अल्लाह की रज़ा के लिए जो भी नेक काम किया जाए वह कभी बेकार नहीं जाएगा – मार्गरेट मार्कस (मरयम जमीला)
मोहतरमा मरयम जमीला न्यूयार्क (अमेरिका) के एक यहूदी परिवार में पैदा हुई। इस्लाम कबूल करने से पहले ही वे आम अमेरिकी व यहूदी औरतों से हटकर शिष्ट ढंग से जिन्दगी गुजार रही थीं। मुसलमान होने के बाद वे पाकिस्तान आ गयीं। उन्होंने इस्लाम पर अनेक पुस्तकों की रचनाएं की हैं। अब तक उनकी 30 से अधिक अधिक अंग्रेजी रचनाएं लोगों के सामने आ चुकी हैं।
मार्गरेट मार्कस उर्फ़ मरयम जमीला का जन्म 23 मई 1934 को न्यू रोशेल, न्यूयॉर्क में एक यहूदी परिवार में हुआ। घर का वातावरण धर्म निरपेछ था लेकिन 19 वर्ष की आयु में उनको धर्म के प्रति रूचि विकसित हुयी।
24 मई 1961 में, जब वह 27 साल की थी, न्यूयॉर्क में उन्होंने इस्लाम क़ुबूल किया। वह मुहम्मद मार्माडियूक पिकथॉल और मौलाना सैयद अबू आला मौदूदी से बहोत प्रभावित थीं।
30 अक्टूबर 2012 में 78 वर्ष की आयु में लम्बी बीमारी के बाद, पाकिस्तान के अस्पताल में उनका निधन हो गया।
इन नल्लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन
अल्लाह उनके सभी नेक कामों को क़ुबूल करे और जन्नतुल फिरदौस में आला मुक़ाम दे। आमीन।
पेश है उनकी इस्लाम में दाखिल होने की दास्तान, उन्ही की ज़ुबानी
अपने बारे में वे कहती हैं कि कुरआन से मेरा परिचय अजीब तरीके से हुआ। मैं बहुत छोटी थी जब मुझे संगीत से बहुत लगाव हो गया। बहुत से गीतों और क्लासिकल रिकार्ड बहुत देर-देर तक मेरे कानों को लोरियां देते रहते। मेरी उम्र लगभग 11 वर्ष की थी, जब एक दिन सिर्फ इत्तिफाक से मैंने रेडियो पर अरबी संगीत सुन लिया, जिसने दिल व दिमाग को खुशी के एक अजीब एहसास से भर दिया। नतीजा यह हुआ कि मैं खाली समय में बड़े शौक से अरबी संगीत सुनती, यहां तक कि एक समय आया कि मेरी अभिरुचि ही बदल गयी। मैं अपने पिता के साथ न्यूयार्क के सीरियाई दूतावास में गयी और अरबी संगीत के बहुत से रिकार्ड ले आयी।
उन्हीं में सूरह मरयम की चित्ताकर्ष तिलावत भी थी, जो उम्मे कुलसुम की निहायत सुरीली आवाज में रिकार्ड की गयी थी। हालांकि मैं उन गीतों को समझ नहीं सकती थी मगर अरबी जुबान की आवाजों और सुरों से मुझे बेहद मुहब्बत हो गयी थी। सूरह मरयम की तिलावत तो मेरे ऊपर जादू कर देती थी।
अरबी जुबान से इस गहरे लगाव ही का नतीजा था कि मैंने अरबों के बारे में किताबें पढऩी शुरू की। खास तौर से अरबों और यहूदियों के संबंध पर ढूंढ-ढूंढ कर किताबें हासिल की और यह देखकर बहुत हैरान हुई कि यद्यपि धारणा की दृष्टि से यहूदी और अरब एक दूसरे के बहुत करीब हैं मगर यहूदी इबादत खानों में फिलिस्तीनी अरबों के विरूद्ध बहुत जबरदस्त जहर उगला जाता है। साथ ही ईसाइयों के व्यवहार ने मुझे बहुत निराश किया।
मैंने ईसाइयत को गोरखधंधे के अलावा कुछ न पाया। चर्च ने बहुत-से अखलाकी, सियासी, आर्थिक और सभ्यतागत खराबियों का सिलसिला शुरू कर रखा था, इससे खास तौर से मैं परेशान हुई। मैंने यहूदी और ईसाई इबादतखानों को बहुत करीब से देखा और दोनों को मुनाफिकत (कपटाचार) और बुराई की दलदल में डूबे हुए पाया।
मैं यहूदी थी, इसलिए यहूदियत का अध्ययन करते हुए जब मैंने महसूस किया कि इस्लाम तारीखी एतबार से यहूदियत के बहुत करीब है तो फितरी तौर पर इस्लाम और अरबों के बारे में जानने का शौक पैदा हुआ। 1953 के गर्मी के मौसम में मैं बहुत ज्यादा बीमार पड़ गयी।
मैं बिस्तर पर लेटी थी जब एक शाम मेरी मां ने पब्लिक लाइब्रेरी जाते हुए मुझसे पूछा कि मैं कोई किताब तो नही मंगाना चाहती तो मैंने कुरआन के एक नुस्खे की फरमाइश की और वे आती हुई जार्ज सैल का अनुवादकिया हुआ कुरआन ले आयीं और इस तरह कुरआन से मेरे संबंध की शुरूआत हुई। जार्ज सैल 18वीं शताब्दी का ईसाई विद्वान और प्रचारक थे, मगर थे बहुत कट्टर धार्मिक और तंगनजर।
उनके अनुवाद की भाषा कठिन है और टिप्पणियों में अनावश्यक विषयों से हटकर हवाले दिये गये हैं, ताकि ईसाई दृष्टिकोण से उसे गलत साबित किया जा सके। एक बार तो मैं उन्हें बिल्कुल न समझ सकी मगर मैंने उसका अध्ययन करना न छोड़ा और उसे तीन दिन और रात बराबर पढ़ती रही यहां तक कि थक गयी।
उन्हीं दिनों किस्मत ने साथ दिया और पुस्तकों की एक दुकान पर मैंने मुहम्मद मार्माडियूक पिकथॉल का अनुवाद देखा। ज्यों ही मैंने उस कुरआन को खोला, मुझे एक जबरदस्त चीज मालूम हुई। जुबान का हुस्न और बयान की सादगी मुझे अपने साथ बहा ले गयी। भूमिका के पहले ही अनुच्छेद में अनुवादक ने बहुत खूबसूरत तरीके से स्पष्ट किया है कि यह कुरआनी अर्थों को जैसा कि आम मुसलमान इसे समझते हैं, अंग्रेजी भाषा में पेश करने की एक कोशिश है और जो शख्स कुरआन पर यकीन नहीं रखता उसके लिए अनुवाद का हक अदा नहीं कर सकता।
दुनिया में कोई भी अनुवाद अरबी कुरआन की जगह नहीं ले सकता आदि। मैं तुरन्त समझ गयी कि जार्ज सैल का अनुवाद नागवार क्यों था ?
अल्लाह तआला पिकथॉल को बहुत-सी रहमतों से नवाजे। उन्होंने ब्रिटेन और अमेरिका में कुरआन को समझना आसान बना दिया और मेरे सामने भी रोशनियों के दरवाजे खोल दिये। मैंने इस्लाम में हर वह अच्छी, सच्ची और हसीन चीज पाई जो जिन्दगी और मौत को मकसद देती है जबकि दूसरे धर्मों में हक मिटकर रह गया है, उसको टुकड़ों में बांट दिया गया है, उसके आस-पास कई तरह के घेरे खींच दिये गये हैं।
कुरआन और उसके बाद मुसलमानों की तारीख के अध्ययन से मुझे यकीन हो गया कि अरबों ने इस्लाम को महान नहीं बनाया बल्कि यह इस्लाम है जिसकी वजह से अरब दुनिया भर में कामयाब हुए। मेरी बीमारी बरसों तक रही, यहां तक कि 1959 ई. में पूरी तरह से स्वस्थ होकर मैंने अपना अधिक समय पब्लिक लाइब्रेरी न्यूयार्क में गुजाराना शुरू किया। यहीं पर मुझे पहली बार हदीस की मशहूर किताब मिशकातुल मसाहीब के अंग्रेजी अनुवाद की चार मोटी जिल्दों से परिचय हुआ। यह कलकत्ता के मौलाना फजलुर्रहमान की कोशिशों का नतीजा थी। तब मुझे अंदाजा हुआ कि हदीस के संबंधित हिस्सों से परिचय के बगैर कुरआन पाक को मुनासिब और विस्तृत ढंग से समझना मुमकिन नहीं।
जाहिर है पैगम्बर अलैहिस्सलाम जिन पर प्रकाशना होती थी, की रहनुमाई और व्याख्या के बगैर खुदा के कलाम को कैसे समझा जा सकता है। इसीलिए इस बात में कोई शक नहीं कि जो लोग हदीस को नहीं मानते, असल में वे कुरआन के भी इन्कार करने वाले हैं। मिशकात के विस्तृत अध्ययन के बाद मुझे इस हकीकत में कुछ भी शक न रहा कि कुरआन अल्लाह का उतारा हुआ है। इस बात ने इस चीज को मजबूती दी कि कुरआन अल्लाह तआला का कलाम है और यह हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दिमागी मेहनतों का नतीजा नहीं।
यह एक हकीकत है कि कुरआन जिन्दगी के बारे में तमाम बुनियादी सवालात का ऐसा ठोस और संतुष्ट करने वाला जवाब देता है जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। मेरे पिता ने एक बार मुझे बताया कि दुनिया में कोई पद हमेशा रहने वाला नहीं है, इसलिए हमें बदलते हुए हालात के साथ खुद को बदल लेना चाहिए, तो मेरे दिल ने उसे कबूल करने से इन्कार कर दिया और मेरी यह प्यास बढ़ती ही चली गयी कि मुझे वह चीज मिले जो हमेशा बाकी रहने वाली हो।
खुदा का शुक्र है कि जब मैंने कुरआन पाक को पढ़ा तो मेरी प्यास बुझ गयी और मुझे मेरी पसन्द की चीज मिल गयी। मुझे पता चल गया कि अल्लाह की खुशी के लिए जो भी नेक काम किया जाए वह कभी बेकार नहीं जाएगा और दुनिया में उसका कोई बदला न मिले, तो आखिरत में उसका पुरस्कार जरूर मिलेगा। इसके मुकाबिले में कुरआन ने बताया कि जो लोग किसी अखलाकी कानून के बगैर जिन्दगी गुजारते हैं और खुदा की खुशी को सामने नहीं रखते, दुनियावी जिन्दगी में चाहे वे कितने ही कामयाब हों मगर आखिरत में बहुत ही घाटे में रहेंगे।
इस्लाम की शिक्षा यह है कि हमें हर वह बेकार और बेफायदा काम छोड़ देना चाहिए, जो अल्लाह के हकों और बन्दों के हकों के रास्ते में रुकावट बनाता हो। कुरआन की इन शिक्षाओं को मेरे सामने हदीस और रसूले पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पवित्र जीवन ने और ज्यादा स्पष्ट और रोशन किया जैसा कि हजरत आइशा सिद्दीका (रजि.) ने एक बार फरमाया ”आप (सल्ल.) के अखलाक कुरआन के बिल्कुल मुताबिक थे। और वे कुरआनी शिक्षाओं का पूरे तौर से नमूना थे।”
मैंने देखा कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पवित्र जीवन का एक-एक पहलू मिसाली है। एक बच्चे की हैसियत से, एक बाप की हैसियत से, एक पड़ोसी, एक व्यापारी, एक प्रचारक, एक दोस्त, एक सिपाही और एक फौजी जनरल के एतबार से, एक विजेता, एक विधि-निर्माता, एक शासक और सबसे बढ़कर अल्लाह के एक सच्चे आशिक के लिहाज से वह खुदा की किताब कुरआन की हूबहू मिसाल थे।
फिर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दिनभर की मशगूलियात के बारे में जानकर मैं बहुत प्रभावित हुई। आप दिन का एक लम्हा भी बेकार न करते और आपका सारा समय अल्लाह और उसकी मानवजाति के लिए समर्पित था। उनका अपनी बीवियों से सुलूक निहायत न्याय वाला और मिसली था।
इन्साफ, न्याय और तकवा (अल्लाह से डरने) का यह हाल था कि उनकी प्यारी बेटी हजरत फातिमा (रजि.) ने जायज जरूरत के तहत एक गुलाम के लिए निवेदन किया तो उन्हें तकवा अपनाने को कहा और अपने घरवालों पर दूसरे मुसलमानों की जरूरतों को प्रधानता दी।
इस्लाम के पैगम्बर (सल्ल.) ने जिन्दगी का मकसद ऐशपसंदी नहीं बल्कि ‘कामयाबी’ करार दिया। आपकी शिक्षा के अनुसार जो शख्स आखिरत की कामयाबी के लिए संकल्प के साथ अल्लाह तआला की बन्दगी करता है, उसे जज्बाती सुकून के नतीजे में खुशी और प्रसन्नता खुद बखुद हासिल हो जाती है। इसका यह मतलब नहीं कि आप (सल्ल.) दुनियावी जिन्दगी से बिल्कुल अलग थे। आप रोजाना की जिन्दगी की जरूरियात का खास लिहाज करते थे, खुश मिजाज और खुश बयान थे, बच्चों के साथ खेल भी लेते थे, मगर असल तवज्जो के काबिल उन्होंने आखिरत ही की जिन्दगी को समझा और प्राकृतिक व रूहानी जिन्दगी में काफी संतुलन पैदा कर लिया।
अब मैंने फैसला कर लिया कि इस्लाम के प्रभाव अपनी जिन्दगी पर गालिब करूंगी। शुरू में मैंने अपने तौर पर न्यूयार्क के इस्लामी मर्कज में मुसलमानों से मुलाकात की राहें पैदा कर लीं और बड़ी खुशी हुई कि जिन लोगों से मेरा संबंध हुआ है, वे अच्छे लोग थे।
इस्लामी मर्कज की मस्जिद में मैंने मुसलमानों को नमाज पढ़ते हुए देखा और इस बात ने मेरे इस यकीन को मजबूत कर दिया कि सिर्फ इस्लाम ही पूरे तौर से आसमानी धर्म है, बाकी धर्मो में सिर्फ नाम की सच्चाई मौजूद है। अब मैं इस फैसले पर पहुंच गयी थी कि इस्लाम ही सच्चा धर्म है और इस्लाम ही में मौजूदा जमाने की बुराइयों का मुकाबला करने और उन पर विजयी होने की क्षमता मौजूद है। अतएव मैंने इस्लाम का अध्ययन करने के बाद इसे कबूल कर लिया।
इस्लाम कबूल करने से पहले मेरा मौलाना अबुल आला मौदूदी से काफी पत्राचार हुआ। इस्लाम कबूल करने के बाद मेरी मंजिल कराची थी, जहां मैं मौलाना मौदूदी की दावत पर गयी। जब मैं कराची पहुंची तो वहां मौलाना मौदूदी के चाहने वालों ने मुझे हाथों हाथ लिया और बेहद सेवा और आवभगत की। कुछ दिन बाद मैं जहाज के द्वारा लाहौर आ गयी और मौलाना के घर ठहरी। मैं मौलाना की बच्चियों की उम्र की थी इसलिए मुझे इस घर में कोई अजनबीपन का एहसास न हुआ।
कुछ दिनों के बाद मेरा निकाह जमाअत इस्लामी पाकिस्तान के एक मुख़लिस सदस्य मुहम्मद यूसुफ खां से हो गया। मैंने इस रिश्ते को खुशी के साथ कबूल कर लिया और यह फैसला कर लिया कि अज्ञानता की तमाम रस्मों का इन्कार और नबी (सल्ल.) के तरीके की पैरवी करना मेरी जिन्दगी का मकसद है। अल्लाह का शुक्र है कि मैं अपने नये घर में खुशी व सुकून के साथ जिन्दगी गुजार रही हूं।
आह……. एक नेक दाई, नेक मुस्लिमा हमारे बीच नहीं रहीं। हम उनकी क़ुर्बानियों, उनके कामों, और उनके लेखन को कभी भी भुला नहीं सकते।
अल्लाह उनके सभी नेक कामों को क़ुबूल करे और जन्नतुल फिरदौस में आला मुक़ाम दे। आमीन।
उनकी लिखी हुयी कुछ किताबों का नाम निम्नलिखित है –
- Islam and modernism
- Islam versus the west
- Islam in theory and practice
- Islam versus ahl al kitab past and present
- Ahmad khalil
- Islam and orientalism
- Western civilization condemned by itself
- Correspondence between maulana maudoodi and maryum jameelah
- Islam and western society
- A manifesto of the Islamic movement
- Is western civilization universal
- Who is Maudoodi ?
- Why I embraced Islam?
- Islam and the Muslim woman today
- Islam and social habits
- Islamic culture in theory and practice
- Three great Islamic movements in the Arab world of the recent past
- Shaikh hasan al banna and ikhwan al muslimun
- A great Islamic movement in turkey
- Two mujahidin of the recent past and their struggle for freedom against foreign rule
- The generation gap its causes and consequences
- Westernization versus Muslims
- Westernization and human welfare
- Modern technology and the dehumanization of man
- Islam and modern man
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