तलाक की छुरी और हलाले की लानत
तलाक शादीशुदा ज़िन्दगी का बहुत ही तकलीफ़देह मोड़ होता हैं, जिसमे शौहर बीवी के बीच निकाह का पाकीज़ा रिश्ता टूट जाता हैं| इन्फ़िरादी ज़िन्दगी हो या परिवारिक ज़िन्दगी हो, इस्लाम बुनियादी तौर पर कानून, रज़ामन्दी, इत्तेहादी, भाईचारे और मुहब्बत और रहम का परचम बुलन्द करता हैं| लड़ाई-झगड़ा, फ़ूट-बिखराव, असामाजिक और रिश्तो की खराबी को इस्लाम ने बुरा जाना हैं| कानूनी दायरे के तहत इस्लाम ने इत्तेहाद और आपसी रज़ामन्दी को इतनी अहमियत दी हैं के रिश्तो और रिश्तेदारो के हक मे नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का फ़रमान हैं के रिश्तो को काटने वाला जन्नत मे दाखिल नही होगा| (बुखारी व मुस्लिम)
एक और जगह आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया –
रहम अल्लाह के अर्श के साथ जुड़ा हैं और कहता हैं जो मुझे मिलाये अल्लाह उसे मिलायेगा जो मुझे काटे अल्लाह उसे काटेगा| (बुखारी व मुस्लिम)
आम मुसल्मानो को यहां तक मिलजुल कर और मुहब्बत के साथ रहने का हुक्म दिया गया के फ़रमाने नबवी हैं –
किसी मुसल्मान के लिये अपने मुसल्मान भाई से तीन दिन से ज़्यादा लाताल्लुक रहन जायज़ नही और जो शख्स जो तीन दिन के बाद इसी हालत मे मर गया वह आग मे जायेगा| (अहमद व अबू दाऊद)
शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे मे तो इस्लाम का कानून ही यही हैं के ये रिश्ता (यानि निकाह) ज़िन्दगी भर साथ निभाने और एक दूसरे के साथ वफ़ा करने का रिश्ता हैं जिसके लिये अल्लाह खासकर दोनो(यानि शौहर और बीवी) के दिलो मे मुहब्बत और नर्मी का अहसास पैदा कर देता हैं| यहां तक की दोनो अफ़राद एक दूसरे के करीब से सुख महसूस करने लगते हैं| शादीशुदा ज़िन्दगी की इस छोटी सी ज़िन्दगी मे पाबन्दी, वफ़ादारी, रज़ामन्दी और भाईचारे को इस्लाम ने जितना अहमियत दी हैं इसका अन्दाज़ा दोनो के हक से इस बात से लगाया जा सकता हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया –
अगर मैं अल्लाह के सिवा किसी दूसरे को सजदा करने का हुक्म देता तो औरतो को हुक्म देता के अपने शौहर को सजदा करे| (तिर्मिज़ी)
एक दूसरी हदीस मे फ़रमाया –
उस ज़ात की कसम जिसके हाथ मे मेरी जान हैं जब शौहर बीवी को अपने बिस्तर पर बुलाये और बीवी इन्कार कर दे तो वो ज़ात जो आसमानो मे हैं नाराज़ रहती हैं| यहा तक कि उसका शौहर उससे राज़ी हो जाये| (मुस्लिम)
इसके अलावा आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने और भी जगह लोगो को वाज़ और नसीहत की जैसे
बीवी को गाली न दो| (मुस्लिम)
बीवी को लौंडी की तरह न मारो| (बुखारी)
और सबसे अहम जो बात इस रिश्ते मे मर्दो को ताकीद के साथ बताई वो ये के –
तुममे सबसे बेहतर वो हैं जो अपनी बीवी के हक मे बेहतर हैं| (तिर्मिज़ी)
ज़रा गौर फ़िक्र कीजिये! अल्लाह और उसके रसूल सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान रखने वाला कोई भी मर्द या औरत अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी मे उपर बताई गयी तालीमात का इन्कार करके इस्लाम की अज़मत को बिना किसी उज्र के रुसवा करने का ख्याल भी कर सकता हैं| अकसरियत का जवाब नही मे होगा| लेकिन फ़ितरते इन्सानी और आदतो मे इख्तेलाफ़ की वजह से उतार चढ़ाव इन्सानी ज़िन्दगी के ज़रूरी हिस्से हैं जिसमे शादीशुदा ज़िन्दगी मे दूसरे हिस्सो के मुकाबले ज़्यादा दुख और आजमाइश नज़र आती हैं| इब्लीस के चेले हर जगह और हर वक्त शादीशुदा ज़िन्दगी को बरबाद करने के लिये तैयार रहते हैं| नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का इरशाद हैं –
इब्लीस का तख्त पानी पर र्हैं जहा से वो पूरी दुनिया मे अपने लश्कर को रवाना करता हैं और उसे सबसे ज़्यादा चहेता वो शैतान होता हैं जो सबसे ज़्यादा फ़ितना फ़ैलाये| (वापस आकर) एक कहता हैं मैने फ़लां फ़लां कारनामा अंजाम दिया| इब्लीस कहता हैं – तूने कुछ भी नही किया| फ़िर दूसरा आता हैं वो कहता हैं – मैं फ़लां-फ़लां मर्द और औरत के पीछे पड़ा रहा यहा तक के दोनो को एक दूसरे से अलग करके छोड़ा| इब्लीस उसे अपने पास तख्त पर बिठा लेता हैं और कहता हैं – तूने बड़ा अच्छा काम किया| (मुस्लिम)
इन इब्लीसी कारनामो के तहत कभी-कभी फ़ितने ऐसा सर उठाते हैं कि पीछा ही नही छूटता और इन्सान की सारी की सारी सूझ-बूझ और अकल्मन्दी धरी की धरी रह जाती हैं और कुछ समझ नही आता के क्या करे| प्यार मुहब्बत के नाज़ुक रिश्ते मे दरार आ जाती हैं और जज़्बात ज़ख्मी हो जाते हैं| ऐसे मुश्किल हालात मे भी इस्लाम हर हाल मे यही रास्ता दिखाता हैं के रिश्ता ऐसे मुश्किल वक्त मे भी किसी तरह बरकरार रहे| लिहाज़ा अगर किसी शौहर की बीवी अगर बदइख्लाक, बदतमीज़ और नाफ़रमान हैं तो शौहर को फ़ौरन ही तलाक का फ़ैसला नही करना चाहिये अगर उसमे नाकामी हो तो दूसरे मौके पर चेतावनी के साथ घर के अन्दर उसका बिस्तर अलग कर देना चाहिये अगर इस मे भी नाकामयाबी और बीवी अपना रवैया ना बदले तो उसे डांट-डपट कर हल्की मार मारने की इजाज़त भी दी गयी हैं|
जिन औरतो की नाफ़रमानी और बददिमागी का तुम्हे खौफ़ हो इन्हे नसीहत करो और इन्हे अलग बिस्तरो पर छोड़ दो और इन्हे मार की सज़ा दो और फ़िर अगर वो ताबेदारी करे तो इन पर कोई रास्ता तलाश न करो, बेशक अल्लाह ताला बड़ी बुलन्द और बड़ाई वाला हैं| (सूरह निसा 4/34)
इसी तरह ज़्यादती और बदइख्लाकी शौहर की तरफ़ से हो तब भी बीवी को भी शौहर को मौका देना चाहिये न के फ़ौरन खुला का फ़ैसला करना चाहिये बल्कि सब्र और सूझ-बूझ के साथ शौहर की बेरुखी और बदइख्लाकी की वजह मालूम करने की कोशिश करनी चाहिये और उन वजहो को दूर कर शौहर का दिल जीतने की कोशीश करनी चाहिये| साथ ही अगर घर को बरबादी से बचाने के लिये अगर उसके हक मे कोई कमी हो तो उसे भूल कर हर हाल मे घर को बचाने की कोशीश करनी चाहिये और इसमे पीछे नही रहना चाहिये|
अगर किसी औरत को अपने शौहर की बददिमागी और बेपरवाही का खौफ़ हो तो दोनो आपस मे जो सुलह कर ले इस मे किसी पर कोई गुनाह नही| (सूरह निसा 4/128)
अगर शौहर बीवी की सारी कोशीशे नाकाम हो जाये तो भी तलाक देने मे जल्दबाज़ी न कर एक और रास्ता इस्लाम ने बताया हैं के दोनो के खानदान से किसी एक समझदार और हकपरस्त को सर जोड़कर सुधार के मामले का रास्ता निकालना चाहिये|
अगर तुम्हे मियां बीवी के दरम्यान आपस की अनबन का खौफ़ हो तो एक मन्सफ़ मर्दवालो मे से और एक औरत के घरवालो मे से मुकरर्र करो, अगर ये दोनो सुलह करना चाहेगे तो अल्लाह दोनो मे मिलाप करा देगा, यकीनन अल्लाह ताला पूरे इल्म वाला पूरी खबर वाला हैं| (सूरह निसा 4/35)
अगर ये कोशीश भी नाकाम साबित हो तो फ़िर इस्लाम इस चेतावानी के साथ दोनो को एक दूसरे से अलग हो जाने की इजाज़त देता हैं के –
हज़रत सौबान रज़ि0 से रिवायत हैं कि नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – जिस औरत ने अपने पति से बिना वजह तलाक मांगी उस पर जन्नत की खुशबू हराम हैं| (तिर्मिज़ी)
हज़रत सौबान रज़ि0 से रिवायत हैं कि नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – बिना वजह खुलाअ मांगने वाली औरते धोखेबाज़ हैं| (तिर्मिज़ी)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि0 से रिवायत हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया –
अल्लाह के नज़दीक यह बहुत बड़ा गुनाह हैं कि एक आदमी किसी औरत से निकाह करले और फ़िर जब अपनी ज़रूरत पूरी कर ले तो तलाक दे दे और उसका मेहर भी अदा न करे (हाकिम)
हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 कहते हैं की नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – तीन चीज़ो मे सल्लल लाहो अलैहे वसल्लमजीदगी और हंसी मज़ाक मे की गयी बात वही हो जाती हैं| पहली चीज़ निकाह, दूसरी चीज़ तलाक और तीसरी चीज़ रुजु| (तिर्मिज़ी)
हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 से रिवायत हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया – जो किसी औरत को उसके शौहर के खिलाफ़ भड़काये या गुलाम को मालिक के खिलाफ़ बहकाये वो हममे से नही| (अबू दाऊद)
तलाक किस हद तक नापसन्दीदा अमल हैं और इसकी कराहत ऊपर मौजूद हदीस नबवी से की जा सकती हैं|
इस चेतावनी के बाद भी अगर दोनो एक दूसरे से अलग होना चाहते हैं तो शरिअत ने एक ऐसा बेहतर तरीका बताया की अलग होने के इस तरीके मे भी दोनो को मिलाने की आखिरी कोशिश करी हैं|
तलाक का मसनून तरीका
निकाह और तलाक के मसले जिन्हे कुरान मे हुदूदुल्लाह (अल्लाह की बनाई हुई हदे) कहा गया हैं| जैसा के अल्लाह ने कुरान मे फ़रमाया-
ऐ नबी जब तुम अपनी बीवियो को तलाक देना चाहो तो इन की इद्दत के दिनो मे इन्हे तलाक दो और इद्दत का हिसाब रखो, और अल्लाह से जो तुम्हारा रब हैं डरते रहो, न तुम इन्हे घर से निकालो और न खुद वो निकले हा ये और बात हैं के वो खुली बुराई कर बैठे, ये अल्लाह की मुकरर्र करी हदे हैं, जो शख्स अल्लाह की हदो से आगे बढ़ जाये इसने यकीनन अपने ऊपर ज़ुल्म किया, तुम नही जानते शायद इसके बाद अल्लाह कोई नयी बात पैदा कर दे| (सूरह तलाक 65/1)
बहुत से लोग कुरान की इस आयत से और इसके अलावा और बहुत सी आयत जो खुसुसन तलाक के ताल्लुक से हैं वाकीफ़ नही हैं और उस वक्त तक नावाकिफ़ हैं जब तक उन्हे जानने की ज़रूरत मजबूरी न बन जाये, तलाक की नौबत तो हमेशा लड़ाई-झगड़े के बाद ही पेश आती हैं| जो दिन रात का चैन और सुकून खत्म कर देते हैं लेकिन तलाक के मसले से नावाकफ़ियत उन परेशानी मे इज़ाफ़ा की वजह बनती हैं|
तलाक के अहम मसले
1.
औरत को हैज़ (मासिक धर्म) के दौरान तलाक देना मना हैं अगर बीवी से हैज़ के दौरान झगड़ा हुआ हो तो भी मर्द अगर तलाक देना चाहे तब भी हैज़ खत्म होने तक इन्तज़ार करना चाहिये|(इब्ने माजा)
2. जिस पाकी की हालत मे तलाक देना हो उस पाकी की हालत मे हमबिस्तरी करना मना हैं|
याद रहे हैज़ के दिनो के अलावा बाकी दिनो मे जिन मे औरत नमाज़ अदा करती हैं उन दिनो को पाकी के दिन कहा जाता हैं|(इब्ने माजा)
3. एक वक्त मे केवल एक ही तलाक देनी चाहिये एक साथ तीन तलाके देना बहुत बड़ा गुनाह हैं| बीवी को अलग करने के लिये तलाको की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद तीन हैं लेकिन एक तलाक से अलग करना ही शरीअत का बनाया गया तरीका हैं|
ये तलाक दो मरतबा हैं फ़िर या तो अच्छाई से रोकना या उमदगी के साथ छोड़ देना| (सूरह अल बकरा 2/229)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि0 फ़रमाते हैं कि
सुन्नत तलाक यह हैं के शौहर अपनी बीवी को हर पाकी मे केवल एक तलाक दे जब औरत तीसरी बार पाकी हासिल करे तो उसे तलाक दे उसके बाद जो हैज़ आयेगा उस पर इद्दत खत्म हो जायेगी| (इब्ने माजा)
4. पहली तलाक हो या दूसरी या तीसरी हर तलाक के बाद औरत को तीन हैज़ या तीन पाकी(जो लगभग 3 माह बनती हैं) इन्तज़ार करना हुक्म हैं इस मुद्दत को इद्दत कहते हैं|
और तलाक दी हुई औरते अपने आप को तीन हैज़(तीन माह) तक रोके रखे और अगर वे अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखती हैं| (सूरह अल बकरा 2/228)
तुम्हारी औरतो मे से जो औरते हैज़ से नाउम्मीद हो चुकी हो गयी हो, अगर तुम्हे शुबहा हो तो इन की इद्दत तीन महीने हैं और इन की भी जिन्हे हैज़ आना शुरु ही न हुआ हो और हामला औरतो कि इद्दत इन का हमल हैं| (सूरह तलाक 65/4)
5. पहली और दूसरी तलाक के बाद दौराने इद्दत बीवी से सुलह करने को शरिअत मे पलट जाना कहते हैं और ऐसी तलाक को तलाक रज़ई कहते हैं| पलटने के लिये बीवी से हमबिस्तर होना शर्त नही ज़ुबानी बातचीत ही काफ़ी हैं|
और जब तुम अपनी औरतो को तलाक दो और वो अपनी इद्दत पूरी कर ले तो इन्हे अपने खाविन्दो से निकाह करने से न रोको जब के वो आपस मे दस्तूर के मुताबिक रज़ामन्द हैं| (सूरह अल बकरा 2/232)
6. पहली और दूसरी तलाक के बाद तीन महीने इद्दत गुज़ारने मकसद यह हैं के अगर शौहर इस मुद्दत मे तलाक का फ़ैसला बदलना चाहे तो उसे तीन महीनो मे किसी भी वक्त रुजु(सुलह) कर सकता हैं| इसीलिये पहली दो तलाको को रजई तलाक कहा जाता हैं| तीसरी तलाक के बाद शौहर को रुजु का हक नही रहता बल्कि तलाक देते ही अलेहदगी हो जाती हैं लिहाज़ा तीसरी तलाक को तलाके बाइन(अलग करने वाली) कहा जाता हैं| तीसरी तलाक के बाद इद्दत का मकसद पहले शौहर से ताल्लुकातो की इज़्ज़त मे तीन महीने तक दूसरे से निकाह से रुके रहना|
ये तलाक दो मरतबा हैं फ़िर या तो अच्छाई से रोकना या उमदगी के साथ छोड़ देना| (सूरह अल बकरा 2/229)
7. पहली दो तलाको के बाद दौराने इद्दत रूजु करने के लिये औरत की रज़ामन्दी ज़रूरी नही औरत चाहे या न चाहे मर्द रुजु कर सकता हैं|
8. रजई तलाक की इद्दत के दौरान बीवी को पहले की तरह अपने साथ घर मे ही रखना चाहिये और उसकी ज़रूरते पूरी करते रहना चाहिये|
9. लगातार तीन तलाके यानि हर माह एक तलाक देना गैर मसनून हैं| लिहाज़ा तलाक से अलग-अलग अलेहदगी की सूरते नीचे देखे-
एक तलाक से अलेहदगी
एक तलाक से अलेहदगी की सूरत यह हैं की शौहर बीवी के बीच निकाह के बाद पहली बार मतभेद एस हद तक बढ़ जाये के नौबत तलाक तक पहुंच जाये और शौहर बीवी को हैज़ आने के बाद पाकी के दौरान बिना हमबिस्तर हुये पहली तलाक दे दे और दौराने इद्दत (यानि तीन महीने) रुजु न करे तो इस इद्दत के खत्म होते ही शौहर बीवी मे हमेशा के लिये अलेहदगी हो जायेगी| इस सूरत मे दूसरी और तीसरी तलाक की ज़रूरत नही रहती| दौराने इद्दत बीवी को अपने साथ घर मे रखना और उसका ज़रूरतो को पहले की तरह पूरी करना ज़रूरी हैं| एक तलाक से अलेहदगी से ये फ़ायदा हैं के दोनो अगर आगे कभी निकाह करना चाहे तो निकाह कर सकते है या औरत किसी और से निकाह करना चाहे तो कर सकती है|
और जब तुम अपनी औरतो को तलाक दो और वो अपनी इद्दत पूरी कर ले तो इन्हे अपने खाविन्दो से निकाह करने से न रोको जब के वो आपस मे दस्तूर के मुताबिक रज़ामन्द हैं| (सूरह अल बकरा 2/232)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि0 से रिवायत हैं के उन्होने नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम के दौर मे अपनी बीवी को हालते हैज़ मे तलाक दे दी तो हज़रत उमर रज़ि0 ने इस बारे मे नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम से मालूम किया तो आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया –
अब्दुल्लाह को हुक्म दो कि वह अपनी बीवी से रुजु करे| फ़िर उसे छोड़ दे यहां तक के वह हैज़ से पाक हो जाये फ़िर हैज़ आये और फ़िर पाक हो जाये फ़िर हमबिस्तर हुये बिना चाहे तो रोके रखे चाहे तो तलाक दे और यह वो इद्दत हैं जिसके हिसाब से अल्लाह ताला ने औरतो को तलाक देने का हुक्म दिया हैं| (मुस्लिम)
दो तलाको से अलेहदगी
पहली तलाक – पहली तलाक देने के बाद इद्दत(यानि तीन माह) के अन्दर अगर शौहर बीवी रुजु करना कर ले| रुजु करने का ये मतलब नही की पहली तलाक बेकार हो जायेगी या आगे उसे कभी गिनती मे नही लिया जायेगा बल्कि आगे जब भी शौहर तलाक देगा तो वह दूसरी तलाक मानी जायेगी|
दूसरी तलाक – पहली तलाक से रुजु के बाद दुबारा कभी भी(जैसे कुछ दिन, हफ़्ते, महीने, साल) अगर फ़िर कोई झगड़ा हो जाये और नौबत तलाक तक पहुंच जाये तो शौहर कायदे के मुताबिक हैज़ खत्म होने के बाद बिना हमबिस्तर हुये दूसरी तलाक दे दे| इस दूसरी तलाक के बाद भी शरिअत ने मर्द को दौराने इद्दत(तीन माह के अन्दर) रुजु का हक दिया हैं इसलिये उस दूसरी तलाक को भी रजई तलाक कहा ही कहा जाता हैं| अगर रुजु न करे तो इद्दत के बाद दोनो मे अलेहदगी हो जायेगी| इस दूसरी रजई तलाक का ये फ़ायदा हैं के दोनो अगर आगे कभी निकाह करना चाहे तो निकाह कर सकते है या औरत किसी और से निकाह करना चाहे तो कर सकती है|
ये तलाक दो मरतबा हैं फ़िर या तो अच्छाई से रोकना या उमदगी के साथ छोड़ देना| (सूरह अल बकरा 2/229)
तीन तलाको से अलेहदगी की जायज़ सूरतेहाल
पहली तलाक के बाद इद्दत के अन्दर अगर शौहर रुजु कर ले या इद्दत के बाद निकाह कर ले| फ़िर दूसरी तलाक के बाद इद्दत के अन्दर शौहर रुज कर ले या इद्दत के बाद निकाह कर ले और दोनो साथ मे रहते हो फ़िर अगर कुछ वक्त के बाद दोनो मे फ़िर से झगड़ा होता है तो शौहर पाकी के दिनो मे बिना हमबिस्तर हुये तीसरी तलाक दे सकता हैं और ये तीसरी तलाक देते ही दोनो मे हमेशा के लिये अलेहदगी हो जायेगी| जिस तरह पहली और दूसरी तलाक के बाद रुजू करके दुबारा साथ रहने की इजाज़त हैं तीसरी तलाक मे ऐसा नही हैं इसीलिये इसे तलाक को बाइन(मुस्तकिल अलग करने वाली) कहा जाता हैं| तीसरी तलाक के बाद औरत को इद्दत गुज़ारने का हुक्म हैं और इद्दत खत्म होने के बाद वो आज़ादी से कही भी निकाह कर सकती हैं| ये बात ध्यान रहे के तीसरी तलाक के बाद शौहर बीवी निकाह करना चाहे तो भी नही कर सकते जब तक औरत किसी और से निकाह न कर ले और ज़िन्दगी भर साथ निभाने की नियत से दूसरे शौहर के साथ न रहे और फ़िर कभी अगर उसका दूसरा शौहर मर जाये या किसी मामले के तहत उससे तलाक हो जाये या शौहर अपनी मर्ज़ी से उसे तलाक दे दे तो इसी तरह तलाक ले कर वो इद्दत गुज़ार कर अपने पहले वाले शौहर से निकाह कर सकती हैं|
खुलअ
जिस तरह शरिअत ने मर्द को हालत के मद्देनज़र तलाक का हक दिया हैं उसी तरह औरत को भी हालत के मद्देनज़र मर्द से छुटकार हासिल करने के लिये खुलअ का हक दिया हैं| खुलअ देने के लिये शरिअत ने शौहर को बीवी से कुछ रकम लेने की इजाज़त भी दी हैं जो कि कम व ज़्यादा औरत के हक मे मेहर के बराबर होना चाहिये|
ये तलाक दो मरतबा हैं फ़िर या तो अच्छाई से रोकना या उमदगी के साथ छोड़ देना हैं और तुम्हे हलाल नही के तुम ने इन्हे जो दे दिया हैं इसमे से कुछ भी लो, हां ये और बात हैं के दोनो को अल्लाह कि हदे कायम न रख सकने का खौफ़ हो, इसलिये अगर तुम्हे दर हो के ये दोनो अलaलह के हदे काaय्म न रख सकेगे तो औरत रिहाई पाने के लिये कुछ दे डाले, इस मे दोनो पर कुछ गुनाह नही, य अल्लाह कि हदे हैं खबरदार इन से आगे न बढ़ना और जो लोग अल्लाह कि हदो से तजाविज़ कर जाये वो ज़ालिम हैं| (सूरह अल बकरा 2/229)
हज़रत साबित बिन कैस रज़ि0 की बीवी नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम की खिदमत मे हाज़िर हुई और कहा –
ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम! मैं सबित बिन कैस की दीनदारी और इखलाक पर बोहतान नही लगाती लेकिन मुझे नाशुक्री के गुनाह का शिकार होना पसन्द नही लिहाज़ा मुझे खुलअ दिला दीजिये| नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने उससे मालूम किया – क्या तुम साबित का हक मेहर मे दिया हुआ बाग वापस करने को तैयार हो? औरत ने अर्ज़ किया – हां ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम| लिहाज़ा नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत साबित बिन कैस रज़ि0 को हुक्म दिया कि अपना बाग वापस ले लो और उसे आज़ाद कर दो| (बुखारी)
इस हदीस की रोशनी मे ये बात भी मालूम होती हैं के अगर शौहर बीवी आपसी रज़ामन्दी के तहत खुलअ का मामला तय न कर सके तो बीवी कू पूरा हक हासिल हैं के वो शरई अदालत का रुख करे ताकि उसकी सुनवाई हो सके| और साथ ही शरई अद्दलत को ये हक हासिल हैं वो औरत को मर्द से खुलअ दिलाकर आज़ाद करे| यह बात ध्यान रहे के शरई मामले मे अगर जज या फ़िर अदालत मौजूद न हो तो उलमा की जमात या आम मुत्तकी परहेज़गार मुसलमानो की पंचायत फ़ैसला कर दे तो ये बिल्कुल जायज़ हैं लेकिन अगर आगे किसी परेशानी के अन्देशे के तहत महफ़ूज़ रहने के लिये गैर मुस्लिम अदालत से लिखित मे ये काम करने मे कोई हर्ज़ नही| खुलअ की इद्दत एक महीना हैं उसके बाद औरत जहां चाहे दूसरा निकाह कर सकती हैं|
हज़रत रबीअ बिन्ते मुअव्विज़ बिन अफ़रा रज़ि0 से रिवायत हैं की उन्होने नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने मे अपने शौहर से खुलअ लिया तो नबी ने उन्हे हुक्म दिया कि वह एक हैज़ की इद्दत गुज़ारे| (तिर्मिज़ी)
एक साथ तीन तलाके
निकाह वाले हर सूरते हाल मे एक दूसरे का साथ निभाने की कोशीश करते हैं| शौहर बीवी मे आपसी इख्तलाफ़ रोज़मर्रा की बात हैं जिसे एक समझदार शौहर और एक समझदार बीवी अपनी पूरी कोशीश करते हैं के मामला बना रहे| लेकिन जब मामला बढ़ते-बढ़ते तलाक तक पहुंच जाता हैं तो तलाक के मामले मे सोच-विचार, सल्लल लाहो अलैहे वसल्लमजीदगी, बर्दाश्त से काम लेने वाले मर्द और औरते होते हैं और खास तौर से शरई हुक्मो को जानने वाले तो बहुत ही कम लोग होते हैं ऐसी सूरते हाल मे अकसर लोग गुस्से मे आकर एक साथ तीन तलाक दे देते हैं के फ़ौरन रोज़ रोज़ के लड़ाई झगड़ो से छटकारा मिले और शरई मामले की नावाकफ़ियत के तहत एक ही बार मे तीन तलाक(या उससे भी ज़्यादा) तलाक के लफ़्ज़ को कह देते हैं| जो न सिर्फ़ शरिअत के खिलाफ़ हैं बल्कि बहुत बड़ा गुनाह भी हैं| नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम की ज़िन्दगी मे एक बार किसी श्ख्स ने अपनी बीवी को एक साथ तीन तलाके दे दी| जब आपको इस बारे मे पता चला तो आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम गुस्से के मारे उठ खड़े हुये और फ़रमाया –
मेरी मौजूदगी मे अल्लाह की किताब से यह मज़ाक| एक शख्स ने अर्ज़ किया – या रसूलुल्लाह सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम! क्या मैं उसे कत्ल कर दूं| (निसाई)
तीन तलाके एक साथ देना कितना बड़ा गुनाह हैं उसकी वजह यह हैं के शरिअत ने खानदान को तबाही से बचाने के लिये जिस ज़रूरत और हिकमत को अमल मे लाना चाहती हैं तीन तलाक देने वाला शख्स न सिर्फ़ कानूने इलाही की नाफ़रमानी करता हैं बल्कि उन हिकमतो को भी पामाल कर देता हैं साथ ही ये सरासर नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम की खुली हुई नाफ़रमानी हैं| बावजूद इसके नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने इस तरह तीन तलाक एक साथ देने वाले के तलाक को सिर्फ़ एक ही माना हैं तीन नही|
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि0 से रिवायत हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने मे उसके बाद हज़रत अबू बक्र रज़ि0 की खिलाफ़त मे हज़रत उमर रज़ि0 की खिलाफ़त मे दो साल तक एक बार मे दी गयी तीन तलाक एक ही मानी जाती थी| हज़रत उमर रज़ि0 ने कहा –
जिस चीज़ मे लोगो को मोहलत दी गयी थी लोगो ने उस बारे मे जल्दबाज़ी से काम लेना शुरु कर दिया हैं लिहाज़ा आइन्दा हम एक साथ दी गयी तीन तलाको को तीन ही लागू कर देंगे| लिहाज़ा हज़रत उमर रज़ि0 ने अपना फ़ैसला लागू कर दिया| (मुस्लिम)
नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम की सुन्नत और दोनो खलीफ़ा के अमल से ये तीन बाते साफ़ ज़ाहिर हैं के
1. एक साथ तीन तलाके देना शरियत इसलाम मे बहुत बड़ा गुनाह हैं,
2. एक बार मे तीन तलाके देने वाले को गुनाहगार ठहराने के बावजूद शरिअत ने उसे तलाक के और दो मौको से महरूम नही किया और तीन तलाक को एक तलाक ही मानती हैं|
3. हज़रत उमर रज़ि0 ने लोगो को एक बार मे तीन तलाक देने से रोकने के लिये सज़ा के तौर पर तीन तलाक को तीन तलाक ही लागू कर दिया था लेकिन ये शरियत का मुस्तकिल कानून नही था| ये ठीक उसी तरह हैं के 5 वक्त की नमाज़ो को अगर किसी एक वक्त मे एक साथ पढ़ लिया जाये तो जिस वक्त मे नमाज़ पढ़ी जायेगी उस वक्त की नमाज़ तो हो जायेगी लेकिन दूसरे वक्तो की नमाज़ न मानी जायेगी क्योकि उनके अदा करने का वक्त बिल्कुल अलग हैं लिहाज़ा कोई इन्सान 5 वक्त की नमाज़ को किसी एक वक्त मे नही पढ़ सकता| ठीक यही मसला एक साथ तीन तलाक देने का हैं के अगर किसी ने एक साथ तीन तलाक दे दी पहली तलाक तो मान ली जायेगी लेकिन बाकि तो और तलाको के लिये इद्दत का वक्त गुज़ारना ज़रूरी हैं जैसा के अल्लाह ने कुरान मे फ़रमाया-
और तलाक दी हुई औरते अपने आप को तीन हैज़(तीन माह) तक रोके रखे और अगर वे अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखती हैं तो उनके लिये जायज़ नही कि वे उस चीज़ को छुपाये जो अल्लाह ने पैदा किया उनके पेट मे| और इस दौरान मे उनके शौहर उन्हे फ़िर लौटा लेने का हक रखते हैं अगर वो सुलह करना चाहे| और इन औरतो के लिये दस्तूर के मुताबिक उसी तरह हुकूक है जिस तरह दस्तूर के मुताबिक उन पर ज़िम्मेदारिया हैं| और मर्दो का उनके मुकाबले मे कुछ दर्जा बढ़ा हुआ हैं| और अल्लाह ज़बरदस्त हैं तदबीर वाला हैं| (सूरह अल बकरा 2/228)
और जब तुम औरतो को तलाक दे दो और वे अपनी इद्दत तक पहुंच जाये तो उन्हे या तो कायदे के मुताबिक रख लो या कायदे मुताबिक रुखसत कर दो| (सूरह अल बकरा 2/230)
कुछ उल्मा के नज़दीक एक वक्त मे दी गयी तलाके तीन ही शुमार होगी| लेकिन नीचे दी गयी दलीले इस बात का खंडन करती हैं-
1. नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने अपनी ज़िन्दगी मे तीन तलाको को एक ही तलाक बताया| नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम के मुकाबले मे हज़रत उमर रज़ि0 का इज्तिहाद दलील नही बन सकता| अल्लाह कुरान मे फ़रमाता हैं-
ऐ लोगो जो ईमान लाये हो! अल्लाह और उसके रसूल से आगे न बढ़ो| (सूरह हुजरात 49/1)
2. इमाम मुस्लिम की रिवायत की गयी हदीस मे हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि0 के कौल के मुताबिक अहदे सिद्दीकी रज़ि0 और अहदे फ़ारूकी रज़ि0 के शुरु के दो साल का अर्सा इस मसले पर सहाबा रज़ि0 के इज्माअ की हैसियत रखता हैं
3. हज़रत उमर रज़ि0 के इज्तिहाद के बाद एक वक्त मे दी गयी तीन तलाक को तीन शुमार करने पर कभी भी उम्मत की रज़ामन्दी नही रही| सहाबा रज़ि0, ताबाईन और इमामो मे भी इस मसले मे नाइत्तेफ़ाकी रही हैं और सात इस्लामी मुल्क जार्डन, मोरक्को, मिस्र, इराक, सीरिया, पाकिस्तान और सूडान मे एक मजलिस की तीन तलाको को एक ही तलाक मानने का कानून हैं|
4. कुछ उल्मा इमाम मुस्लिम की रिवायत की गयी हदीस की यह तावील पेश करते हैं “शुरुआती दौर मे लोगो मे ईमानदारी करीब-करीब नही थी इसलिये तीन तलाक देने वाले के इस ब्यान को तस्लीम कर लिया जाता कि उसकी नियत एक ही तलाक की थी और बाकि दो सिर्फ़ ताकीद के तौर पर थी लेकिन हज़रत उमर ने महसूस किया कि अब लोग जल्दी मे तलाक देकर बहाना करते हैं तो आपने बहाना कबूल लरने से इन्कार कर दिया|”
ये ताविल निहायत ही खतरनाक हैं के सिर्फ़ फ़िकही मसले को तरजीह देने के लिये ये तस्लीम कर लेना के अहदे फ़ारूकी की शुरुआत मे सहाबा रज़ि0 के अन्दर सच्चाई और ईमानदारी खत्म हो गयी थी या होने लगी थी बहुत से दूसरे फ़ित्नो का दरवाज़ा खोल देती हैं लिहाज़ा किसी चीज़ की ताविल के लिये सबसे पहले ये ताविल देने वाले ये सोच ले के वो किस पर बेईमानी का इल्ज़ाम लगा रहे हैं और इस बेईमानी से बेहतर हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि0 की हदीस को ठीक वैसे ही तस्लीम कर लेना फ़ितने का शिकार होने से बेहतर हैं|
5. इस हदीस मे हज़रत उमर रज़ि0 ने एक बार मे तीन तलाक को तीन लागू करने का मकसद लोगो लोगो की जल्दबाज़ी बताया गया हैं जोकि हालात के मद्देनज़र था लिहाज़ा हज़रत उमर के इस जवाज़ को छोड़कर अपनी तरफ़ से जवाज़ गढ़ लेना और उसे हज़रत उमर रज़ि0 की तरफ़ मन्सूब करना ईमानदारी के खिलाफ़ हैं|
6. तीन तलाक को तीन तलाके तकसीम करने के बाद उसके जो खराब नतीजे निकलते हैं वह खुद इस बात के खुला सबूत हैं के एक वक्त मे दी गयी तीन तलाको को लागू करना खुद एक सज़ा तो हो सकता हैं लेकिन मुस्तकील हमेशा का कानून नही हो सकता हैं क्योकि पहले तो तलाक देने वाला उस मोहलत से महरूम हो जाता हैं जो अल्लाह ने औरतो की इद्दत के तौर पर उसे बख्शी हैं जिसमे वो सोच-समझ कर अपना इरादा बदल रुजु कर ले दूसरे तलाक के बाद पछतावे की सूरत मे वापसी की कोई गुन्जाइश नही जिसके लिये हलाले जैसे अमल से औरत को गुज़ारा जाता हैं और उसके इस हलाले की बदकारी के लिये तैयार करते हैं जो दीन ए इस्लाम से मेल नही खाते|
लिहाज़ा इन दलीलो की रोशनी मे पढ़ने वाले खुद फ़ैसला करे के एक साथ तलाक देना कैसा हैं क्या हकीकतन इस्लाम मे ऐसा हो सकता हैं?
आप खुद जवाब दे|
यहा एक बात और ध्यान रहे के जो लोग हज़रत उमर रज़ि0 से ये दलील पकड़ते हैं उनको ये समझना चाहिये के यहा मसला तलाक का नही बल्कि हज़रत उमर ने इस कानून को बतौर एक सज़ा के तौर पर लागू किया था ताकि लोग तलाक का जो तरीका अल्लाह और उसके रसूल ने बताया हैं उस पर वापस पलट आये| लिहाज़ा जो उल्मा उमर रज़ि0 की बात को दलील बनाते हैं उन्हे चाहिये के आज भि जो लोग ऐसा करते हैं उनके लिये मुनासिब सज़ा लागू करे ताकि लोग फ़िर से ऐसा घिनौना काम जिस पर नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने सख्त नारज़गी जताई हैं न करे|
हलाला
कुरान मे अल्लाह ने साफ़ लफ़्ज़ो मे फ़रमाया-
फ़िर अगर इस को तलाक दे दे तो अब इस के लिये हलाल नही जब तक के वो औरत इस के सिवा दूसरे से निकाह न करे, फ़िर अगर वो भी तलाक दे दे तो इन दोनो को मेल जोल कर लेने मे कोई गुनाह नही बशर्ते के ये जान ले के अल्लाह की हदो को कायम रक सकेंगे, ये अल्लाह ताला की हदे हैं जिन्हे वो जानने वालो के लिये ब्यान करता हैं| (सूरह अल बकरा 2/230)
कुरान की इस आयत से साफ़ वाज़े हैं के तलाक के बाद जब औरत दूसरे से निकाह करे और उसका शौहर उसे अपनी आज़ाद मर्ज़ी से तलाक दे दे(या मर जाये) तो इद्दत गुज़रने के बाद वो औरत अपने पहले शौहर से निकाह कर सकती हैं जो एक जायज़ और शरयी तरीका हैं लेकीन इस आयत की रोशनी मे कुछ जाहिल किस्म के उल्मा ने तलाकशुदा(चाहे उसके शौहर ने उसे एक बार मे तीन तलाक दी हो या ना दी हो) को अपने पहले शौहर के निकाह मे आने के लिये ये हीला निकाला के ये तलाकशुदा औरत किसी से वक्ति निकाह करके एक दो दिन के बाद तलाक लेकर अपने पहले शौहर के लिए हलाल हो जायेगी|
औरत के अपने पहले शौहर के लिये हलाल करने के काम को हलाला कहते हैं और इस काम को करने वाले को मुहल्लिल कहा जाता हैं| कुरान मजीद के हुक्म से हलाले का फ़र्क नीचे आसानी से समझा जा सकता हैं-
शरयी हुक्म निकाह मसनून निकाह हलाला
नियत ज़िन्दगी भर साथ एक या दो रातो के
निभाने की बाद तलाक की
मकसद औलाद का हासिल दूसरे मर्द के लिये औरत
करना को हलाल करना
औरत की मर्ज़ी ज़रूरी हैं मर्ज़ी नही जानी जाती
कफ़ू दीनदारी, हस्ब, नस्ब, दौलत, कोई चीज़ नही देखी जाती
हुस्न, जमाल सब देखा जाता हैं
मेहर अदा करना फ़र्ज़ हैं न तय किया जाता हैं न अदा
ऐलान और प्रचार ऐलान और प्रचार खुफ़िया रखा जाता हैं
करना मसनून हैं
रुखसती इज़्ज़त और वकार के खुद चलकर मुहल्लिल
साथ सुसराल आती हैं के पास जाती हैं
दूल्हा दुल्हन के जज़्बात मुहब्बत और खुशी होति हैं नफ़रत और शर्मिन्दगी
रिश्तेदारो की दुआ मुहब्बत और खुशी हर तरफ़ लानत और
से दुआ देते हैं मलालत की जाती हैं
दुल्हत का बनाव श्रंगार सहेलिया खुशी खुशी दुल्हन बनने का तसव्वुर
करती हैं ही नही होता
सुहागरात का इन्तेज़ाम सुसराल वाले खुशी खुशी सुसराल का वजूद
करते हैं ही नही होता
शौहर की तरफ़ से शौहर खुशी खुशी फ़ूटी कौड़ी भी
हदिया देता हैं नही मिलती
जिम्मेदारी शौहर के ज़िम्मे मुहल्लिल कीमत
हमेशा के लिये वसूलता हैं
मसनून निकाह और हलाले मे साफ़ फ़र्क ज़ाहिर हैं| निकाह सुन्नत की पैरवी हैं जबकि हलाला सुन्नत के खिलाफ़ हैं, निकाह सरासर रहमत हैं जबकि हलाला सरासर लानत और मलामत हैं, निकाह सरासर इज़्ज़त और असमत की ज़मानत हैं जबकि हलाला सरासर ज़िना और बदकारी हैं, इसीलिये नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का हलाला करने वाले को किराये का सांड कहा हैं| (इब्ने माजा) एक दूसरी हदीस मे हैं के हलाला करने वाले और कराने वाले दोनो पर लानत हैं (तिर्मिज़ी)
जो लोग हलाले को जायज़ करार देते हैं उनसे ये पूछो के अगर हलाला जायज़ हैं तो शियो मे मुताह क्यो हराम हैं जबकि दोनो ही आरज़ी होते हैं एक खास वक्त के लिये और दोनो मे कुछ न कुछ तय करार पाया जाता हैं| ज़ाहिर सी बात हैं शराब को दूध का नाम देने से दूध शराब नही हो जाती न ही हलाल हो जाती हैं| हज़रत उमर रज़ि0 के दौरे खिलाफ़त मे लोगो ने एक बार मे तीन तलाक देने के जुर्म से रोकने के लिये न केवल एक बार मे तीन तलाको को तीन ही शुमार करने का कानून बना दिया था बल्कि इसके साथ हलाला करने और करवाने वाले को संगसार की सज़ा का कानून भी बना दिया था| इन दोनो कानूनो का एक वक्त मे लागू होना लोगो को सिर्फ़ जल्दबाज़ी से तोकने का इलाज था न के कयमत तक के लिये इसे नाफ़िस किया था| तिन तलाक देने वाले पहले तो अपनी जल्दबाज़ी की वजह से ज़िन्दगी भर अपनी नदामत पर आंसू बहाता रहता और दूसरी तरफ़ हलाला जैसे घिनौने काम के तसव्वुर से ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते बल्कि हालात के मद्देनज़र तीन तलाक के घिनौने जुर्म को रोकने के लिये इससे बेहतर कोई सज़ा भी न थी|
सबसे ज़्यादा हैरत की बात तो ये हैं के जो सीना ठोक के तीन तलाक को एक ही वक्त मे जायज़ करार देते हैं लेकिन हलाले करने वाले को संगसार की सज़ा को छुपाते हैं बल्कि लोगो को हलाला करने की राह दिखाते हैं| हलाले का सबसे अफ़सोस और बेइज़्ज़ती का पहलू तो ये हैं के गुनाह मर्द करता हैं और सज़ा औरत भुगतती हैं| करता कोई हैं भरता कोई का अन्धा कानून इस्लाम के बुनयादी उसूलो के खिलाफ़ हैं| दूसरे मर्द के इस जुर्म की सज़ा औरत को भुगतनी पड़ती हैं और सज़ा भी ऐसी के कोई गैरतमंद मर्द या औरत इसे बर्दाश्त ना कर सके| क्या इस बेगैरती का हुक्म अल्लाह ने दिया जो सबसे ज़्यादा गैरतमंद हैं या इसका हुक्म नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने दिया जो अल्लाह की इस कायनात मे सबसे बढ़कर गैरतमंद हैं?
कहो! अल्लाह बेहयाई का हुक्म कभी नही देता क्या तुम अल्लाह का नाम लेकर वह बाते कहते हो जिन के बारे मे तुम्हे पता नही| (सूरह आराफ़ 7/28)
Source: Islam-the truth
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