित होना आरंभ हुआ जिसमें आप कई-कई दिन-रात ध्यान-ज्ञान, चिन्तन-मनन (तहन्नुस) के लिए वास किया करते थे। परिस्थिति और आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा करके हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पैग़म्बरीय जीवन में, आप (सल्ल॰) के देहावसान से आठ दिन पहले 31 मई 632 तक अवतरित होता रहा। इसका पूरा अवतरणकाल 7,959 दिन(21 साल 7 मास सौर-वर्ष 22, वर्ष 5 मास चान्द्र-वर्ष) है। क़ुरआन की भाषा अरबी है जो डेढ़ हज़ार साल बीतने पर भी बड़ी उन्नत, उत्कृष्ट, धनी, सजीव, सशक्त और आधुनिक शैली व व्याक्रण रखती है। इसमें छोटे-बड़े 114 अध्याय (सूरः) है लेकिन इसका अध्यायीकरण मानव-रचित पुस्तकों की भाँति, किसी विशेष विषय, तथा किसी निश्चित शीर्षक से संबंधित व्याख्या पर ही आधारित नहीं है बल्कि अधिकतर अध्यायों में बहुत सारे विषयों पर वार्ता की गई, आदेश-निर्देश, नियम, क़ानून दिए गए, शिक्षाएँ दी गईं, पिछली क़ौमों का वृत्तांत बयान किए गए, एकेश्वरत्व के पक्ष में तथा अनेकेश्वरत्व के खंडन में तर्क दिए गए हैं। स्वर्ग और नरक के प्रभावशाली चित्रण किए गए, मानवजाति की अन्तरात्मा, बुद्धि-विवेक एवं चिंतन-शक्ति को बार-बार आवाज़ देकर उसे एकेश्वरवाद का आह्वान दिया गया है। मनुष्य के व्यक्तित्व के दोनों अभाज्य पक्षों—आध्यात्मिकता व भौतिकता—में अति-उत्तम, अति-सुन्दर सामंजस्य व संतुलन को समाहित करने वाला जीवन-विधान सुझाया गया तथा उसे स्वीकार व ग्रहण करने पर उभारा गया है।

क़ुरआन में कुल 6,233 आयतें (वाक्य) हैं। अरबी वर्णमाला के कुल 30 अक्षर 3,81,278 बार आए हैं। ज़ेर (इ की मात्राएँ) 39,582 बार, ज़बर (अ की मात्राएँ) 53,242 बार, पेश (उ की मात्राएँ) 8,804 बार, मद (दोहरे, तिहरे ‘अ’ की मात्राएँ) 1771 बार, तशदीद (दोहरे अक्षर के प्रतीक) 1252 बार और नुक़ते (बिन्दु) 1,05,684 हैं। इसके 114 में से 113 अध्यायों का आरंभ ‘‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’’ से हुआ है, अर्थात् ‘‘शुरू अति कृपाशील, अति दयावान अल्लाह के नाम से।’’ पठन-पाठन और कंठस्थ में आसानी के लिए पूरे ग्रंथ को 30 भागों में बांट कर हर भाग का नामांकरण कर दिया गया है। हर भाग ‘पारा’ (Part) कहलाता है।

अवतरण:

पवित्र क़ुरआन, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के हृदय पर, ईश-वाणी की हैसियत से ईशप्रकाशना (वह्य, Divine Revelation) के रूप में अवतरित हुआ। यह अवतरण17, अगस्त, 610 ई॰ को शुरू हुआ। इसका कोई अंश आप (सल्ल॰)पर अवतरित होता तो आपकी स्थिति बदल जाती; कभी बहुत अधिक पसीना आ जाता, कभी आपका वज़्न बढ़ जाता, इतना अधिक कि यदि आप सवारी (ऊंटनी) पर होते तो यूँ दिखता कि वह बहुत अधिक भार से दबी जा रही है; अक्सर वह ऊँटनी बैठ जाती। वह्य पूरी हो जाने पर आप, और सवारी की स्थिति सामान्य हो जाती।

लेखन:

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) स्वयं पढ़े-लिखे न थे। क़ुरआन का जो भी अंश अवतरित होता वह विशेष ईश्वरीय प्रावधान से आपको कंठस्थ (याद) हो जाता [सूरः क़ियामः (75) आयत 17-19] आप तुरंत या शीघ्रताशीघ्र अपने साथियों को बोल कर उसे लिखवा देते। इतिहास में प्रमाणित तौर पर ऐसे लिखने वालों (वह्य-लिपिकों) की संख्या 41 उल्लिखित है। उन सब के नाम, पिता के नाम, क़बीले (वंश, कुल) के नाम भी इतिहास के रिकार्ड पर हैं।

संकलन:

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) क़ुरआन के लिपिकों को यह आदेश भी तुरन्त ही दे देते कि इस आयत/अंश को (ईशनिर्देशित क्रम के अनुसार) अमुक आयत/अंश के बाद/पहले रख लो। इस प्रकार पूरा क़ुरआन ईश-अपेक्षित क्रमानुसार, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन में ही क्रमबद्ध और संकलित हो गया। अंत में फ़रिश्ता ‘जिबरील’ ने पैग़म्बर (सल्ल॰) को, और पैग़म्बर (सल्ल॰) न जिबरील को पूरा क़ुरआन सुनाया। इस तरह ‘अन्तिम जाँच’ की इस विशिष्ट प्रणाली व प्रयोजन से गुज़र कर, ईश्वरीय स्वीकृति के तहत ईश-ग्रंथ क़ुरआन प्रामाणिकता व विश्वसनीयता के उच्चतम मापदंड पर मानवजाति के शाश्वत मार्गदर्शन के लिए तैयार हो गया।

संरक्षण:

क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:

चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है—

‘‘हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग’’ (सूरः हिज्र 15, आयत 9)

ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए—

  • प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ (Memorise) करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी (सूर: 75, आयत 17-19)
  • पैग़म्बर (सल्ल॰) के कई साथियों ने क़ुरआन को पूर्ण शुद्धता के साथ कंठस्थ (हिफ़्ज़) कर लिया।
  • पैग़म्बर (सल्ल॰) के जीवन-काल में ही क़ुरआन का संकलन-कार्य पूरा कर लिया गया।
  • पैग़म्बर (सल्ल॰) के देहावसान (632 ई॰) के बाद आपके दो उत्तराधिकारियों (ख़लीफ़ाओं हज़रत अबूबक्र (रज़ि॰) और हज़रत उमर (रज़ि॰) के शासन-काल (632-644 ई॰) में उनकी व्यक्तिगत निगरानी में सारे लिपिकों की लिखित सामग्री को एक-दूसरे से जाँच कर तथा ग्रंथ के कंठस्थकारों से पुनः-पुनः जाँच कर, पैग़म्बर (सल्ल॰) के निर्देशित क्रम में पुस्तक-रूप में ले आया गया। फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि॰) के शासनकाल (644-656 ई॰) में इस ग्रंथ की सात प्रतियाँ तैयार की गईं। एक-एक प्रति इस्लामी राज्य के विभिन्न भागों (यमन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, आरमेनिया, मिस्र, इराक़ और ईरान) में सरकारी प्रति के तौर भी भेज दी गई। उनमें से कुछ मूल-प्रतियाँ आज भी ताशकन्द, इस्तंबूल आदि के संग्रहालयों में मौजूद हैं।
  • ईश्वर ने ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को आदेश देकर चैबीस घंटों में प्रतिदिन पाँच बार की अनिवार्य नमाज़ों में क़ुरआन के कुछ अंश पढ़ना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा स्वैच्छिक नमाज़ों में भी इसे अनिवार्य किया गया। रमज़ान के महीने में रात की नमाज़ (तरावीह) में पूरा क़ुरआन पढ़े जाने और सुने जाने को ‘महापुण्य’ कहकर पूरे विश्व में प्रचलित किया गया। पूरे क़ुरआन को (या कुछ अध्यायों को) कंठस्थ करना ‘महान पुण्य कार्य’ कहा गया, और लाखों-करोड़ों लोगों ने पूर्ण ग्रंथ को, तथा संसार के सभी मुसलमानों ने ग्रंथ के कुछ अध्यायों को कंठस्थ कर लिया। (यह क्रम 1400 वर्ष से जारी है) भविष्य में भी जारी रहेगा)। इस प्रकार क़ुरआन अपने मूलरूप में (पूरी शुद्धता, पूर्णता व विश्वसनीयता के साथ) सुरक्षित हो गया।

प्रसारण:

छापाख़ानों (प्रिंटिंग प्रेस) के आविष्कार से पहले दुनिया भर के मुसलमानों में क़ुरआन को हाथ से लिखने की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित हुई और ग्रंथ का प्रसारण कार्य जारी रखा गया। इसे अपने जीवन का महान सौभाग्य समझने की मानसिकता अत्यधिक बढ़ी। मूर्तिकला व चित्रकला के, इस्लाम में वर्जित होने के कारण, मुसलमानों की कला-वृत्ति क़ुरआन की ‘लेखन-कला’ पर केन्द्रित हो गई। भवनों और मस्जिदों पर क़ुरआन की आयतें लिखी जाने का प्रचलन आम हो गया।

फिर मुद्रण-प्रणाली का आविष्कार हो जाने पर क़ुरआन के मुद्रण प्रकाशन के हज़ारों-लाखों केन्द्र स्थापित हो गए। वर्तमान में विश्व भर में प्रतिदिन क़ुरआन की लाखों प्रतियाँ छपती तथा एक विशाल वैश्वीय वितरण प्रणाली द्वारा संसार के कोने-कोने में प्रसारित हो रही हैं। इस समय क़ुरआन, विश्व में मात्र एक ही ऐसा ईशग्रंथ है जो सारी पुस्तकों-ग्रंथों से ज़्यादा छपता, प्रकाशित व प्रसारित होता, उपहार में दिया जाता, ख़रीदा जाता, पढ़ा जाता और आदर व सम्मान किया जाता है। दुनिया के लगभग 100 प्रतिशत मुस्लिम घरों में, लगभग 10 प्रतिशत ग़ैर-मुस्लिम घरों में तथा लगभग 60 प्रतिशत पुस्तकालयों में क़ुरआन की कम-से-कम एक प्रति मौजूद है। साथ ही कई वेबसाइट्स व इन्टरनेट पर क़ुरआन अपनी मूल-लिपि में उपलब्ध करा दिया गया है।

अनुवाद और भाष्य:

क़ुरआन चूँकि विशुद्ध ईशवाणी है अतः कोई मनुष्य इसका अनुवाद नहीं कर सकता क्योंकि मानव-वाणी में इसकी पूर्ण क्षमता व सामर्थ्य नहीं है। लेकिन चूँकि यह ग्रंथ संपूर्ण मानवजाति के पथ-प्रदर्शन के लिए है और संसार का हर व्यक्ति क़ुरआनी (अरबी) भाषा में निपुण नहीं हो सकता इसलिए विद्वानों और क़ुरआनी अरबी भाषा के ज्ञानियों ने क़ुरआन के ‘अर्थ’ का ‘अनुवाद’ और क़ुरआन के भावार्थ का ‘भाष्य’ लिखा। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी सहित, दुनिया की सैकड़ों भाषाओं में ऐसे अनुवाद व भाष्य हो चुके हैं। विशेष रूप से भारत की सारी प्रमुख (क्षेत्रीय) भाषाओं—मनीपुरी, असमिया, बंगला, उड़िया, गुजराती, कन्नड़, मराठी, तेलुगू, मलयाली, तमिल, गुरमुखी आदि भाषाओं में देशवासियों को उपलब्ध कराया गया है। साथ ही हिन्दी व अंग्रेज़ी तथा उर्दू में वेबसाइट्स पर भी क़ुरआन के अर्थों के अनुवाद और भाष्य उपलब्ध हैं।

क़ुरआन का विषय:

क़ुरआन का विषय प्रमुखतः ‘इन्सान और ईश्वर’ है। अर्थात्, इन्सान की हक़ीक़त, ईश्वर की हक़ीक़त और इन्सान व ईश्वर के बीच संबंध की हक़ीक़त । पूरा क़ुरआन इन ही तीन हक़ीक़तों की व्याख्या है।
यद्यपि क़ुरआन में ज्ञान-विज्ञान के अनेकानेक क्षेत्रों से संबंधित अनेक विषयों पर चर्चा हुई है परन्तु चर्चा का मूल उद्देश्य विद्यालयों के शिक्षार्थियों की तरह, मनुष्यों को तत्संबंधित विषयों की सांसारिक शिक्षा व ज्ञान देना नहीं, बल्कि उस ज्ञान-विज्ञान द्वारा मानवजाति को ईश्वर व उसके ईश्वरत्व की सही पहचान कराना है जिसे पहचान लेने, जिसे समझ लेने और जिस पर पूरा विश्वास कर लेने के परिणामस्वरूप मनुष्य स्वयं अपने को, अपनी वास्तविकता को, अपने पैदा किए जाने के उद्देश्य को, अपने व ईश्वर के बीच यथार्थ संबंध को, उसके प्रति अपने कर्तव्यों को, ईश्वर के अधिकारों को तथा उसकी महानता, शक्ति, सामर्थ्य को भी पहचान लेता है; नेकी व बदी; भलाई व बुराई; पुण्य व पाप; वास्तविक लाभ व वास्तविक हानि के बीच फ़र्क़ करने में उतना सक्षम व कुशल हो जाता है जितना, मात्र अपनी सीमित बुद्धि से, अपनी पन्चेंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान और स्वयं अपने तजुर्बों से नहीं हो सकता।

क़ुरआन में जीव-विज्ञान, (Zoology) खगोल-विज्ञान (Astronomy), बनस्पति-विज्ञान (Botony), प्रजनन (Reproduction), शरीर-संरचना (Anatomy), समुद्र-विज्ञान (Oceanology) पर्यावरण (Ecology), भूगोलशास्त्रा (Geography), भ्रूण-विद्या (Embryology), इतिहास (History), समाजशास्त्र (Sociologhy), अर्थशास्त्र (Economics), मानव-विज्ञान (Humanities), सृष्टि-रचना (Creation of Universe) आदि विषयों पर काफ़ी चर्चा हुई है। यह चर्चा हमारी विषयबद्ध पुस्तकों की तरह एकत्र नहीं बल्कि पूरे क़ुरआन में जगह-जगह बिखरी हुई है तथा बार-बार उल्लिखित हुई है।

इसके द्वारा—

  • ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण दिए गए हैं।
  • सतर्कपूर्ण शैली में ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ पर पूर्ण विश्वास की सामग्री प्रस्तुत की गई है।
  • ‘एक ईश्वर’ के अतिरिक्त ‘अनेक-ईश्वर’—अर्थात् ईश्वर की शक्ति, सत्ता, क्षमता में ‘कुछ दूसरों’ के भी साझी, शरीक होने का बुद्धिसंगत खंडन किया गया है। इसके लिए मानव-संरचना एवं सृष्टि संरचना तथा अन्य विज्ञानों से तर्क दिए गए हैं।
  • ‘मात्र एह ही ईश्वर’ के स्रष्टा, प्रभु, स्वामी एवं पालक-पोषक होने के तर्क पर केवल उसी के ही पूज्य-उपास्य होने के तर्क जुटाए गए हैं, और विशुद्ध एकेश्वरवादी जीवन बिताने का आह्नान दिया गया है।
  • ईश्वर की इन्कारी, बाग़ी, उत्पाती, अवज्ञाकारी क़ौमों के वृत्तांत बयान करके उनके सांसारिक दुष्परिणाम, और तबाह कर दिए जाने के ईश्वरीय प्रकोप का इतिहास बताया गया और मानवजाति को चेतावनी दी गई है कि ईश्वर के प्रति उद्दंडता करते हुए ‘भवन-निर्माण’ और ‘सभ्यता’ में अस्थाई रूप से चाहे जितनी भौतिक ‘उन्नति’ कर लो, तुम्हारा नैतिक व आध्यात्मिक पतन एक दिन तुम्हें ले डूबेगा। भवन ध्वस्त कर दिए जाएँगे, बस्तियाँ तलपट कर दी जाएँगी, नगर के नगर बसी-बसाई हालत में उलट दिए जाएँगे, या ज़मीन में नीचे तक धँसा दिए जाएँगे। ईश्वर, तुम्हें सुधरने के अवसर और ढील तो बहुत देता है परन्तु ज़मीन पर चल फिर कर (खण्डहरों को तथा ख़ोदाई में निकले नगरों के पुरातत्व अवशेषों को) देखो, यह ढील हमेशा के लिए नहीं दी जाती क्योंकि हमेशा की ढील देना ईश्वरीय गुण व तत्वदर्शिता के प्रतिकूल है।
  • बौद्धिक व वैज्ञानिक आधार पर इस बात के तर्क प्रस्तुत किए गए हैं कि (परलोक में, मनुष्यों के इहलौकिक अच्छे या बुरे कर्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब करके उन्हें स्वर्ग का पुरस्कार या नरक का दंड देने के लिए) मानव को सांसारिक शरीर के साथ पुनः अस्तित्व व जीवन दे देना ईश्वर के लिए बहुत ही आसान होगा। वह निर्जीव से जीव को तथा जीव से निर्जीव को उत्पन्न तो इस संसार में भी बराबर करता रहता है। उसका यह सामर्थ्य सर्वज्ञात, सर्वविदित है।

Source: islamdharma.org

Courtesy :
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Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)