परदा – नारी जाति के प्रति अत्याचार ?
‘‘सृष्टि में फैला हुआ सौंदर्य मानव-जाति के आनन्द और मनोरंजन का साधन है। यह बात स्त्री-सौंदर्य पर भी लागू होती है। लेकिन इस्लाम सृष्टि के इस अद्भुत व आकर्षक सौंदर्य को कपड़ों में लपेट कर मानव-प्रकृति पर अन्याय तथा नारी-सौंदर्य के प्रदर्शन पर पहरा बैठा कर सभ्यता-संस्कृति तथा स्वयं नारी जाति पर अत्याचार करता है; साथ ही स्त्री-पुरुष समानता का विरोधी बनकर नारी-अधिकार का हनन करता है, तथा प्रगति व उन्नति में औरतों को भाग लेने से रोकता है।ऐसा क्यों है?’’
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हया (लज्जा) — मानव-प्रकृति
छः सात साल की उम्र तक पहुंचकर, बच्चे-बच्चियों में, किसी बाह्य कारक (जैसे माता-पिता द्वारा बताए जाने, उपदेश देने, शिक्षा-दीक्षा देने, समझाने-बुझाने आदि) के बिना ही अपने शरीर-अंग छिपाने की प्रवृत्ति नज़र आने लगती है। यह वास्तव में वह हया की प्रवृत्ति है जिसे स्त्री व पुरुष में उत्पन्न करने तथा बढ़ाने का कार्य स्वयं प्रकृति द्वारा (इस्लामी विचारधारा के अनुसार, स्वयं, मनुष्य के रचयिता अल्लाह ईश्वर द्वारा) संपन्न किया जाता है। यह प्रवृत्ति मनुष्य के सिवाय अन्य किसी प्राणी में नहीं होती। हया व लज्जा का यह व्यापक व प्राकृतिक (Universal and Natural) प्रावधान मनुष्य के लिए विशेष रूप से सिर्फ़ इसलिए है कि उसके (स्त्री तथा पुरुष के) पास शील (Chastity) की एक ऐसी क़ीमती दौलत होती है जो अन्य किसी प्राणी के पास नहीं होती। उस दौलत की हिफ़ाज़त के लिए ही मनुष्य को हया की प्रवृत्ति प्रदान की गई है। कुछ कारणों से (जिनमें प्रमुख कारण, (कु़रआन—24:21, 7:20—के अनुसार) शैतान की ओर से ‘उकसाहट’ है) यह प्रवृत्ति जितनी-जितनी कमज़ोर, विकरित व प्रदूषित होती है, मनुष्य का…विशेषतः स्त्री का…शील उतनी-उतनी ही तबाही व बरबादी से दोचार होने लगता है। यह दिन-प्रतिदिन का अनुभव है।
यह हक़ीक़त सहज रूप से सर्वविदित है कि स्त्री में, पुरुष की तुलना में हया का तत्व ज़्यादा होता है। किशोरावस्था से ही यह फ़र्क़ साफ़ नज़र आने लगता है, जब एक किशोरी के हाव-भाव, शरीर को छिपाने का अन्दाज़, शरमीलापन और जनाना अदाएं स्पष्ट रूप से लड़कों से भिन्न और प्रबल दिखने लगती हैं। इस अन्तर के पीछे यह तथ्य स्वचालित रूप से कार्यान्वित रहता है कि औरत का शील मर्द की तुलना में ज़्यादा मूल्यवान भी होता है और पानी के बुलबुले के समान अत्यंत सूक्ष्मग्राही (Sensitive) और नाजु़क (Fragile) भी।
नाजु़क चीज़ों के बारे में सचेत कराया जाता है कि इन्हें ‘‘एहतियात के साथ बरतें (Fragile-Handle with Care)।
’’इस्लाम ने परदे के ज़रिआ से स्त्री की हया की हिफ़ाज़त का, तथा हया की हिफ़ाज़त के ज़रिए से उसके शील की हिफ़ाज़त का जो पुख़्ता इन्तज़ाम किया है यह वही ‘एहतियात से बरतना’ है (कु़रआन, 24:30-31)।
अतः यह एक ठोस हक़ीक़त है कि जो औरतें जितना ज़्यादा परदा करती (देह-प्रदर्शन से रुकती) हैं वे उतनी ही शीलवान होती हैं; और मुस्लिम समाज में यह अनुपात अन्य सारे समाजों से बहुत अधिक होता है। यदि हमारे देश की सारी औरतें ‘इस्लामी ड्रेस कोड’ इख़्तियार कर लेने की ठान लें (और शैतान की उकसाहटों से प्रभावित न होने का आत्मबल पैदा कर लें) तो बिना किसी द्विविधा के यह बात कही जा सकती है कि उनके प्रति, जो करोड़ों की संख्या में विभिन्न प्रकार के यौन-अत्याचार, शोषण और यौन-अपराध की घटनाएं/दुर्घटनाएं हर साल घटित होती हैं उनका स्तर कमोबेश 95 प्रतिशत तक नीचे गिर जाएगा।
परदा — इस्लाम का पक्ष
इस्लाम मनुष्य की बुद्धि और चेतना को अपील करते हुए, हर मामले, हर मुद्दे (Issue) पर निष्ठापूर्वक ग़ौर और चिंतन की दअ़वत देता है। इस्लाम की एक विशेषता और विशिष्टता यह भी है कि वह जीवन के किसी भी पहलू, किसी भी क्षेत्र में व्यक्ति, समाज, और सभ्यता (Civilisation) तथा संस्कृति (Culture) को मात्र विवेक, अन्तरात्मा और चेतन शक्ति पर ही आधारित व आश्रित नहीं रहने देता, या उसकी शिक्षाएं मात्र ‘उपदेश’ तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वह जीवन-संबंधी हर मामले में नियम, क़ानून और आदेश (Commandments) भी देता है। क्योंकि विभिन्न आन्तरिक एवं बाह्य कारणों व कारकों के निरंतर सक्रिय रहने से प्रायः मानवीय मूल प्रवृत्ति में विकार व बिगाड़ आ जाता है जिसके प्रभाव व प्रबलता से मनुष्य अपनी मूल प्रकृति से हट जाता, अन्तरात्मा की आवाज़ की अवहेलना करने लगता तथा अंततः मानव प्रकृति के स्वाभाविक तक़ाज़ों व अपेक्षाओं से बग़ावत कर गुज़रता है। स्त्रियों का वस्त्रहीन होकर देह-प्रदर्शन करना, तथा उन्हें देह-प्रदर्शन के लिए अर्धनग्न, पूर्ण नग्न व अश्लील मुद्रा में लाए जाने पर पुरुषों द्वारा उकसाया जाना, वरग़लाया जाना, प्रकृति से इसी बग़ावत का प्रतीक है।
परदा पर इस्लाम का पक्ष विचाराधीन लाने से पहले, उन औरतों को छोड़कर जो वस्त्रहीन होकर नाइट क्लबों और डिस्कॉथेक्स में नाचती हैं, या लगभग नग्न होकर सौंदर्य-प्रतियोगिताओं और रैम्प पर वै$टवाक के ‘फैशन शो’ में भाग लेती हैं, या ब्लूफ़िल्मों में अपना यौन-क्रियारत शरीर दिखाती हैं; यदि किसी भी सामान्य स्त्री से पूछा जाए कि ‘‘आप साड़ी, शलवार, सूट, शर्ट, दुपट्टा पहनकर अपने यौनांगों और गुप्तांगों को ‘कपड़े से लपेट कर’ क्यों रखती हैं; अपने अद्भुत व आकर्षक सौंदर्य और यौवन से पुरुष जाति को आनन्दित व मनोरंजित क्यों नहीं होने देतीं?’’
और इस्लाम पर आक्षेप करने से पहले यह बात ख़ुद अपनी बेटी, बहन, मां, पत्नी से पूछी जाए (क्योंकि हर स्त्री किसी की बेटी, बहन, मां, पत्नी अवश्य होती है), तो इस प्रश्न के संभवतः दो या दो में से कोई एक उत्तर मिलेगा।
एक: ‘‘शायद आप पागल हो गए हैं जो इतनी आसान-सी बात भी आपकी समझ में न आई; इतनी आसान कि मानव-जाति की उत्पत्ति से लेकर, हर युग, हर भूभाग, हर जाति व क़ौम के किसी भी व्यक्ति (स्त्री व पुरुष) को, आज तक समझाना नहीं पड़ा।’’
और
दो: ‘‘हमारी लज्जा, हमारा विवेक, हमारा नारित्व, हमारा गौरव और शील-रक्षा (Protection and Preservation of Chastity) की हमारी प्रबल, प्राकृतिक व मौलिक प्रवृत्ति हमें अपने यौनांगों व गुप्तांगों को कपड़ों में लपेट कर रखने पर तत्पर रखती है। यह हमारी मौलिक आवश्यकता है।’’
परदा की इस्लामी हिकमत
इस्लाम जब परदे का क़ानून बनाता तथा उस पर अमल को अनिवार्य बनाने का आदेश (हुक्म) देता है तो उसकी हिकमत भी बताता है।
क़ुरआन मुस्लिम स्त्रियों को परदा करने का आदेश देने के साथ ही इसकी हिकमत यह बताता है :
‘‘ताकि वे पहचान ली जाएं और सताई न जाएं (33:59)।’’
इस बज़ाहिर छोटी-सी साधारण सी बात में, वस्तुतः हिकमत (तत्वदर्शिता, Wisdom) की एक दुनिया समाई हुई है।
‘पहचान ली जाएं’ का भावार्थ यह है कि समाज के ग़लत व चरित्रहीन लोग समझ लें कि ये शरीफ़ व सुशील औरतें हैं। इन से किसी अनैतिक यौन-अग्रसरता (Sexual Advancement), और सहयोग (Co-operation) की आशा तो दूर की बात कल्पना भी नहीं की जा सकती।
‘और सताई न जाएं’ का भावार्थ यह है कि बहुत चुस्त लिबास, पारदर्शी लिबास, अभद्र लिबास, अश्लील, अर्धनग्न व भड़काऊ (Provocative) लिबास पहनने वाली स्त्रियों तथा यौनाकर्षण (Sex appeal) के जलवे बिखेरने वाली नारियों व युवतियों को देखकर युवकों व पुरुषों में (उनके मन-मस्तिष्क, शरीर और भावनाओं में) यौन-उत्तेजना की जो आग भड़क उठती है, और फिर छेड़छाड़ (Eve-teasing), शारीरिक छेड़ख़ानी (Molestation), अपहरण (Abduction), बलात्कार (Rape), सामूहिक बलात् दुष्कर्म (Gang rape), बलात्कार-पश्चात हत्या तथा अनेकानेक अपराधों के शोलों में स्त्री की मर्यादा, तथा उसका नारित्व भभक-भभक कर जलने लगता है, उस पूरी दुखद, शर्मनाक व दर्दनाक परिस्थिति से परदानशीन औरत बच जाए, बची रहे, अर्थात पीड़ित न हो, सताई न जाए, अपमानित व शोषित न हो।
औरतों के इस ‘सताई जाने’ के अनेकानेक रूपों से तथा हमारे देश व समाज में रात-दिन निरंतर घटती रहने वाली अनगिनत घटनाओं से लगभग हर व्यक्ति अपने अनुभव और मीडिया द्वारा अवगत है। ऐसा कोई भी व्यक्ति जो वुद्धिमान भी हो, संवेदनशील भी, तथा पूर्वाग्रहरहित (Unprejudiced) भी; क्या ऐसा कह सकता है कि परदा, औरत पर इस्लाम और मुस्लिम समाज का ‘अत्याचार’ है?
प्रगति, विकास, उन्नति में ‘परदा’ अवरोध है ?
परदा का विरोध करने वालों का दूसरा ‘तर्क’ यही है कि परदे वाली औरत घर की चारदीवारी में क़ैद, चूल्हा-चक्की में पं$सी, बच्चे पैदा करने वाली मशीन’ बनी, देश और राष्ट्र की प्रगति में ‘सक्रिय’ भूमिका निभाने तथा चहमुखी विकास में अपना यथार्थ योगदान देने के अवसरों से वंचित रह जाती है और यह इस्लाम का बहुत बड़ा दोष, बड़ा भारी दुर्गुण है।
इस, बड़े ‘शक्तिशाली’ और ‘तर्कपूर्ण’ आरोप का संक्षिप्त, और सीधा जवाब इस्लाम की ओर से यह है:
‘‘ऐसी प्रगति, ऐसा विकास, ऐसी उन्नति, ऐसी सम्पन्नता (Affluance) जो स्त्री के शील, हया, गौरव-गरिमा और नारित्व को दांव पर लगाकर, ख़तरों में डालकर, लूटकर, लुटा कर, रौंद कर प्राप्त की जाए; तो चाहे उसमें भौतिक चमक व चकाचैंध जितनी भी हो, वह अवनीत है, घाटे का सौदा है। वह नारी-अधिकार का नहीं नारी-शोषण तथा नारी-अधिकार-हनन का द्योतक है।’’
परदा शिक्षा-प्राप्ति और ज्ञान-अर्जन में अवरोधक नहीं, कम्प्यूटर सीखने व इस्तेमाल करने में अवरोधक नहीं है। अध्यापिका और चिकित्सक बनने में अवरोधक नहीं है। उस उन्नति व प्रगति में अवरोधक नहीं है जो उससे उसकी हत्या तथा उसके नारित्व व शील की क़ीमत वसूल न करे।
प्रगति में बेपरदा औरत का ‘योगदान’ — दर्पण बोलता है…
इस्लाम की दृष्टि में वास्तविक एवं वांछनीय प्रगति वह है जिसमें भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता व नैतिकता का समावेश हो। सभ्यता व संस्कृति में मानवीय मूल्यों की सम्पूर्ण भूमिका तथ ज्ञान-विज्ञान व तकनॉलोजी की भूमिका में संतुलित सामंजस्य व समन्वय, मानव-जाति की उन्नति व प्रगति का आधार होना चाहिए। इस पूरे प्रक्रम में नारी जाति से संबंधित नैतिक मूल्यों को विशेष महत्व दिया गया है। इस विषय में यह एक सर्वविदित सत्य है कि स्त्री का शरीर जितना-जितना बेपरदा होकर सार्वजनिक प्रदर्शन हेतु, खुले व स्वच्छंद समाज के समक्ष पेश किया जाता है, उतना-उतना ही उसके नैतिक मूल्यों का ह्रास, दमन व शोषण होता है।
एक शोध पुस्तक ‘वीमेन इन अ चेन्जिंग सोसाइटी’ (प्रकाशित 1993) की प्रबुद्ध लेखिका, पुस्तक के प्राक्कथन में लिखती हैं:
‘‘भारत में (मुस्लिम…) शासन के आते ही परदा-परम्परा शुरू हुई और औरतें घर की चारदीवारी में बन्द हो गईं। उनकी शिक्षा को आघात पहुंचा और बाहर की दुनिया में उनकी भूमिका बहुत कम रह गई।’’
विद्वान लेखिका ने पुस्तक में यह तो कहीं नहीं लिखा कि मुस्लिम शासनकाल में प्रतिवर्ष ‘बाहर की दुनिया’ में (कार्य-स्थल पर) मुस्लिम औरतों के यौन-शोषण, और बलात्कार के आंकड़े क्या हैं? व्यभिचार की धूम कितनी थी? छेड़छाड़ व शारीरिक छेड़ख़ानी (Molestation) की घटनाएं कितनी होती थीं? सामूहिक बलात् दुष्कर्म (Gang rape) कितने होते थे। स्त्रियों व युवतियों के अपहरण व बलात्कार तथा यौन-अपराधीय हत्या के आंकड़े क्या हैं? इसका कारण इसके सिवाय और कुछ समझ में नहीं आता कि औरतों की ऐसी दुर्दशा, (यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि औरतों की ऐसी दुर्दशा मुस्लिम शासनकाल में बिल्कुल हुई ही नहीं (और न ही बाद के वर्षों से लेकर आज तक…आज भी…मुस्लिम समाज ने अपने अन्दर नारी-दुर्दशा के ऐसे घिनावने, शर्मनाक आंकड़े पलने-बढ़ने का अवसर दिया। और चूंकि इसका श्रेय इस्लाम को जाता है तथा उसकी ‘परदा-व्यवस्था’ को, और प्रबुद्ध लेखिका को यह श्रेय इस्लाम को देने में शायद मुश्किल और उलझन का सामना हुआ हो, अतः ‘परदा-प्रथा’ और ‘घर की चारदीवारी’ के फ़ायदों और ज़िन्दा चमत्कार को स्वीकार करने और लिखने का साहस न जुटा पाई हों इसलिए ‘परदा’ व ‘चारदीवारी’ पर एक संक्षिप्त, लेकिन बड़ी ही गंभीर, नकारात्मक (तथा इस्लामी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था पर अपमानजनक) टिप्पणी लिखने पर ही बस कर दिया। अलबत्ता उन्होंने आधुनिक भारत की (घर की चहारदीवारी की क़ैद से आज़ाद होकर ‘बाहर की दुनिया’ में भूमिका निभाने वाली) औरत से संबंधित 1988, 1989, 1990 के, ऐसी कुछ-एक घटनाओं के आंकड़े (पृष्ठ 148 पर) उल्लिखित करके, दर्पण सामने रखकर उसे स्वयं बोलने का अवसर अवश्य प्रदान किया है। (दर्पण की इस आवाज़ में परदा से संबंधित इस्लामी नीति और इस्लाम का, मानव-समाज तथा नारी-जाति के नाम (परोक्ष रूप से) संदेश भी निहित है)।
प्रबुद्ध लेखिका लिखती हैं:
‘‘आज, बलात्कार से संबंधित आंकड़े एक दुखद परिस्थिति का रहस्योद्घाटन करते हैं। अनुमान है कि भारत में प्रतिदिन 33 स्त्रियों के साथ बलात् कर्म होता है। हमारे देश में वार्षिक 20,000 बलात्कार के मामले होते हैं।…हिन्दी बेल्ट (यू॰पी॰, बिहार, एम॰पी॰, राज॰ आदि) में 1988 में 26,389; 1989 में 30,320; 1990 में 31,014 घटनाएं नारी के प्रति अपराध की घटीं। ग़ैर-हिन्दी बेल्ट में यह आंकड़े क्रमशः 22,224; 23,853; 23,853 हैं।…वैसे ताज़ा स्थिति बताती है कि पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा जैसे ‘सुरक्षित’ प्रांत, बलात्कार की बड़ी संख्या दर्ज कराते हैं…‘मैरी स्टोप्स, दिल्ली’ के अनुसार हर वर्ष 2,00,00,000 (दो करोड़) औरतों व लड़कियों के साथ भारत में बलात्कार होता है और 20 में से केवल एक मामले की एफ॰आई॰आर॰ दर्ज होती है।’’
ध्यान रहे कि ससहमति यौन-क्रिया (Consensual sex) के व्यभिचार (Fornication) की प्रति माह लाखों घटनाएं, अपराध न मानी जाने के कारण से आंकड़ों और रिपोर्टों से बाहर ही रह जाती हैं।
‘‘प्रगति में नारी-योगदान’’ के ‘सुखद’ सफ़र के वर्षों बाद उपरोक्त आंकड़ों में अब कितनी वृद्धि हो चुकी, इसका अनुमान लगाना कुछ कठिन नहीं; वैसे ‘नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो’ और अनेक दूसरे संस्थानों द्वारा वर्ष-प्रति-वर्ष प्रस्तुत आंकड़े बेपरदगी, अश्लीलता तथा परदा-विरोधी यौन-स्वच्छंदता के दुष्परिणाम अर्थात नारी-दुर्दशा, अपमान व शोषण की तस्वीरें पेश करते रहते हैं। जागरूक मस्तिष्क और संवेदनशील हृदय हो तो ये तथ्य परदा के बारे में इस्लाम पर उठने वाले प्रश्नों का उत्तर स्वतः दे देते; तथा आरोपों, आक्षेपों, भ्रांतियों व ग़लतफ़हमियों का निवारण स्वतः कर देते हैं।
चेहरे का परदा
इस तथ्य से इन्कार संभव नहीं है कि चाहे व्यभिचार व बलात्कार हो, चाहे युवतियों व स्त्रिायों के साथ छेड़खानी (Eveteasing/Molestation), या उनका अपहरण तथा उनसे दुष्कर्म, इन दुर्घटनाओं व कुकृत्यों का आरंभ-बिन्दु उनका ‘चेहरा’ है। चेहरा ही इन सबका ‘प्रवेश-द्वार’ है। और यदि मेक-अप द्वारा पराए मर्दों की कामोत्तेजना भड़काने और उन्हें प्रलोभित करने के लिए चेहरे को आकर्षक (Sex appealing) बनाया जाए तो मानों उस प्रवेश-द्वार के पट खोल दिए गए; नारी के शील को ख़तरों के तूफ़ान के हवाले कर दिया गया।
इस्लाम में औरत के बहुमूल्य नारीत्व व शील को सुरक्षित रखने के लिए आदेश दिया कि वह अपने शरीर के साथ-साथ, सामान्य स्थिति में (घर से बाहर निकले तो) अपना चेहरा भी छिपा कर रखे (क़ुरआन, 33:59) तथा असामान्य स्थिति में, जब अनिवार्य हो जाए तभी चेहरा अजनबी पुरुषों के सामने खोले। लेकिन यहां भी इस्लाम औरत को पूरी एहतियात बरतने (Precautionary and preventive measure) का हुक्म देता है कि औरत, मेक-अप, श्रृंगार और साज-सज्जा द्वारा (केवल अपने पति को छोड़कर) किसी भी अन्य पुरुष के लिए आकर्षक तथा यौनोत्तेजक बनकर, चेहरा खोलकर घर से बाहर न निकले। यह उद्देश्य उस प्रकार के वस्त्र से भली-भांति पूरा हो जाता है जिसे ‘बुरक़अ’ या ‘निक़ाब’ या ‘हिजाब’ कहा जाता है। औरत के बालों में भी मर्दों के लिए यौनाकर्षण का होना सर्वविदित है इसलिए आदेश दिया गया कि चेहरा खोलना ज़रूरी हो जाए तो सिर के बाल अनिवार्यतः ढके रहने चाहिएं। अतः कुछ महिलाएं शरीर को ढककर चेहरा खुला रखती हैं तो सिर को दुपट्टा (जो पारदर्शी न हो) से, या ‘स्कार्फ़’ से ढकती अवश्य हैं।
Source: IslamDharma
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