Islam mein Shaichhidink Vayavastha

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islamic education

शैक्षणिक व्यवस्था:

• ज्ञान की अवधारणा 
• शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण 
• शैक्षणिक व्यवस्था 
• सहशिक्षा

शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानोपार्जन है। शैक्षणिक व्यवस्था की रूपरेखा इस बात पर निर्भर है कि ‘ज्ञान’ की अवधारणा क्या है, उसके अन्तर्गत शिक्षा के संबंध में दृष्टिकोण क्या बनता है।

ज्ञान की अवधारणा: धर्म-उदासीन, धर्म-विहीन या धर्म-विरोधी (सेक्युलर) विचारधारा में मात्र पंचेन्द्रियाँ (Five Senses) ही ज्ञान का मूल स्रोत हैं। ऐसे ज्ञान का अभीष्ट ‘मनुष्य के व्यक्तिगत व सामूहिक हित के भौतिक संसाधनों का विकास, उन्नति तथा उत्थान’ है। इसमें नैतिकता व आध्यात्मिकता के लिए कोई जगह नहीं होती। जबकि मनुष्य एक भौतिक अस्तित्व होने के साथ-साथ…बल्कि इससे कहीं अधिक…एक आध्यात्मिक व नैतिक अस्तित्व भी है। उसके अस्तित्व का यही पहलू उसे पशुओं से भिन्न व श्रेष्ठ बनाता है।
ज्ञान की इस्लामी अवधारणा में पंचेन्द्रियों के ज्ञान-स्रोत में एक और स्रोत की वृद्धि है जो मनुष्य को पशुओं तथा अन्य समस्त जीवधारियों से उत्कृष्ट व श्रेष्ठ बनाता है; वह स्रोत है: ईश-पदत्त ज्ञान…जो मनुष्य को उसके सृजन का उद्देश्य बताए; सृष्टि में एवं पृथ्वी पर उसकी यथार्थ हैसियत निर्धारित करे; उसे स्वयं उसकी वास्तविकता का बोध कराए; उसके और स्रष्टा के बीच संबंध की विवेचना करे। जीवन के पाश्विक लक्ष्य, ‘‘खाओ, पिया, मौज करो’’ से ऊँचा कोई लक्ष्य बताए; इस मूल्यवान जीवन का उद्देश्य और अभीष्ट मंज़िल बताए; और निश्चित, स्पष्ट, भ्रमरहित रूप से यह भी बताए कि इस जीवन के बाद क्या है? क्योंकि बुद्धि-विवेक इस बात को स्वीकार नहीं करता कि इस नश्वर जीवन की समाप्ति पर एक सज्जन, सत्यष्ठि, परोपकारी, ईशपरायण, ईशभक्त, जनसेवक, व्यक्ति का और एक पापी, क्रूर, निर्दयी, अत्याचारी, व्यभिचारी व्यक्ति का पार्थिव शरीर एक ही जैसा नष्ट हो जाने के साथ-साथ दोनों का अन्तिम व निर्णायक परिणाम भी एक ही जैसा होगा।

शिक्षा-संबंधी दृष्टिकोण: शिक्षा, ज्ञान अर्जित करने की पद्धति, प्रणाली, प्रयोजन का नाम है। इस्लाम का शैक्षणिक दृष्टिकोण, ‘ज्ञान’ की उपरोक्त दूसरी अवधारणा पर केन्द्रित है। इस विषय पर इस्लाम का स्पष्ट दृष्टिकोण यह है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मनुष्य की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व सामूहिक आवश्यकताओं के भौतिक तक़ाज़ों को इस तरह पूरा करे कि उसके नैतिक व आध्यात्मिक तक़ाज़ों का हनन, दमन व विनाश होना तो बहुत दूर की बात, उनकी अवहेलना, ह्रास एवं हानि भी न हो वरना मनुष्य व मानव समाज दोषयुक्त, अपभ्रष्ट हो जाएगा। इस्लाम तो और भी ऊँची, और भी आगे की बात करता है। इसकी मान्यता है कि आध्यात्मिकता, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों को भौतिकता पर प्राथमिकता व वर्चस्व प्राप्त है। इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार यह तभी संभव है जब शिक्षा संबंधी विचारधारा में ईश्वरीय मार्गदर्शन, नियम व सिद्धांत की प्रमुख भूमिका तथा प्राथमिक व अनिवार्य योगदान हो। इस मार्गदर्शन का मूल स्रोत ‘ईशग्रंथ तथा ईशदूत (पैग़म्बर) का व्यावहारिक आदर्श’ है।

शैक्षणिक व्यवस्था: इस्लाम की दृष्टि में शिक्षण के दो क्षेत्र हैं। एक: अनौपचारिक (Informal) क्षेत्र, दो: औपचारिक (Formal) क्षेत्र।

● अनौपचारिक क्षेत्र माँ की गोद (जो मनुष्य की पहली पाठशाला है) से आरंभ होकर घर और परिवार तक, फिर उससे बढ़कर आस-पास के वातावरण तक, फिर उससे भी आगे बढ़कर विशालतर समाज तक फैला हुआ है। इस क्षेत्रा में इन्सान की मान्यताओं, परंपराओं, चरित्र, नैतिकता और मूल्यों की नीव पड़ती है; अतः इस शिक्षण-प्रशिक्षण क्षेत्र में उसकी मूल-प्रवृत्ति के अनुसार उसे एक नेक, सच्चा, ईशभक्त, सभ्य, सज्जन, सत्यनिष्ठ, ईशपरायण व्यक्ति बनाने की स्वाभाविक बहुपक्षीय, बहुआयामी, संतुलित व्यवस्था होनी चाहिए । इस्लाम बचपन से किशोरावस्था तक, वहाँ से वयस्कता तक, फिर बुढ़ापे तक, यहाँ तक कि जीवन की अन्तिम साँस तक मनुष्य की ऐसी ही शिक्षा-दीक्षा का निश्चित व प्रभावशाली प्रयोजन करता है। इस प्रयोजन में प्रेरणा (Inducement) भी शामिल है और हुक्म (Order) भी। प्रेरणा को नकारने के दुष्परिणाम भी बताए गए हैं और हुक्म को न मानने की (इहलौकिक व पारलौकिक) सज़ाएँ भी बता दी गई हैं।

● औपचारिक शिक्षा का क्षेत्र पाठशालाओं से शुरू होकर, स्कूलों, मदरसों, कॉलेजों, जामिआत और यूनिवर्सिटियों तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र में इस्लामी व्यवस्था यह है कि भौतिक व सांसारिक (सेक्युलर) शिक्षा तो अवश्य दी जाए किन्तु यह आध्यात्मिक व नैतिक अर्थात् धार्मिक शिक्षा के अनुकूल/अधीन हो। इस्लाम शिक्षा-प्रणाली के उस सेक्युलर प्रारूप के विरुद्ध है जिसकी दृष्टि में मनुष्य को ‘धन कमाने की मशीन’ और समाज को धन बनाने वाली मशीनों से भरा हुआ कारख़ाना, इंडस्ट्री बनाकर रख दिया जाए और यह बात शिक्षा-पाठ्यक्रम/शिक्षा प्रणाली में आने ही न दी जाए कि धन मनुष्य की मौलिक आवश्यकता और जीवन के लिए शुभ और वरदान होने के बावजूद, इसके उपार्जन में वह इतना जुनूनी, लालची, हरीस और पागल न हो जाए कि नैतिकता को कुचलता, आध्यात्मिकता को रौंदता, मानवीय मूल्यों को ठुकराता, सदाचार को नकारता, सही-ग़लत, जायज़-नाजायज़, वैध-अवैध, हलाल-हराम के मापदंडों को तोड़ता, मानवता की सीमाओं को फलाँगता चला जाए।

यथार्थ नैतिकता व आध्यात्मिकता वास्तव में क्या है जिसे हमारी शैक्षणिक व्यवस्था का न केवल अभाज्य अंग, बल्कि मूल-तत्व होना चाहिए? इस प्रश्न का यथोचित उत्तर यदि पूर्णरूप से मनुष्य और समाज से लिया जाए तो जनसामान्य, विचारकों, बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों आदि से मिलने वाले उत्तरों में बड़ी भिन्नता होगी, बड़ा अन्तर, विरोधाभास और टकराव होगा। (शायद इसी कारण आध्यात्मिकता व नैतिकता के ‘झमेले’ को शैक्षणिक व्यवस्था से निकाल-बाहर कर दिया गया है)। लेकिन इस्लाम इस उलझन को सुलझाता है और इसके लिए दो मार्गदर्शक स्रोतों से लाभ उठाने का एक उत्तम विकल्प मानवजाति के समक्ष रखता है। एक: ईश-ग्रंथ (कु़रआन), दो ईशदूत (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰) का आदर्श।
इस्लाम की शैक्षणिक व्यवस्था भौतिकता और आध्यात्मिकता का अति सुन्दर, अति उत्तम सामंजस्य पेश करती है। ऐसी व्यवस्था से उत्पन्न होने वाले व्यक्ति जितने अच्छे, सकुशल, निपुण अध्यापक, अधिकारी, इंजीनियर, चिकित्सक, प्रशासक, वकील, जज, व्यापारी, उद्योगपति, तकनीशियन, टेक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट, प्रोफ़ेशनल आदि बनेंगे, साथ-साथ उतने ही -बल्कि उससे ज़्यादा-अच्छे, ईमानदार, चरित्रवान, अनुशासित इंसान भी बनेंगे। ऐसे चरित्रवान इन्सान जो रिश्वतख़ोर, ग़बन करने वाले, कम नाप-तौल, मिलावट, जमाख़ोरी, कालाबाज़ारी करने वाले नहीं होंगे।

इस्लामी शिक्षा प्रणाली में पाठ्यक्रम इसी के अनुकूल बनाया जाता है। किताबी शिक्षा के साथ-साथ उत्तम चरित्र-निर्माण और उच्च नैतिकता व ईशपरायणता का प्रशिक्षण भी इस व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है।

इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि जब तक, जहाँ-जहाँ, जिस ज़माने में भी जिस हद तक शैक्षणिक व्यवस्था में इस्लाम को उसकी भूमिका निभाने का अवसर व साधन मिला, उसी अनुपात में उस व्यवस्था से बेहतरीन इन्सान उपजे, बेहतरीन समाज पनपा, बेहतरीन सामूहिक व्यवस्था और कल्याणकारी राज्य की स्थापना हुई तथा मानवता ने बहुआयामी, बहुमुखी उन्नति की, न कि सिर्फ़ भौतिक उन्नति।

सहशिक्षा (Co-education) : इस्लाम सैद्धांतिक स्तर पर इन्सानों में विपरीत लिंगों (Opposite Sexes) के स्वच्छंद व अनियंत्रित मेल-मिलाप को वर्जित करता है। उनमें मेल-जोल की प्रक्रिया के संबंध में कुछ सिद्धांत, कुछ नियम, एक आचार-संहिता (Code of Conduct) और कुछ आयाम, कुछ सीमाएँ निर्धारित करता है ताकि पारिवारिक, सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में दोनों (स्त्री व पुरुष) अपनी-अपनी भूमिका भी उत्तम रूप से निभा सकें, साथ ही साथ दोनों के नैतिक व चारित्रिक मूल्य भी सुरक्षित रहें; विशेषतः नारी के शील, स्वभाव, अस्मिता, नारीत्व की गरिमा व महत्ता और चरित्र की बेशक़ीमत दौलत को सुरक्षा, संरक्षण और सलामती का समाज में पूरा प्रावधान हो।
इसी सिद्धांत के अन्तर्गत इस्लाम में सहशिक्षा को न तो प्रोत्साहन दिया गया है, न मान्यता। इस्लाम चारित्रिक स्तर पर समाज को बिल्कुल साफ़-सुथरा, बहुत ऊँचा देखना चाहता है। शिक्षा सामाजिक क्रियाकलापों का अनिवार्य व अभिन्न अंग है। वर्तमान युग में ‘नारी-स्वतंत्रता’ का वैश्वीय आन्दोलन चला तो इसके साथ ‘नारी-पुरुष समानता’ की अवधारणा जुड़ गई। इस ‘समानता’ को मानव-प्रकृति के विभिन्न आयामों (पहलुओं) के परिप्रेक्ष्य में न निश्चित किया गया न निर्देशित। अतः स्वाभाविक परिणाम के स्वरूप यह ‘समानता’ और ‘स्वतंत्रता’ नैतिकता के सारे बंधन तोड़कर ऐसी आज़ादी में ढल गई जो बे-लगाम आज़ादी का रूप धारण कर गई। इसके कुपरिणाम ने समाज व सामूहिक व्यवस्था को अनेक जटिल समस्याओं में जकड़ दिया।

पाश्चात्य सभ्यता ने इस ‘समानता’ और ‘स्वतंत्रता’ का प्रयोग अपने जिस समाज में किया और जिसके अनुसरण ने हमारे भारत देश सहित, अन्य लगभग सारे देशों की पूर्वी-सभ्यता में तेज़ी से अपनी राह बना ली उस समाज में स्कूल-स्तर पर युवावस्था में दाख़िल होते-होते बच्चों-बच्चियों में यौन-संबंध स्थापित होने लगे। फिर 80 प्रतिशत से 90 प्रतिशत किशोरियाँ गर्भ धारण के चरण से गुज़रने लगीं। समाज के बड़ों (यानी इन्हीं किशोरों- किशोरियों के अभिभावकों और सभ्यता-संस्कृति के कर्णधारों) ने इस भीषण समस्या का समाधान अगर कुछ अनमनेपन और बेदिली से करना भी चाहा तो ‘नारी-स्वतंत्रता’, ‘नारी-अधिकार’ और ‘लैंगिक समानता’ (Gender Equality) की अवधारणाओं ने यह तरकीब सुझा दी कि अपनी बेटियों-बेटों को गर्भ-निरोधक औषधियों व सामग्रियों के वो पैकेट थमा दो जो तुमने अपने मर्दों और औरतों को ‘सुरक्षित यौन-क्रिया’ (Self Sex) से ‘आनंदित’ कराने के लिए बना रखा है लेकिन व्यावहारिक स्तर पर यह ‘साइंटिफ़िक’ तजुरबा भी पूरी तरह कामयाब न हो सका। प्रकृति से बग़ावत और नैतिकता के हनन व दमन का जो रास्ता आज़ादी, अधिकार व बराबरी के सुन्दर नामों से खोल दिया गया था, सहशिक्षा का पूरा प्रकरण उस रास्ते पर चलते हुए किशोरों की चरित्रहीनता और किशोरियाँ के चारित्रिक विघटन में सहायक व सहयोगी बनता रहा। अब पश्चिम की आँखें थोड़ी खुल रही हैं, ‘सहशिक्षा’ की ग़लती का कुछ एहसास होने लगा है। परिणामस्वरूप वहाँ Single Sex Schools (समलैंगिक पाठशालाएँ व विद्यालय) खुलने लगे हैं। लेकिन पश्चिमी सभ्यता, पथभ्रष्टता में इतना आगे निकल गई है कि वहाँ से वह वापस भी लौट सकेगी या नहीं, और लौटी भी तो कितना समय बिताकर, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं है; न पाश्चात्य सभ्यता के कर्णधारों के पास न उनके पिछलग्गू पूर्वी सभ्यता के कर्णधारों के पास।

इस्लाम, जैसा कि पिछली पंक्तियों में लिखा गया, अपनी शैक्षणिक व्यवस्था में सहशिक्षा की अनुमति नहीं देता। ग़ैर-इस्लाम (Non-Islam) की प्रणाली यह है कि पहले समस्या पैदा होने दो; फिर उसे विधिवत् पैदा करो; फिर बढ़ने, फलने-फूलने दो; फिर इस बढ़ोतरी में सारे संसाधनों सहित सहायक व सक्रिय हो जाओ, फिर बात बहुत बिगड़ जाए, समस्या पर नियंत्रण न रह जाए तब नियम-क़ानून बनाओ। फिर भी इसका समाधान न हो तो कुछ और क़ानून बनाते जाओ। क़ानून पीछे-पीछे चले, समस्या अपनी भयावहता के साथ आगे-आगे चले।

इस्लाम की प्रक्रिया इसके विपरीत है। अतः इसने नियम बनाया है कि विपरीत-लिंगीय मेल-मिलाप पर रोक है। बच्चियों/किशोरियों/युवतियों की पाठशालाएँ और विद्यालय अलग हों और बच्चों/किशोरों/युवकों के अलग। इससे वे यौनाकर्षण और अनियंत्रित व अनैतिक यौन-संबंधों के कुप्रभावों से, तथा साथ ही इसके कुपरिणामों से सहज ही सुरक्षित रह सकेंगे। उनके शील व चरित्र सुरक्षित रहेंगे। इस्लाम के इस नियम पर मुस्लिम समाज ने जब भी जहाँ भी और जिस हद तक जितना अमल किया है यह विदित है कि उसी अनुपात में उसकी युवा पीढ़ी नैतिक पतन, दुराचार व चरित्रहीनता से सुरक्षित रही है।