Naari Jagat : Vastusthiti Par Eik Drishti

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नारी जगत : वस्तुस्थिति पर एक दृष्टि

13नारी-जाति आधी मानव-जाति है। पुरुष-जाति की जननी है। पुरुष (पति) की संगिनी व अर्धांगिनी है। नबी, रसूल, पैग़म्बर, ऋषि, मुनि, महापुरुष, चिंतक, वैज्ञानिक, शिक्षक, समाज-सुधारक सब की जननी नारी है, सब इसी की गोद में पले-बढ़े। लेकिन धर्मों, संस्कृतियों, सभ्यताओं, जातियों और क़ौमों का इतिहास साक्षी है कि ईश्वर की इस महान कृति को इसी की कोख से पैदा होने वाले पुरुषों ने ही बहुत अपमानित किया, बहुत तुच्छ, बहुत नीच बनाया; इसके नारीत्व का बहुत शोषण किया; इसकी मर्यादा, गरिमा व गौरव के साथ बहुत खिलवाड़ किया, इसके शील को बहुत रौंदा; इसके नैतिक महात्म्य को यौन-अनाचार की गन्दगियों में बहुत लथेड़ा।

प्राचीन यूनानी सभ्यता में एक काल्पनिक नारी-चरित्रा पांडोरा (Pandora) को इन्सानों की सारी मुसीबतों की जड़ बताया गया। इस सभ्यता के आरंभ में तो स्त्री को अच्छी हैसियत भी प्राप्त थी लेकिन आगे चलकर, उसे वेश्यालयों में पहुँचा दिया गया जो हर किसी की दिलचस्पी के केन्द्र बन गए। कामदेवी Aphrodite की पूजा होने लगी और कामवासना भड़काने वाली प्रतिमाएँ कला के नमूनों का महत्व पा गईं।

रूमी सभ्यता में भी उपरोक्त स्थिति व्याप्त थी। औरतें (04-56 ई॰ पूर्व में) अपनी उम्र का हिसाब पतियों की तादाद से लगातीं। सेंट जेरोम (340-420 ई॰) ने एक औरत के बारे में लिखा कि उसने आख़िरी शादी 23वें पति से की और स्वयं वह, उस पति की 21वीं पत्नी थी। अविवाहित संबंध को बुरा समझने का विचार भी समाप्त हो गया था। वेश्यावृत्ति का कारोबार इतना बढ़ा कि वै़$सर टाइबरियस के दौर (14-37 ई॰) में शरीफ़ ख़ानदानों की स्त्रियों को पेशेवर वेश्या बनने से रोकने के लिए क़ानून लागू करना पड़ा। फ्लोरा नामक खेल में स्त्रियों को पूर्ण नग्न-अवस्था में दौड़ाया जाता था।

पाश्चात्य धर्मों में नारी को ‘साक्षात पाप’ कहा गया। ‘तर्क’ यह था कि प्रथम स्त्री (हव्वा Eva) ने, अपने पति, प्रथम पुरुष (आदम Adam) को जन्नत (Paradise) में ईश्वर की नाफ़रमानी करने पर उक्साया और परिणामतः दोनों स्वर्गलोक से निकाले गए। इस ‘तर्क’ पर बाद की तमाम औरतों को ‘जन्मगत पापी (Born Sinner) कहा गया, और यह मान्यता बनाई गई कि इस अपराध व पाप के प्रतिफल-स्वरूप पूरी नारी जाति को प्रसव-पीड़ा का ‘दंड’ हमेशा झेलना पड़ेगा।

भारतीय सभ्यता में, अजंता और खजुराहो की गुफाएँ (आज भी बता रही हैं कि) औरत के शील को सार्वजनिक स्तर पर कितना मूल्यहीन व अपमानित किया गया, जिसको शताब्दियों से आज तक, शिल्पकला के नाम पर जनसाधारण की यौन-प्रवृत्ति के तुष्टिकरण और मनोरंजन का साधन बनने का ‘श्रेय’ प्राप्त है। ‘देवदासी’ की हैसियत से देवालयों (के पवित्र प्रांगणों) में भी उसका यौन शोषण हुआ। अपेक्षित पुत्र-प्राप्ति के लिए पत्नी का परपुरुषगमन (नियोग) जायज़ तथा प्रचलित था। ‘सती प्रथा’ के विरुद्ध वर्तमान में क़ानून बनाना पड़ा जिसका विरोध भी होता रहा है। वह पवित्र धर्म ग्रंथ वेद का न पाठ कर सकती थी, न उसे सुन सकती थी। पुरुषों की धन-सम्पत्ति (विरासत) में उसका कोई हिस्सा नहीं था यहाँ तक कि आज भी, जो नारी-अधिकार की गहमा-गहमी और शोर-शराबा का दौर है, कृषि-भूमि में उसके विरासती हिस्से से उसे पूरी तरह वंचित रखा गया है।

अरब सभ्यता में लड़कियों को जीवित गाड़ देने की प्रथा थी। स्त्रियाँ पूर्ण नग्न होकर ‘काबा’ की परिक्रमा (तवाफ़) करती थीं। औरत को कोई अधिकार प्राप्त न थे। यह प्रथा भी प्रचलित थी कि एक स्त्री दस पुरुषों से संभोग करती; गर्भधारण के बाद दसों को एक साथ बुलाती और जिसकी ओर उंगली उठा देती वह बच्चे का पिता माना जाता। मर्दों की तरह औरतों (दासियों) को भी ख़रीदने-बेचने का कारोबार चलता था।

प्राचीन सभ्यता के वैश्वीय दृश्य-पट (Global Scenario) पर औरत की यह हैसियत थी जब इस्लाम आया और सिर्फ़ 21 वर्षों में पूरी कायापलट कर रख दी। यह वै$से हुआ, इस विस्तार में जाने से पहले, वर्तमान स्थिति पर एक नज़र डाल लेनी उचित होगी, क्योंकि इस्लाम वही भूमिका आज भी निभाने में सक्षम है जो उसने 1400 वर्ष पहले निभाई थी।

आधुनिक वैश्वीय (Global) सभ्यता में उपरोक्त स्थितियों की प्रतिक्रिया में नारी की गतिशीलता अतिवाद (Extremism) के हत्थे चढ़ गई। नारी को आज़ादी दी गई तो बिल्कुल ही आज़ाद कर दिया गया। पुरुष से समानता दी गई तो उसे पुरुष बना दिया गया, अर्थात् पुरुषों के भी कर्तव्यों (Duties and Responsibilities) को बोझ उस पर लाद दिया गया। उसे अधिकार बहुत दिए गए लेकिन उससे उसका नारीत्व छीन कर। इस सबके बीच उसे सौभाग्यवश कुछ अच्छे अवसर भी मिले। अब यह कहा जा सकता है कि औरत जाति ने पिछली लगभग डेढ़ सदियों के दौरान बहुत कुछ पाया है। बहुत तरक़्क़ी की है, बहुत सशक्त हुई है। इसे बहुत सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं। क़ौमों और राष्ट्रों के निर्माण व उत्थान में इसका बहुत योगदान रहा है जो सामूहिक व्यवस्था के हर क्षेत्र में साफ़ तौर पर नज़र आ रहा है। लेकिन यह सिक्के का सिर्फ़ एक रुख़ है जो बेशक बहुत अच्छा, चमकीला और संतोषजनक है। लेकिन जिस तरह सिक्के का दूसरा रुख़ भी देखे बिना उसके खरे या खोटे होने का फै़सला नहीं किया जा सकता उसी तरह औरत की हैसियत के बारे में कोई पै़$सला करना उसी वक़्त उचित होगा जब उसका दूसरा रुख़ भी ठीक से, गंभीरता से, ईमानदारी से देख लिया जाए। वरना, फिर यह बात यक़ीन के साथ कही जा सकती है कि वर्तमान समाज में औरत की हैसियत के मूल्यांकन में बड़ा धोखा हो सकता है, यह आशंका अवश्य रहेगी कि सिक्का खोटा हो लेकिन उसे खरा मान लिया गया हो। ऐसा हुआ तो नुक़सान का दायरा ख़ुद औरत से शुरू होकर, समाज, व्यवस्था और पूरे विश्व तक फैल जाएगा।

सिक्के का दूसरा रुख़ देखने के लिए किसी बड़े सर्वेक्षण, अध्ययन या शोधकार्य की ज़रूरत नहीं है। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रेनिक मीडिया के फैलाव ने यह काम बहुत ही आसान कर दिया है। नारी-जाति की मौजूदा हालत को हम इस मीडिया के माध्यम से रोज़ाना, हर वक़्त देखते रहते है, यद्यपि इसके साथ ‘‘बहुत कुछ और’’ भी हो रहा है जो मीडिया के चित्रण, प्रसारण व वर्णन के दायरे से बाहर है तथा उसके आगे भी ‘बहुत कुछ और’ है। इस ‘कुछ और’’ को लिखने में हया, शर्म और संकोच बाधक है।

उजाले और चकाचौंध के भीतर ख़ौफ़नाक अँधेरे

नारी जाति की वर्तमान उपलब्धियाँ—शिक्षा, उन्नति, आज़ादी, प्रगति और आर्थिक व राजनीतिक सशक्तीकरण आदिदृयक़ीनन संतोषजनक, गर्वपूर्ण, प्रशंसनीय व सराहनीय हैं। लेकिन नारी-जाति के हक़ीक़ी ख़ैरख़ाहों, शुभचिंतकों व उद्धारकों पर लाज़िम है कि वे खुले मन-मस्तिष्क से विचार व आकलन करें कि इन उपलब्धियों की क्या, कैसी और कितनी क़ीमत उन्होंने नारी-जाति से वसूल की है तथा स्वयं नारी ने अपनी अस्मिता, मर्यादा, गौरव, गरिमा, सम्मान व नैतिकता के सुनहरे, मूल्यवान सिक्कों से कितनी बड़ी क़ीमत चुकाई है। जो कुछ, जितना कुछ उसने पाया उसके लिए क्या कुछ, कितना कुछ गँवा बैठी। नई तहज़ीब की जिस राह पर वह बड़े जोश व ख़रोश से चल पड़ीद—बल्कि दौड़ पड़ीद—है उस पर कितने काँटे, कितने विषैले व हिंसक जीव-जन्तु, कितने गड्ढे, कितने दलदल, कितने ख़तरे, कितने लुटेरे, कितने राहज़न, कितने धूर्त मौजूद हैं।

आधुनिक सभ्यता और नारी

1. व्यापक अपमान

  • समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं में रोज़ाना औरत के नग्न, अर्धनग्न, लगभग पूर्ण-नग्न अपमानजनक चित्रों का प्रकाशन।
  • सौंदर्य-प्रतियोगिता…अब तो ‘‘विशेष अंग प्रतियोगिता’’ भी…तथा फ़ैशन शो/रैम्प शो के ‘वै$ट वाक’ में अश्लीलता का प्रदर्शन और टी॰वी॰ चैनल्स द्वारा वैश्वीय (Global) प्रसारण।
  • कार्पोरेट बिज़नस और सामान्य व्यवपारियों/उत्पादकों द्वारा संचालित विज्ञापन प्रणाली में औरत का ‘बिकाऊ नारीत्व’ (Woomanhood For Sale)।
  • सिनेमा, टी॰वी॰ के परदों पर करोड़ों-अरबों लोगों को औरत की अभद्र मुद्राओं में परोसे जाने वाले चलचित्राद—दिन-प्रतिदिन और रात दिन।
  • इंटरनेट पर ‘पोर्नसाइट्स’। लाखें वेब-पृष्ठों पर औरत के ‘इस्तेमाल’ के घिनावने, बेहूदा चित्र (जिन्हें देखकर शायद शैतान को भी लज्जा का आभास हो उठे)।
  • फ्रेन्डशिप क्लब्स, फोन/मोबाइल फोन सर्विस द्वारा युवतियों से ‘दोस्ती’।

2. यौन-शोषण (Sexual Exploitation)

  • देह व्यापार, गेस्ट हाउसों, बहुतारा होटलों में अपनी ‘सेवाएँ’ अर्पित करने वाली सम्पन्न व अल्ट्रामाडर्न कालगर्ल्स।
  • ‘रेड लाइट एरियाज़’ में अपनी सामाजिक बेटियों-बहनों की आबरू की ख़रीद-फ़रोख़्त (क्रय-विक्रय)। वेश्यालयों को समाज व प्रशासन की ओर से मंज़ूरी। सेक्स वर्कर, सेक्स ट्रेड और सेक्स इण्डस्ट्री जैसे ‘आधुनिक’ नामों से नारी-शोषण तंत्र की इज़्ज़त अफ़ज़ाई (Glorification) व सम्मानीकरण।
  • नाइट क्लबों और डिस्कॉथेक्स में औरतों व युवतियों के वस्त्रहीन अश्लील डांस।
  • हाई सोसाइटी गर्ल्स, बार गर्ल्स के रूप में नारी-यौवन व सौंदर्य की शर्मनाक दुर्गति।

3. यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment)

  • इॅव टीज़िंग (Eve Teasing) की बेशुमार घटनाएँ।
  • छेड़ख़ानी (Molestation) की असंख्य घटनाएँ जिनकी रिपोर्ट नहीं होती। देश में सिर्फ़ दो वर्षों 2005, 06 में 36,617 रिपोर्टेड घटनाएँ।
  • कार्य-स्थल पर यौन-उत्पीड़न (‘‘वीमेन अनसेफ़ एट वर्क-प्लेस’’) के समाचार-पत्र-रिपोरताज़।
  • सड़कों, गलियों, बाज़ारों, दफ़्तरों, हस्पतालों, चलती कारों, दौड़ती बसों आदि में औरत असुरक्षित। अख़बारों में कॉलम बनाए जाते हैं…नगर में नारी असुरक्षित (‘‘वूमन अनसेफ़ इन द सिटी’’)
  • ऑफ़िस में, नौकरी बहाल रहने के लिए, या प्रोमोशन के लिए बॉस द्वारा महिला कर्मचारियों के शारीरिक शोषण की घटनाएँ।
  • टीचर या ट्यूटर द्वारा छात्राओं का यौन उत्पीड़न।
  • नर्सिंग होम्स/हस्पतालों के जाँच-कक्षों में मरीज़ महिलाओं का यौन-उत्पीड़न।

4. यौन अपराध

  • बलात्कार—दो वर्ष की बच्ची से लेकर अस्सी वर्षीया वृद्धा से—ऐसा नैतिक अपराध है जिसकी ख़बरें अख़बारों में पढ़कर समाज के कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती, मानो किसी गाड़ी से कुचल कर कोई चुहिया मर गई हो—बस।
  • ‘‘सामूहिम बलात्-दुष्कर्म’’ के शब्द इतने आम हो गए हैं कि समाज ने ऐसी दुर्घटनाओं की ख़बर पढ़, सुनकर बेहिसी व बेफ़िकरी का ख़ुद को आदी बन लिया है।
  • युवतियों, बालिकाओं, किशोरियों का अपहरण, उनके साथ हवसनाक ज़्यादती—सामूहिक ज़्यादती भी—और फिर हत्या।
  • सिर्प़$ दो वर्षों (2005,06) में आबरूरेज़ी के 35,195 रिपोर्टेड वाक़यात। अनरिपोर्टेड घटनाएँ शायद दस गुना ज़्यादा हों।
  • सेक्स माफ़िया द्वारा औरतों के बड़े-बड़े, संगठित कारोबार। यहाँ तक कि परिवार से धुतकारी, समाज से ठुकराई हुई विधवाएँ भी, विधवा-आश्रमों में सुरक्षित नहीं।
  • विवाहिता स्त्रियों का पराए पुरुषों से संबंध (Extra Marital Relations), इससे जुड़े अन्य अपराध, हत्याएँ और परिवारों का टूटना-बिखरना।

5. औरतों पर पारिवारिक यौन-अत्याचार व अन्य ज़्यादतियाँ

  • बाप-बेटी, भाई-बहन के पवित्र, पाकीज़ा रिश्ते भी अपमानित।
  • जायज़ों के अनुसार बलात् दुष्कर्म के लगभग पचास, प्रतिशत मामलों में निकट संबंधी मुलव्वस (Incest)।
  • दहेज़-संबंधित अत्याचार व उत्पीड़न। जलाने, हत्या कर देने, आत्महत्या पर मजबूर कर देने, सताने, बदसलूकी करने, मानसिक यातना देने, अपमानित व प्रताड़ित करने के नाक़ाबिले शुमार वाक़ियात। सिर्फ़ तीन वर्षों (2004,05,06) के दौरान दहेज़ी मौत के रिपोर्टेड 1,33,180 वाक़ियात।
  • दहेज़ पर भारी-भारी रक़में और शादी के अत्यधिक ख़र्चों के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन न होने के कारण अनेकानेक युवतियाँ शादी से वंचित, मानसिक रोग की शिकार, आत्महत्या। कभी माता-पिता को शादी के ख़र्च के बोझ तले पिसते देखना सहन न कर सकने से कई-कई बहनों की एक साथ ख़ुदकुशी।

6. कन्या भ्रूण-हत्या (Female Foeticide) और कन्या-वध (Female Infanticide)

  • बच्ची का क़त्ल, उसके पैदा होने से पहले माँ के पेट में ही। कारण : दहेज़ व विवाह का क्रूर निर्दयी शोषण-तंत्र।
  • पूर्वी भारत के एक इलाक़े में रिवाज़ है कि अगर लड़की पैदा हुई तो पहले से तयशुदा ‘फीस’ के एवज़ दाई उसकी गर्दन मरोड़ देगी और घूरे में दबा आएगी। कारण? वही…‘दहेज़ और शादी के नाक़ाबिले बर्दाश्त ख़र्चे।’ कन्या-वध (Female Infanticide) के इस रिवाज के प्रति नारी-सम्मान के ध्वजावाहकों की उदासीनता (Indiference)।

7. सहमति यौन-क्रिया (Fornication)

  • अविवाहित रूप से नारी-पुरुष के बीच पति-पत्नी का संबंध (Live in Relation)। पाश्चात्य सभ्यता का ताज़ा तोहफ़ा। स्त्री का ‘सम्मानपूर्ण’ अपमान।
  • स्त्री के नैतिक अस्तित्व के इस विघटन से न क़ानून को कुछ लेना-देना, न नारी जाति के ‘शुभ-चिंतकों’ को, न पूर्वीय सभ्यता के गुणगायकों को, और न ही नारी-स्वतंत्रता आन्दोलन (Women Liberation Movement) की पुरजोश कार्यकर्ताओं (Activists) को।
  • ससहमति अनैतिक यौन-क्रिया (Consensual Sex) की अनैतिकता को मानव-अधिकार (Human Right) नामक ‘नैतिकता’ का मक़ाम हासिल। क़नून इसे ग़लत नहीं मानता, यहाँ तक कि उस अनैतिक यौन-आचार (Incest) को भी क़ानूनी मान्यता प्राप्ति जो आपसी सहमति से बाप-बेटी, भाई-बहन, माँ-बेटा, दादा-पोती, नाना-नतिनी आदि के बीच घटित हो।

आत्म-निरीक्षण (Introspection)

यह ग्लानिपूर्ण, दुःखद चर्चा हमारे भारतीय समाज, और आधुनिक तहज़ीब तथा उसके अन्दर ‘नारी’ के, मात्र नकारात्मक (Negative) और निराशावादी (Pessimistic) चित्रण के लिए नहीं, बल्कि हम भारतवासियों—विशेषतः नारियों—के व्यक्तिगत, सामाजिक व सामूहिक आत्म-निरीक्षण (Introspection) के लिए है। यह नारी-जाति की उपरोक्त दयनीय, शोचनीय एवं दर्दनाक व भयावह स्थिति के किसी सफल समाधान तथा मौजूदा संस्कृति-सभ्यता की मूलभूत कमज़ोरियों के निवारण पर गंभीरता, सूझ-बूझ और ईमानदारी के साथ सोच-विचार और अमल करने के आह्नान के भूमिका-स्वरूप है। लेकिन इस आह्नान से पहले, संक्षेप में यह देखते चलें कि नारी-दुर्गति, नारी-अपमान, नारी-शोषण के जो हवाले से मौजूदा भौतिकवादी, विलासवादी, सेक्युलर (धर्म-उदासीन व ईश्वर-विमुख) जीवन-व्यवस्था ने उन्हें सफल होने दिया है या असफल किया है? क्या वास्तव में इस तहज़ीब के मूलतत्वों में क्या इतना दम, सामर्थ्य व सक्षमता है कि चमकते उजालों और रंग-बिरंगी तेज़ रोशनियों की बारीक परतों में लिपटे गहरे, भयावह, व्यापक और ज़ालिम अंधेरों से नारी जाति को मुक्त करा सवें$, उसे उपरोक्त शर्मनाक, दर्दनाक परिस्थिति से उबार सकें।

नारी-कल्याण आन्दोलन (Feminist Movement)

सलिंगीय समानता (Gender Equality)

नारी-शोषण के अनेकानेक रूपों के निवारण के अच्छे जज़्बे के तहत उसे तरह-तरह के सशक्तिकरण (Empowerment) प्रदान करने को बुनियादी अहमियत दी गई। इस सशक्तिकरण के लिए उसे कई ऐसे अधिकार दिए गए जिनसे वह पहले वंचित थी, उनमें ‘लिंगीय समानता’ आरंभ-बिन्दु (Starting Point) था। इस दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते उसे पुरुष के समान अधिकार दे दिए गए और इसे इन्साफ़ का तक़ाज़ा भी कहा गया, कि सिर्प़$ अधिकारों तक ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के स्तर पर भी औरत को मर्द के बराबर का दर्जा मिलना चाहिए; सो यह दर्जा उसे दे दिया गया। फिर बात आगे बढ़ी और औरत पर मर्द के बराबर ही ज़िम्मेदारियों का बोझ भी डाल दिया गया। ‘बराबरी’ की हक़ीक़त यह तय की गई कि कर्तव्य-क्षेत्रों में औरत-मर्द का फ़र्क़ मिटा दिया जाए; अर्थात् इस क्षेत्र में औरत को मर्द बना दिया जाए। यह सब कर भी दिया गया और आगे बढ़ने, आगे बढ़ाने के जोश में इस तथ्य की अनदेखी की जाती रही कि सृष्टि और शारीरिक रचना के अनुसार कुछ मामलों में औरत के और कुछ मामलों में मर्द के अधिकार एक-दूसरे से ज़्यादा होते हैं; इसी तरह कर्तव्य व ज़िम्मेदारियाँ भी कुछ मामलों में मर्दों की, कुछ मामलों में औरतों की अधिक होती हैं। अतः अन्धाधुंध ‘बराबरी’, इन्साफ़ नहीं, विडम्बना है। यह विडंबना प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नारी-जगत की समस्याएं बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाती है।

नारी-स्वतंत्रता (Woman Liberation)

सदियों से बंधनों में बँधी, अधिकारों से वंचित अपमानित तथा शोषित नारी-जाति को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए अनेक उपाय किए गए, नए-नए रास्ते खोले और नए-नए क्षेत्र प्रशस्त किए गए। औरत के अन्दर आत्मविश्वास व आत्म-बल बढ़ा और इतना बढ़ा कि वह इस स्वतंत्रता पर ही संतुष्ट व राज़ी न रह सकी। नारी-उत्थान व नारी-स्वतंत्रता आन्दोलन इतना बढ़ा और प्रबल व गतिशील हो गया कि संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) भी अपनी प्रभाव-परिधि में ले आया यहाँ तक कि स्वतंत्राता को स्वच्छंदता (Absolute Freedom) का आयाम देने में सफलता प्राप्त कर ली। फिर दम्पत्ति-संबंध कमज़ोर होने, टूटने, बिखरने लगे और औरत-मर्द (पत्नी-पति) एक दूसरे के सहयोगी नहीं, प्रत्याशी व प्रतियोगी बनते गए। बच्चों की पैदाइश और माँ बनने से औरत विरक्त व बेज़ार होने लगी। सामाजिक ताना-बाना बिखरने लगा; नैतिकता का पूरा ढाँचा चरमरा उठा। सहलिंगता (Lesbianism) और पुरुषों के साथ बिना विवाह सहवास व संभोग (Live-in Relation) को स्वीकृति, औचित्य और प्रचलन मिला। यह पूरी स्थिति अन्ततः नारी जाति के लिए अभिशाप ही बनकर रही।

प्रभाव व परिणाम (Effects and Results)

लगभग डेढ़ सदियों की ‘बराबरी’ व ‘आज़ादी’ के कुछ अच्छे परिणाम अवश्य निकले जिन पर समाज, नारी जाति और उसके पुरुष शुभचिंतकों का गर्व करना उचित ही है। अधिकारों और सशक्तिकरण के वृहद व व्यापक क्षेत्रा प्रशस्त हुए। राष्ट्र के निर्माण व उन्नति-प्रगति में नारी का बड़ा योगदान हुआ। लेकिन जितना कुछ उसने पाया उसकी तुलना में उससे बहुत कुछ छिन भी गया। जो कुछ पाया उसकी बड़ी महँगी क़ीमत उसे चुकानी पड़ गई।

जैसे:

  1. घर के अन्दर ‘पत्नी’ और ‘माँ’ की भूमिका निभाने से स्वतंत्र हो जाने के सारे प्रयासों व प्रावधानों के बावजूद प्रकृति के निमयों तथा प्राकृतिक व्यवस्था से भी पूरी तरह आज़ाद हो जाना (कुछ नगण्य व्यक्तिगत अपवादों को छोड़कर) चूंकि संभव न था, और इस अवश्यंभावी प्रतिकूल अवस्था में और घर से बाहर धन कमाने (जिसे ‘देश की तरक़्क़ी में योगदान’ का नाम दिया गया) निकल खड़ी हुई तो उस पर दोहरी ज़िम्मेदारी और तदनुसार दोहरी मेहनत मशक़्क़त का बोझ पड़ गया; बीवी और माँ तथा घर व परिवारक के संयोजक की भी ज़िम्मेदारी और जीविकोपार्जन (या रहन-सहन का स्तर ‘ऊँचा’ करने) की भी ज़िम्मेदारी। इसका तनाव दूर करने के लिए मर्दों ने उसके मनोरंजन के लिए (तथा उससे मनोरंजित होने के लिए) घर से बाहर की दुनिया में भाँति-भाँति के प्रावधान कर डाले। उस ख़ूबसूरत, चमकीली, रंग-बिरंगी दुनिया में उसके यौन-उत्पीड़न व शोषण की ऐसी असंख्य छोटी-छोटी दुनियाएँ आबाद थीं जिनमें उसकी दुर्गति और अपमान की परिस्थिति से स्वयं नारी को भी शिकायत है, समाजशास्त्रियों को भी, नारी-उद्धार आन्दोलनों को भी और सरकारी व्यवस्था बनाने व चलाने वालों को भी।
  2. पति के साथ बिताने के लिए समय कम मिलने लगा तो आफ़िस के सहकर्मियों और आफ़िसरों की निकटता और कभी-कभी अनैतिक संबंध (या यौन-उत्पीड़न) के स्वाभाविक विकल्प ने काम करना शुरू कर दिया। बहुतों में से मात्र ‘कुछ’ की ख़बर देते हुए समाचार पत्र इस तरह के कॉलम बनाने लगे: ‘कार्य-स्थल पर नारी असुरक्षित’ (Woman Unsafe at Workplace), नगर में नारी असुरक्षित (Woman Unsafe in the City)।
  3. घर के बाहर काम के लिए जाने में बच्चे ‘अवरोधक’ साबित हुए तो इसके लिए चार विकल्प तलाश किए गए; एक: बच्चे पैदा ही न होने दिए जाएँ। गर्भ निरोधक औषधियों व साधनों तक पति-पत्नी की पहुँच इतनी आसान कर दी गई कि अविवाहित युवकों और युवतियों में भी इनका ख़ूब इस्तेमाल होने लगा। यहाँ तक कि सरकारी मशीनरी ने नगरों में बड़े-बड़े विज्ञापन-पट (Sign Boards) लगाने शुरू कर दिए कि ‘सुरक्षित यौन-क्रिया के लिए कंडोम साथ रखकर चलिए।’ इस प्रकार औरत का शील बरबाद हो तो हो, उसके बाद का ‘ख़तरा’ न रह जाए, इसका पक्का इन्तिज़ाम कर दिया गया। दो: अति-उन्नतिशील (Ultramodern) महिलाओं ने अपने नन्हें बच्चों की जगह पर कुत्तों को गोद में बैठाने, प्यार से उन पर हाथ पे$रने और सीने से चिमटाने का रास्ता निकाल कर कुत्ते को संतान का विकल्प बना लिया। तीन: मध्यम वर्ग में गर्भ-निरोधक उपायों के बाद भी गर्भधारण (Conception) हो जाए तो जगह-जगह गर्भपात क्लीनिक (Abortion Clinics) खोल दिए गए। चार: जो महिलाएँ यह विकल्प धारण न कर सवें$ उनके बच्चे दिन भर के लिए नौकरानी, या शिशुपालन-केन्द्रों के हवाले किए जाने लगे। माता के स्नेह, प्रेम, ममता और देख-रेख से महरूम बच्चे आगे चलकर समाज के अन्दर चरित्रहीन, आवारा, नशाख़ोर और अपराधी युवकों की खेप बनने लगे।
  4. घर के बाहर की विशाल दुनिया में स्वतंत्रा व स्वच्छंद नारी का यौन-शोषण करने के लिए उसके ‘शुभचिन्तक’ पुरुषों ने बड़े सुन्दर-सुन्दर यत्न कर रखे हैं जिन्हें ‘सोने के धागों का जाल’ कहना शायद अनुचित न हो। नाइट क्लबों से लेकर वेश्यालयों तक, पोर्नोग्राफ़ी से लेकर ‘ब्लू-फिल्म इण्डस्ट्री’ तक, देह-व्यापार के बाज़ार से लेकर ‘काल गर्ल’ सिस्टम तक और फिल्मों, विज्ञापनों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं से लेकर सौंदर्य प्रतियोगिताओं तथा पश्चिमी सभ्यता से आयात किए गए कुछ ‘यौन-त्योहारों’ तक; गोया पूरी सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में यह सुनहरा जाल फैला दिया गया। भारत के सिर्फ़ वेश्यालयों में कई लाख ‘समाज की ही बेटियों’ के (जिनमें कई लाख कमसिन किशोरियाँ हैं) शील के क्रय-विक्रय को सेक्स इण्डस्ट्री तथा बिकने-ख़रीदी जाने वाली बेटियों-बहनों को ‘सेक्स वर्कर’ का ‘सभ्य’ नामांकरण कर दिया गया। संसार की सबसे क़ीमती चीज़ (औरत का शील व नारीत्व) एक जोड़ी चप्पल से भी कम क़ीमत पर ख़रीदी, बेची जाने लगी। कहा गया कि यह सब नारी-स्वतंत्रता और नारी-अधिकार की उपलब्धि है। इस सब को रोकने के बुद्धिसंगत उपायों पर तो सोचने का कष्ट किया नहीं गया; अलबत्ता इन्हें रोकने की हर कोशिश को नैतिक पुलिसिंग (Moral Policing) का नाम देकर, कहा जाने लगा कि इसका अधिकार किसी को भी नहीं दिया जा सकता।
  5. इस अवस्था का भयावह और शर्मनाक परिणाम वह निकला जिसका बहुत ही संक्षिप्त वर्णन सात उपशीर्षकों के साथ किया गया है। यह नारी स्वतंत्रता और लिंगीय समानता की वह ‘बैलेंस शीट’ है जो इन बड़ी-बड़ी ‘क्रान्तियों’ के लाभ-हानि का हिसाब पेश करती है।

Source: IslamDharma

Courtesy :
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Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)