इस्लाम में नारी
पश्चिमी विचारधारा ने आज के इन्सान को सबसे अधिक प्रभावित किया है। आज इसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। खान-पान, रहन-सहन, पोशाक और फैशन, यहाँ तक कि हमारी बोल-चाल को भी इसने प्रभावित किया है। स्त्री के बारे में भी पश्चिमी सोच ने सारी दुनिया को प्रभावित किया है। नारी-स्वतंत्रता का नारा दे कर वासना लोलुप पुरुषों ने हर मैदान में नारी का शोषण किया है। कहा गया कि स्त्री और पुरुष बराबर हैं इसलिए नैतिक पद और मानवीय अधिकारों ही नहीं सांस्कृतिक जीवन में भी नारी को वही सब करने का अधिकार हो जो पुरुष करते हैं और नैतिक बंधन भी पुरुष के समान ही हों। औरतों को भी खाने कमाने की वैसी ही आज़ादी हो जैसी पुरुषों को हो। स्त्री, पुरुष के समान अधिकार तभी पा सकेगी जब स्त्री-पुरुष बे-रोक टोक आपस में मिल सकेंगे।
बराबरी के इस भ्रामक विचार ने औरत के व्यंिव को तहस-नहस कर के रख दिया। प्रकृति ने उसे विशेष शारीरिक बनावट और भिन्न मानसिक एवं भावनात्मक अस्तित्व प्रदान कर के उसके ज़िम्मे जो काम सोंपे थे उन्हें उसने नज़र अन्दाज़ करना शुरू कर दिया।
दाम्पत्य जीवन के दायित्व, नई नस्ल को शरीर एवं आचार-विचार से परवान चढ़ाने की ज़िम्मेदारी, परिवार के सदस्यों की सेवा और उनके साथ आदर भाव, ये सब धीरे-धीरे नारी के जीवन से निकलने लगे। परिणाम स्वरूप परिवार, जो किसी भी समाज की इकाई होते हैं, बिखरने लगे। पश्चिमी समाज में विवाह जैसी महत्वपूर्ण संस्था अब महत्व हीन हो चुकी है।
और अब तो हमारे देश में भी ”लिव-इन रिलेशन शिप“ (बिना विवाह स्त्री-पुरुष का साथ रहना) जैसी घृणित प्रथा हमारे देश में भी चल पड़ी है। तथाकथित बराबरी का यह स्थान जो आधुनिक नारी ने प्राप्त किया है वह उसे कोई पुरुषों की महरबानी से या स्वाभाविक वैचारिक प्रगति के कारण नहीं मिला है बल्कि कई वर्षों के सतत संघर्ष और अनगिनत क़ुरबानियों के बाद मिला है और वह भी तब जब कि दो-दो विश्व युद्धों की त्रासदी झेलने के बाद यह महसूस किया गया कि अब औद्योगिक क्रांति के कारण हर क्षैत्र में पुरुष को नारी की सहायता की आवश्यकता है।
जबकि इस्लाम ने बिना मांगे ही नारी को क़ानूनन वे सब अधिकार दिये जिनके लिए पश्चिम की नारी ने इतना संघर्ष किया फिर भी उसे अधिकार इस शर्त पर मिले कि वह पुरुष के कामों में हिस्सा भी बंटाए, अपने हिस्से का काम भी करे और ख़ुशी-ख़ुशी उसके मनोरंजन का साधन भी बने।इस विध्वंसात्मक वैचारिक और सांस्कृतिक क्रांति ने मुस्लिम औरत पर भी हमला बोला है। आज फिर से इस बात की आवश्यकता है कि इस्लाम ने औरत को जो अधिकार दिये हैं उन्हें आम किया जाए। पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि इस्लाम हमारे रचयिता और पालनहार की ओर से इन्सान को दिया गया जीने का एक मात्र विधान है। यह कोई विचारधारा या मानवीय अनुभवों का परिणाम नहीं है।
स्पष्ट है कि हमें हमसे अधिक हमारा रचयिता ही जानता है, अतः उसी से यह अपेक्षा की जा सकती है कि हमारे जीने के लिए उपयुक्त विधान बनाए। हमारे पालनहार ने जो विधान दिया है उसमें उसने पुरुषों को भी अधिकार दिये हैं और स्त्रियों को भी। उसने हमें बताया कि-
‘पुरुष स्त्रियों पर क़व्वाम हैं उस प्रधानता के कारण जो अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर दे रखी है और इस कारण कि वे उन पर अपना माल ख़र्च करते हैं।’
(अन्निसा: 34)
लेकिन यह प्रधानता इसलिए नहीं है कि पुरुष औरतों पर अत्याचार करें, बल्कि यह इसलिए है कि पुरुष पर औरत के भरण पोषण का दायित्व रखा गया है और ताकि पारिवारिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाया जा सके।
आर्थिक अधिकार
सम्पत्ति का अधिकार:
इस्लाम के अनुसार स्त्री को यदि पिता, पति या निकट सम्बन्धियों से किसी भी प्रकार का धन मिलता है तो उसकी मालिक वह अकेली है और उसक उपभोग के पूरे अधिकार उसे प्राप्त हैं और इसमें दख़ल देने का अधिकार न तो पिता को है और न पति को।
विरासत में हिस्सा:
एक ज़माना तो वह था कि समाज में औरत को कोई अधिकार ही प्राप्त न थे और जब ज़ुल्म सहते सहते औरत ने बग़ावत का रास्ता अपनाया तो उसे पूरी तरह कमाने के लिए आज़ाद कर दिया और साथ ही उसे पिता की सम्पत्ति में से मर्द के बराबर हिस्सा दे दिया। लेकिन इस्लाम ने बीच का रास्ता अपनाया, उसे पिता की सम्पत्ति में से तो हिस्सा दिलाया ही साथ ही उसे पति, औलाद, और दूसरे निकट सम्बन्धियों की जायदाद में से भी हिस्सा दिलाया।
कमाने का अधिकार:
वह अपने पति की अनुमति से व्यापार भी कर सकती है ओर इससे उसे जो धन प्राप्त होगा उसे उसका पति भी उसकी अनुमति के बिना ख़र्च नहीं कर सकता। पत्नि चाहे कितनी ही मालदार हो, पति पर फिर भी उसके भरण-पोषण का दायित्व वैसा ही रहता है जैसा कि उसके निर्धन होने पर। औरत पर परिवार के भरण पोषण का कोई दायित्व इस्लाम नहीं डालता।
सामाजिक अधिकार
बेटी के रूप में जीने का अधिकारः
संसार के लगभग हर समाज में बेटी का पैदा होना शर्म की बात समझा जाता रहा है। अरब सहित कई देशों में बेटी को पैदा होते ही मार देने की प्रथा रही है। आज भी भारत के कुछ भागों में बेटी को पैदा होते ही मार दिया जाता है, और इसके लिए बाक़ायदा प्रशिक्षित दाइयाँ नियुक्त की जाती हैं। और अब तो यह घृणित काम और भी आसान हो गया है। अब तो बच्चा पैदा होने से पहले ही पता लगा लिया जाता है कि माँ के गर्भ में लड़का है या लड़की, और यदि लड़की हो तो उसे पैदा होने से पहले ही डाक्टर की मदद से मार दिया जाता है।
इस्लाम ने उसे जीने का अधिकार दिया।
”और जब ज़िन्दा गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा, बता तू किस अपराध के कारण मार दी गई?“
(क़ुरआन, 81:8-9)
यही नहीं क़ुरआन ने उन माता-पिता को भी डाँटा जो बेटी के पैदा होने पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं:
“और जब इनमें से किसी को बेटी की पैदाइष का समाचार सुनाया जाता है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह दुःखी हो उठता है। इस ‘बुरी’ ख़बर के कारण वह लोगों से अपना मुँह छिपाता फिरता है। (सोचता है) वह इसे अपमान सहने के लिए ज़िन्दा रखे या फिर जीवित दफ़्न कर दे? कैसे बुरे फैसले हैं जो ये लोग करते हैं।“
(क़ुरआन, 16:58-59)
इस्लाम के अनुसार यह माता-पिता का कत्र्तव्य है कि वे बेटी का पूरे न्याय एवं प्रेम भाव से उसी प्रकार लालन-पालन करें जैसा लड़के का करते हैं।
अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद सल्ल. ने कहा था:
“जो कोई दो बेटियों को प्रेम और न्याय के साथ पाले, यहाँ तक कि वे उसकी मोहताज न रहें तो वह व्यक्ति मेरे साथ स्वर्ग में इस प्रकार रहेगा (आप ने अपनी दो अंगुलियों को मिलाकर बताया)।“
शिक्षा का अधिकार
इस्लाम ने औरत को शिक्षा का अधिकार ही नहीं दिया बल्कि उसे अनिवार्य क़रार दिया। अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद सल्ल. ने कहा:
”शिक्षा प्राप्त करना हरेक मुस्लिम (पुरुष और स्त्री) का कत्र्तव्य है।“
पत्नि के रूप में:
इस्लाम में विवाह मात्र वासना की तृप्ति का साधन नहीं है बल्कि परस्पर शान्ति, प्रेम, संवेदना एवं करुणा पर आधारित है।
क़ुरआन कहता है:
“और यह उसकी निषानियों में से है कि उसने तुम्हीं से तुम्हारे जोड़े बनाए ताकि तुम उनसे संतुश्टि और षान्ति प्राप्त कर सको, और उसने तुम्हारे बीच परस्पर प्रेम और दया भाव पैदा कर दिया। निःसंदेह इसमें सोचने-समझने वालों के लिए निषानियाँ हैं।”
वर चुनने का अधिकारः
इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार दिया है कि वह किसी के विवाह प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। इस्लामी क़ानून के अनुसार किसी स्त्री का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना या उसकी मर्ज़ी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता।
भरण-पोषण का अधिकारः
इस्लाम ने पूरे परिवार के भरण-पोषण, सुरक्षा, नैतृत्व और आपसी सहयोग एवं विमर्श के साथ घर रूपी संस्था के संचालन का पूरा दायित्व पुरुष पर रखा है। स्त्री और पुरुष के अपने-अपने दायरे में रहते हुए अपने कत्र्तव्यों का निर्वाह करने तथा एक-दूसरे के पूरक होने का यह अर्थ नहीं है कि उनमें से कोई एक, दूसरे से कम दर्जे का है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने पुरुषों को आदेश दिया है कि वे अपनी पत्नियों के साथ भला व्यवहार करें:
”मैं तुम्हें स्त्रियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश देता हूँ“
और
”तुममें सबसे अच्छा वह है जो अपनी स्त्रियों के लिए सबसे अच्छा हो।“
क़ुरआन ने भी पत्नियों के प्रति दयालु और संवेदनशील रहने का निर्देश दिया है:
”और उनके साथ दयालुता का व्यवहार करो, क्योंकि यदि वे तुम्हें पसन्द न भी हों तो हो सकता है कि उनकी कोई एक बात तुम्हें नापसन्द हो और अल्लाह ने उनमें बहुत से अन्य गुण रख दिये हों।“
(क़ुरआन, 4:19)
माँ के रूप में, सम्मान का अधिकारः
क़ुरआन में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भला व्यवहार करने का आदेश दिया है:
”तुम्हारे स्वामी ने तुम्हें आदेष दिया है कि उसके सिवा किसी की पूजा न करो और अपने माता-पिता के साथ बेहतरीन व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों बुढ़ापे की उम्र में तुम्हारे पास रहें तो उनसे ‘उफ़’ तक न कहो बल्कि उनसे करुणा के षब्द कहो। उनसे दया के साथ पेष आओ और कहो ”ऐ हमारे पालनहार! उन पर दया कर, जैसे उन्होंने दया के साथ बचपन में मेरी परवरिष की थी।“
(क़ुरआन, 17:23-24)
इस्लाम ने माँ का स्थान पिता से भी ऊँचा क़रार दिया।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा:
”यदि तुम्हारे माता और पिता तुम्हें एक साथ पुकारें तो पहले माता की पुकार का जवाब दो।“
एक बार एक व्यक्ति ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से पूछा:
”हे ईशदूत, बताइये मुझ पर सबसे अधि अधिकार किस का है?“
उन्होंने जवाब दिया:
”तुम्हारी माँ का“,
व्यक्ति ने फिर पूछा:
”फिर किस का?“
उत्तर मिला:
”तुम्हारी माँ का“,
व्यक्ति ने फिर पूछा:
”फिर किस का?“
फिर उत्तर मिला:
”तुम्हारी माँ का“
तब उस व्यक्ति ने चैथी बार फिर पूछा:
”फिर किस का?“
उत्तर मिला:
”तुम्हारे पिता का।“
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इस्लाम ने नारी को न केवल समाज में वह स्थान प्रदान किया जो पश्चिमी समाज आज तक न दे पाया, बल्कि उसे वह मानवीय गरिमा भी प्रदान की जिसकी वह वास्तव में हक़दार थी।
Courtesy :
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Taqwa Islamic School
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