कुरानख्वानी क्यो?
कुरानख्वानी के ज़रिये मुर्दो को सवाब पहुंचाने का रिवाज हमारे मुस्लिम समाज मे बाकसरत और आम हैं| अवाम अपने मुर्दो के इसाल स्वाब के लिये कुरान ख्वानी की मजलिस मुकरर्र करती हैं और हाज़िरीन मजलिस मे से हर शख्स या मखसूस पेशावर कुरानख्वा(जो पैसे लेकर कुरान पढते हैं) जैसे-तैसे कुरान को खत्म करके इसका स्वाब मय्यत को पहुंचाने की दुआ मांगते हैं|
कुरानख्वानी की ये रस्म अब पेशा इख्तयार कर चुकी हैं अब कुरान्ख्वा भी हर जगह बाआसानी मिल जाते हैं और कुरानख्वानी की उजरत भी कुरानख्वानी करने वाले की हैसियत या कुरानख्वा की हैसियत भी तय होती हैं जो घटती-बढ़ती रहती हैं| कब्रस्तानो मे भी पेशावर कुरान्ख्वाह मौजूद रहते हैं| यतीमखानो और दीनी मदरसो के यतीम तलबा का भी कुरानख्वानी की उजरत लेना एक मखसूस ज़रिया बन गया हैं| ये एक ऐसी बिदात हैं जो दीन के नाम पर अकीदत मन्दी और स्वाब समझ कर करी जा रही हैं पर इस अमल के ताल्लुक से ना नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने कही ज़िक्र किया न ही सहाबा का तर्ज़ अमल कही से मिलता हैं बल्कि इस बिदात ने ऐसी मज़बूती के साथ जड़ पकड़ ली हैं के आवाम तो आवाम उल्मा हज़रात भी इसे बन्द करने की ताकिद नही करते बल्कि इसमे शामिल होते हैं| आज किसी मय्यत को जहन्नम के अज़ाब से बचाने के लिये इस बिदात की आड़ मे आवाम को सिर्फ़ बेवकूफ़ बना कर गुमराह किया जा रहा हैं|
कुरानख्वानी के मौअज़ू पर गौर करने से पहले इस बात पर गौर करना बहुत ज़रूरी हैं के जिस मकसद के लिये कुरानख्वानी की जाती हैं उसके लिये नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने क्या अहकाम बताये हैं ताकि कुरानख्वानी करने और कराने की जो बिदात और गलतफ़हमी हैं उसे समझा जा सकें|
मय्यत को सवाब पहुंचाने के लिये नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने जो अहकाम बताये उसमे कही भी कुरानख्वानी का ज़िक्र नही हैं और ना ही सहाबा रज़ि0 और ताबाईन रह0 मे इस किस्म का कुरान पढने-पढाने का कही जिक्र हैं जिसकी बुनियाद पर मय्यत को सवाब पहुंचाया जा सके| जितनी अहमियत इस मसले को अब दी जा रही हैं उतना ही सहाबा और ताबाईन के दौर मे ये एक गैर अहम था बल्कि उनके गुमान मे भी ये ना था के आने वाले वक्त मे कुरान को इस तरह से इस्तेमाल किया जायेगा और एक ऐसी बिदात ईजाद होगी| बल्कि उनके नज़दीक मय्यत को जिस तरह कुरान और सुन्नत की रोशनी मे सवाब पहुंचाया जा सकता था वो इस तरह से हैं-
दुआ के ज़रीये सवाब पहुंचाना
अगर मय्यत काफ़िर और मुशरिक ना हो तो इसके लिये दुआ करनी मसनून हैं और अगर औलाद अपने वालिदैन के लिये दुआ करे तो ये सदका ज़ारिया हैं, मोमिन कि दुआ दूसरे मोमिन भाई के लिये कबूल होती हैं| अल्लाह फ़रमाता हैं-
और जो लोग इनके बाद आये जो कहेगें के ऐ हमारे रब हमे बख्श दे और हमारे इन भाईयो को भी जो हम से पहले ईमान ला चुके और ईमानवालो की तरफ़ से हमारे दिल मे दुश्मनी मत डाल| ऐ हमारे रब बेशक तू शफ़कत व मेहरबानी करने वाला हैं| (सूरह हशर 59/10)
इसके अलावा हर अज़ान के बाद दुआ मे नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम के लिये अल्लाह से वसीला, फ़ज़ीलत और मुकम महमूद की दुआ करि जाती हैं| लिहाज़ा कुरान की आयत से साबित हैं के मुर्दा इन्सान के लिये बेहतरीन बख्शिश दुआ हैं|
सदका ज़ारिया
यानी मरने वाला अपनी ज़िन्दगी मे ऐसा काम कर जाये जिससे इसके मरने के बाद इस को नेकी और सवाब मिलता रहे जैसे – इल्म सिखाना, कुरान मजीद दूसरो के लिये छोड़ जाना, मस्जिद बनवा देना, पानी के लिये कुआ या दिगार इन्तेज़ाम कर जाना, कोई सदका जो मरने से पहले कर गया हो जिससे लोग फ़ायदा उठा रहे हो, मुर्दा सुन्नत(नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का वो तरीका जिसे लोग भूल गये हो और लोगो के अमल मे न हो) ज़िन्दा करना, अल्लाह की राह मे कत्ल(शहीद) होना, पेड़ लगवाना जिससे लोग फ़ायदा उठा रहे हो|
इसके अलावा वो तमाम बेहतर काम जिससे उससे मरने के बाद लोग फ़ायदा उठायेगे उसे मरने के बाद सवाब पहुंचता रहेगा|
इसके अलावा नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का इरशाद हैं-
जब इन्सान मर जाता हैं तो इसका अमल बन्द हो जाता हैं, सिर्फ़ तीन चीज़ें बाकी रहती हैं| 1 – सदका ज़ारिया, 2 – इल्म जिससे फ़ायदा उठाया जाये, 3 – और नेक स्वालेह औलाद जो इसके लिये दुआ करें| (मुस्लिम)
नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम की इस हदीस से साबित हैं के इन्सान के मरने के बाद उसको तभी फ़ायदा पहुंचता हैं जब इन तीन चीज़ो मे से कम से कम कोई एक काम उसके लिये होता रहे| सदका ज़ारिया मे वो तमाम चीज़े शामिल हैं जिनसे इन्सान फ़ायदा उठाये जैसा ऊपर गुज़रा|
नियाबत
यानि मय्यत की तरफ़ से कोई शख्स नायब होकर काम करे, इसके लिये कुछ अहम बातो पर गौर करना ज़रूरी हैं-
नायब के अन्दर नियाबत की अहलियत मौजूद हो, हदीस की रोशनी मे नियाबत मे तो बच्चे का ज़िक्र हैं या वली या करीबी रिश्तेदार का, अजनबी के बारे मे कोई दलील मौजूद नही|
नियाबत सिर्फ़ मुसलमान शख्स ही कर सकता हैं|
हदीस की रोशनी मे नियाबत मे सिर्फ़ दो चीज़ो क ज़िक्र हैं हज और रोज़ा, दूसरी किसी इबादत से नियाबत साबित नही|
शरीयत की रूह से कोई शख्स दूसरे शख्स का कायम मुकाम नही हू सकता, न सिर्फ़ नियत कर लेने से इसका अमल किसी दूसरे को ट्रांसफ़र(मिल) हो जायेगा, न हिबा करने से साबित हो सकता हैं| अल्लाह फ़रमाता हैं-
ये के कोई शख्स दूसरे के गुनाह का बोझ नही उठायेगा| और ये के इन्सान को वही मिलता हैं जिसकी वो कोशिश करता हैं| (सूरह नजम 53/38, 39)
लिहाज़ा नायब किसी तरह भी कल्बी कैफ़ियत नियाबत के वक्त पैदा नही कर सकता लिहाज़ा नायब को खुसुसी वो काम इन्फ़रादी तौर पर अन्जाम देने होगे जिसके लिये उसे मुकरर्र किया हैं| जैसे के नियाबत के ताल्लुक से सिर्फ़ रोजा और हज का ज़िक्र ही हदीस की रोशनी मे मिलता हैं लिहाज़ा किसी और किस्म का अमल नियाबत मे शामिल नही है|
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि0 से रिवायत हैं के कबीला बनू जहीनाह की एक औरत नबी सम के पास आई और कहा के मेरी मां ने हज की नज़र मानी थी और हज किये बगैर मर गयी क्या मैं इसकी तरफ़ से हज करुं? नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – बताओ अगर तुम्हारी मां पर कर्ज़ होता तो क्या तुम अदा करती? अल्लाह का हक अदा करो, अल्लाह अपने हक की अदायगी का ज़्यादा मुस्तहक हैं| (मुस्लिम)
ज़िन्दा की तरफ़ से नियाबत के लिये उसकी इस्तताअत होना ज़रूरी हैं यानि आदमी ज़िन्दा हो पर इतना मजबूर हो के अपना फ़र्ज़ खुद पूरा न कर सके तो ऐसी सूरत मे अपनी ज़िन्दगी मे ही किसी को अपना नायब बना दे|
नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम से एक औरत ने कहा – मेरे बाप पर हज फ़र्ज़ हैं लेकिन वो सवारी पर बैठ नही सकते, क्या मैं अपने वालिद की तरफ़ से हज करूं? नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – हां| (बुखारी)
इस सूरत हाल मे ये हज बदल कहा जाता हैं लेकिन नायब पर ये लाज़िम हैं के वो पहले खुद अपना हज कर चुका हो जैसे के अबू दाऊद की एक रिवायत से साबित हैं-
नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने एक शख्स से सुना के वो कह रहा था – शब्रमाह की तरफ़ से मैं हाज़िर हूं| आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया ये शब्रमाह कौन हैं? इसने कहा के मेरा भाई या मेरा करीबी हैं, आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने पूछा – क्या तूने अपना हज अदा किया? इसने कहा – नही, आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – पहले अपना हज अदा करो फ़िर शब्रमाह का करना|(अबू दाऊद)
अगर औलाद वालिदैन कि तरफ़ से इन की वसियत या बिना वसीयत के हज करे तो जायज़ हैं, इसी तरह वालिदैन ने सदका देने का पुख्ता इरादा कर लिया और मर गये तो औलाद को इनकी तरफ़ से सदका देना चाहिए अलबत्ता हज बच्चे कि सिवा दूसरे के ज़रिये भी अदा हो सकता हैं|
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बस रज़ि से रिवायत हैं के एक आदमी नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम के पास आया और कहा – ऐ अल्लाह के रसूल मेरी मां मर गयी हैं और इस पर एक माह के रोज़े हैं, क्या मैं अपनी मां की तरफ़ से सब कज़ा रोज़े अदा करूं? आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – हां|(बुखारी)
इसी तरह हज़रत आयशा रज़ि0 से भी रिवायत हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – जो मर जाये और इस पर रोज़े हो, इस का वली इस की तरफ़ से रोज़े रखे| (बुखारी)
कुरान और इन तमाम हदीस की रोशनी मे ये साबित हैं के मय्यत के वास्ते कुरान पढ़ कर उसको बख्शना सरासर गलत और बिदअत हैं लिहाज़ा अगर कोई शख्स अगर ये करता हैं तो वो गुनाह की ज़द मे हैं| इन्सान को मरने के बाद सिर्फ़ उन ही चीज़ो क सवाब उसे मिलता हैं जो उसने अपनी मौजूदा ज़िन्दगी मे नेक अमल किया हो या वसीयत की हो|