वीडियो : “जब मुझे सत्य का ज्ञान हुआ” – स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य
मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैने सबसे पहले पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नजरिए से जब मन की शुद्धता के साथ कुरआन मजीद शुरू से अन्त तक पढ़ा, तो मुझे कुरआन मजीद की आयतों का सही मतलब और मकसद समझ में आने लगा।
सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैने अपनी उक्त किताब “इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास” में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा हैं जिसका मुझे हार्दिक खेद हैं।
“मै अल्लाह से, पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूं तथा अज्ञानता मे लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। जनता से मेरी अपील हैं कि “इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास” पुस्तक में जो लिखा हैं उसे शून्य समझें………।” – स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य
कर्इ साल पहले दैनिक जागरण मे श्री बलराज मधोक का लेख “दंगे क्यों होते हैं?’’ पढ़ा था। इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण कुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फरमान बताए गए थे। लेख में मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फरमान बताए गए थें। लेख मे कुरआन मजीद की वे आयते भी दी गर्इ थी।
इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पैम्फलेट (पर्चा) “कुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं” किसी व्यक्ति ने मुझे दिया। इसे पढ़ने के बाद मेरे मन में जिज्ञासा हुर्इ कि मैं कुरआन पढूं। इस्लामी पुस्तकों की दुकान से कुरआन का हिन्दी अनुवाद मुझे मिला।
कुरआन मजीद के इस हिन्दी अनुवाद मे वे सभी आयतें मिली, जो पैम्फलेट मे लिखी थी। इससे मेरे मन में यह गलत धारणा बनी कि इतिहास में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुर्इ मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम हैं। दिमाग भ्रमित हो चुका था, इसलिए हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुड़ती दिखार्इ देने लगी।
इस्लाम, इतिहास और आज की घटनाओं को जोड़ते हुए मैने एक पुस्तक लिख डाली “इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास” जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘ The History Of Islamic Terrorism” के नाम से सुदर्शन प्रकाशन, सीता कुंज, लिबर्टी गार्डेन, रोड नम्बर-3, मलाड (पश्चिम), मुम्बर्इ-400064 से प्रकाशित हुआ।
हाल ही में मैने इस्लाम धर्म के विद्वानों (उलेमा) के बयानों को पढ़ा कि इस्लाम का आतंकवाद से कोर्इ सम्बन्ध नही हैं। इस्लाम प्रेम, सदभावना व भार्इचारे का धर्म हैं। किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम धर्म के विरूद्ध हैं। आतंकवाद के खिलाफ फतवा (धर्मादेश) भी जारी हुआ।
इसके बाद मैंने कुरआन मजीद में जिहाद के लिए आर्इ आयतों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम विद्वानों से सम्पर्क किया, जिन्होने मुझे बताया कि कुरआन मजीद की आयतों भिन्न-भिन्न तत्कालीन परिस्थितियों में उतरी। इसलिए कुरआन मजीद का केवल अनुवाद ही न देखकर यह भी देखा जाना जरूरी हैं कि कौन-सी आयत किस परिस्थिति में उतरी, तभी उसका सही मतलब और मकसद पता चल पाएगा।
साथ ही ध्यान देने योग्य हैं कि कुरआन इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) पर उतारा गया था। अत: कुरआन को सही मायने मे जानने के लिए पैगम्बर मुहम्मद(सल्ल0) की जीवनी से परिचित होना भी जरूरी हैं।
विद्वानों ने मुझसे कहा, ‘‘आपने कुरआन मजीद की जिन आयतों का हिन्दी अनुवाद अपनी किताब से लिया हैं, वे आयतें उन अत्याचारी काफिर और मुशरिक लोगो के लिए उतारी गर्इ जो अल्लाह के रसूल (सल्ल0) से लड़ार्इ करते और मुल्क में फसाद करने के लिए दौड़ते फिरते थे। सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालनेवाले ऐसे लोगो के विरूद्ध ही कुरआन में जिहाद का फरमान हैं।’’
उन्होने मुझसे कहा कि इस्लाम की सही जानकारी न होने के कारण लोग कुरआन मजीद की पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरे कुरआन मजीद के साथ हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी भी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते।
मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैने सबसे पहले पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नजरिए से जब मन की शुद्धता के साथ कुरआन मजीद शुरू से अन्त तक पढ़ा, तो मुझे कुरआन मजीद की आयतों का सही मतलब और मकसद समझ में आने लगा।
सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैने अपनी उक्त किताब ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास’ में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा हैं जिसका मुझे हार्दिक खेद हैं।
मै अल्लाह से, पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूं तथा अज्ञानता मे लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। जनता से मेरी अपील हैं कि ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास पुस्तक में जो लिखा हैं उसे शून्य समझें।
एक सुनियोजित साजिश:
शुरूआत कुछ इस तरह हुर्इ कि भारत सहित दुनिया मे यदि कहीं विस्फोट हुआ या किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की हत्या और उस उटना मे संयोगवश कोर्इ मुसलमान शामिल हुआ तो उसे इस्लामिक आतंकवाद कहा गया।
थोड़े ही समय में मीडिया सहित कुछ ताकतों ने अपने-अपने निजी फायदों के लिए इसे सुनियोजित तरीके से इस्लामिक आतंकवाद की परिभाषा में बदल दिया। सुनियोजित साजिश के अन्तर्गत किए गए इस प्रचार का परिणाम यह हुआ कि आज कही भी विस्फोट हो जाए तो उसे तुरन्त इस्लामी आतंवादी घटना मानकर ही चला जाता हैं।
इस माहौल में पूरी दुनिया में जनता के बीच मीडिया के माध्यम से और पश्चिमी दुनिया सहित कर्इ अलग-अलग देशों में, अलग-अलग भाषाओं में सैकड़ों किताबे लिख-लिखकर यह प्रचारित किया गया कि दुनिया में आतंकवाद की जड़ इस्लाम हैं।
इस दुष्प्रचार में यह प्रमाणित किया गया कि कुरआन में अल्लाह की आयतें मुसलमानों को आदेश देती हैं कि वे अन्य धर्म को माननेवाले काफिरों से लड़े, उनकी बेरहमी के साथ हत्या करें या उन्हे आतंकित कर जबरदस्ती मुसलमान बनाएं, उनके पूजास्थलों को नष्ट करें – यह जिहाद है और इस जिहाद करने वाले को अल्लाह जन्नत देगा। इस तरह योजनाबद्ध तरीके से इस्लाम को बदनाम करने के लिए उसे निर्दोषों की हत्या करानेवाला आतंकवादी धर्म घोषित कर दिया गया और जिहाद का मतलब आतंवाद बताया गया।
सच्चार्इ क्या हैं?
यह जानने के लिए हम वही तरीका अपनाएंगे जिस तरीके से हमे सच्चार्इ का ज्ञान हुआ था। मेरे शुद्ध मन से किए गए इस पवित्र प्रयास में यदि अनजाने में कोर्इ गलती हो गर्इ हो तो उसके लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे।
इस्लाम के बारे में कुछ भी प्रमाणित करने के लिए यहां हम तीन कसौटियों को लेंगे:
- कुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश,
- पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी,
- हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के कथन यानी हदीस
इन तीनों कसौटियों से अब हम देखते हैं कि:
- क्या वास्तव में इस्लाम निदोषों से लड़ने और उनकी हत्या करने व हिंसा फैलाने का आदेश देता हैं?
- क्या वास्तव में इस्लाम दूसरों के पूजाघरों को तोड़ने का आदेश देता हैं?
- क्या वास्तव में इस्लाम लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाने का आदेश देता हैं?
- क्या वास्तव में हमला करने, निर्दोषों की हत्या करने और आतंक फैलाने का नाम ही जिहाद हैं?
- क्या वास्तव मे इस्लाम एक आतंकवादी धर्म हैं?
सर्वप्रथम यह बताना आवश्यक हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) अल्लाह के अन्तिम पैगम्बर हैं। अल्लाह ने आसमान से कुरआन मुहम्मद (सल्ल0) पर ही उतारा। अल्लाह का पैगम्बर होने के बाद से जीवन-पर्यन्त 23 सालों तक आप (सल्ल0) ने जो किया, वह कुरआन के अनुसार ही किया।
दूसरों शब्दों में, हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के जीवन के ये 23 साल कुरआन या इस्लाम का व्यावहारिक रूप हैं। अत: कुरआन या इस्लाम को जानने का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की पवित्र जीवनी हैं, यह मेरा स्वंय का भी अनुभव हैं। पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी और कुरआन मजीद पढ़कर पाठक स्वंय निर्णय कर सकते हैं कि इस्लाम आतंक है या आदर्श!
इस्लाम और आतंक
अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिए इस्लाम की बुनियाद कुरआन की ओर चलते हैं।
इस्लाम, आतंक हैं या आदर्श?
यह जानने के लिए मैं कुरआन मजीद की कुछ आयते दे रहा हूं जिन्हे मैने मौलाना फतह मुहम्मद खां जालन्धरी द्वारा अनुवादित और महमूद एण्ड कम्पनी मरोल, पार्इप लाइन, मुम्बार्इ-59 से प्रकाशित कुरआन मजीद से लिया हैं।
पाठक इस बात को ध्यान में रखें कि कुरआन मजीद के अनुवाद में यदा-कदा (बड़े ब्रेकिट) शब्दों की व्याख्या के लिए लगाए गए हैं। ये ब्रेकिट लेखक की ओर से हैं।
यह बात ध्यान देने योग्य हैं कि कुरआन मजीद का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता हैं कि किसी भी आयत का भावार्थ जरा भी बदलने न पाए, क्योंकि किसी भी कीमत पर यह बदला नही जा सकता। इसी लिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन मजीद के किए अनुवाद का भाव एक ही रहता हैं। गैर-मुस्लिम भार्इ यदि इस अनुवाद के कठिन शब्दों को न समझ पाएं तो वे मधुर सन्देश संगम, र्इ-20, अबुल-फ़ज्ल इंक्लेव, जामिया नगर, नर्इ दिल्ली-25 द्वारा प्रकाशित और मौलाना मुहम्मद खां द्वारा अनुवादित पवित्र कुरआन का भी सहारा ले सकते हैं।
कुरआन की शुरूआत ‘बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्ररहीम’ से होती हैं, जिसका अर्थ हैं-’शुरू अल्लाह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु अत्यन्त दयालु हैं।’
ध्यान दें।
ऐसा अल्लाह, जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयालु हैं वह ऐसे फ़रमान कैसे जारी कर सकता हैं, जो किसी को कष्ट पहुंचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता हैं। कुरआन की आयतों से व पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी से पता चलाता हैं कि मुसलमानों को उन काफिरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे, अत्याचारी थे। यह लड़ार्इ अपने बचाव के लिए थी।
देखें कुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश :
“और (ऐ मुहम्मद उस वक्त को याद करो) जब काफिर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुमको कैद कर दें या जान से मार डालें या (वतन से) निकाल दे ंतो (इधर से) वे चाल चल रहे थे और (उधर) खुदा चाल रहा था और खुदा सबसे बेहतर चाल चलनेवाला हैं।” (कुरआन, सूरा-8, आयत -30)
‘‘ये वे लोग है कि अपने घरो से ना-हक निकाल दिए गए, (उन्होने कुछ कुसूर नही किया)। हां, ये कहते हैं कि हमारा परवरदिगार खुदा हैं और अगर खुदा लोगो को एक-दूसरो से न हटाता रहता तो (राहिबो के) पूजा-घर और (र्इसाइयों के) गिरजे और (यहूदियों की) और (मुसलमान की) मस्जिदें, जिनमें खुदा का बहुत-सा जिक्र किया जाता हैं, गिरार्इ जा चुकी होती। और जो शख्स खुदा की मदद करता करता हैं, खुदा उसकी जरूर मदद करता हैं। बेशक खुदा ताकतवाला और गालिब यानी प्रभुत्वशाली हैं।’’ (कुरआन, सूरा-22, आयत-40)
‘‘ये क्या कहते हैं कि इसने कुरआन खुद से बना लिया हैं? कह दो कि अगर सच्चे हो तो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओं और खुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो, बुला भी लो।’’ (कुरआन, सूरा-11, आयत-13)
‘‘(ऐ पैगम्बर !) काफिरों का शहरों मे (शानों-शौकत के साथ) चलना-फिरना तुम्हे धोखा न दें।’’ (कुरआन, सूरा-3, आयत-196)
‘‘जिन मुसलमानों से (खामखाह) लड़ार्इ की जाती है, उनको इजाजत हैं (कि वे भी लड़े), क्योकि उन पर जुल्म हो रहा हैं और खुदा (उन की मदद करेगा, वह) यकीनन उनकी मदद पर कुदरत रखता है।’’ (कुरआन, सूरा-22, आयत-39)
‘‘और उनको (यानी काफिर कुरैश को) जहां पाओं, कत्ल कर दो और जहां से उन्होने तुमको निकाला हैं (यानी मक्का से) वहां से तुम भी उनको निकाल दो।’’ (कुरआन,सूरा-2, आयत-191)
‘‘जो लोग खुदा और उसके रसूल से लड़ार्इ करें और मुल्क मे फसाद करने को दौड़ते फिरें, उनकी यह सजा हैं कि कत्ल कर दिए जाएं या सूली चढ़ा दिएं या उनके एक-एक तरफ के हाथ और एक-एक तरफ के पांव काट दिए जाएं। यह तो दुनिया में उनकी रूसवार्इ हैं और आखिरत (यानी कियामत के दिन) में उनकी रूसवार्इ हैं और आखिरत (यानी कियामत के दिन) में उनके लिए बड़ा (भारी) अजाब (तैयार) हैं।
हां, जिन लोगो ने इससे पहले कि तुम्हारे काबू आ जाएं, तौबा कर ली, तो जान रखो कि खुदा बख्शनेवाला, मेहरबान हैं। ‘‘ (कुरआन, सूरा-5, आयत-33, 34)
इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है कि कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुसलमान लोग गैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते है, जबकि इस्लाम मे कही भी निर्दोषों से लड़ने की इजाजत नही हैं, भले ही वे काफिर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यो न हों।
विशेष रूप से देखिए अल्लाह के ये आदेश:
‘‘जिन लोगों ने तुमसे दीन (धर्म) के बारे में जंग नही की और न तुम को तुम्हारे घरो से निकाला, उनके साथ भलार्इ और इंसाफ का सुलूक करने से खुदा तुमको मना नही करता। खुदा तो इंसाफ करनेवालों को दोस्त रखता हैं। ‘‘ (कुरआन, सूरा-60, आयत-8)
‘‘खुदा उन्ही लोगो के साथ तुमको दोस्ती करने से मना करता हैं, जिन्होने तुम से दीन के बारे मे लड़ार्इ की और तुमको तुम्हारे घरो से निकाला और तुम्हारी निकालने मे औरो की मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही जालिम हैं।’’ (कुरआन, सूरा-60, आयत-9)
इस्लाम मे दुश्मन के साथ भी ज्यादती करला मना है, देखिए:
‘‘और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी खुदा की राह मे उनसे लड़ो, मगर ज्यादती (अत्याचार) न करना कि खुदा ज्यादती करनेवालो को दोस्त नही रखता।’’(कुरआन, सूरा-2, आयत-190)
‘‘ये खुदा की आयते है, जो हम तुमको सेहत के साथ (यानी ठीक-ठीक) पढ़कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम (अर्थात् लोगो) पर जुल्म नही करना चाहता।’’ (कुरआन,सूरा-3, आयत-108)
इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शान्ति की स्थापना हैं, लड़ार्इ तो अन्तिम विकल्प हैं और यही तो आदर्श धर्म हैं, जो कुरआन की नीचे दी गर्इ इस आयत मे दिखार्इ देता हैं:
‘‘(ऐ पैग़म्बर)! कुफफार से कह दो कि अगर वे अपने फेलों (कर्मो) से बाज आ जाएं, तो जो हो चुका, वह उन्हे माफ कर दिया जाएगा और अगर फिर (वही हरकते) करने लगेंगे तो अगले लोगो का (जो) तरीका जारी हो चुका है (वही उनके हक में बरता जाएगा)।’’ (कुरआन, सूरा-8, आयत-38)
इस्लाम मे दुश्मनों के साथ भी सच्चा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता हैं। इसे नीचे दी गर्इ आयत मे ंदेखिए:
‘‘ ऐ र्इमानवालो! खुदा के लिए इंसाफ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगो की दुश्मनी तुमकों इस बात पर तैयार न करे कि इंसाफ छोड़ दो। इंसाफ किया करो कि यही परहेजगारी की बात हैं और खुदा से डरते रहो। कुछ शक नही कि खुदा तुम्हारे तमाम कामों से खबरदार हैं।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत-8)
इस्लाम मे किसी निर्दोष की हत्या की इजाजत नही हैं। ऐसा करनेवाले की एक ही सजा है, खून के बदले खून। लेकिन यह सजा केवल कातिल को ही मिलनी चाहिए और इसमें ज्यादती मना हैं। इसे ही तो कहते है सच्चा इंसाफ।
देखिए नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:
‘‘और जिस जानदार का मारना खुदा ने हराम किया हैं, उसे कत्ल न करना मगर जायज तौर पर (यानी शरीअत के फतवे (ओदश) के मुताबिक) और जो शख्स जुल्म से कत्ल किया जाए हमने उसके वारिस को इख्तियार दिया है (कि जालिम कातिल से बदला ले) तो उसको चाहिए कि कत्ल(के किसास) में ज्यादती न करे कि वह मंसूर व फतहयाब हैं।’’ (कुरआन,सूरा-17, आयत-33)
इस्लाम देश में हिंसा (फसाद) करने की इजाजत नही देता। देखिए अल्लाह का यह आदेश:
‘‘लोगो को उनकी चीजें कम न दिया करो और मुल्क में फसाद न करते फिरों।’’ (कुरआन,सूरा-26, आयत-183)
जलिमों को अल्लाह की चेतावनी:
‘‘जो लोग खुदा की आयतों (आदेशो) को नही मानते और नबियों (पैगम्बरों) को ना-हक कत्ल करते रहे हैं और जो इंसाफ करने का हुक्म देते हैं, उन्हे भी मार डालते हैं, उनको दु:ख देनेवाले अजाब की खुशखबरी सुना दों।’’ (कुरआन, सूरा-3, आयत-21)
सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरने वाले र्इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उसके प्रिय होंगें:
‘‘तो उनके परवरदिगार ने उनकी दुआ कबूल कर ली। (और फरमाया कि) मैं किसी अमल करनेवाले के अमल को, मर्द हो या औरत, जाया नही करता। तुम एक दूसरे की जिन्स हो, तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरो से निकाले गए और सताए गए और लड़े और कत्ल किए गए मैं उनके गुनाह दूर कर दूंगा और उनको बहिश्तों में दाखिल करूंगा, जिनके नीचे नहरे बह रही हैं। (यह) खुदा के यहां से बदला हैं और खुदा के यहां अच्छा बदला हैं।’’ (कुरआन,सूरा-3,आयत-195)
इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिखकर प्रचारित किया गया कि इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित मजहब है।मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनियाके अधिकांश मुसलमान, तलवार, के जोर पर ही मुसलमान बनाए गए थे, इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-जबरदस्ती से हुआ। जबकि इस्लाम में किसी को जोर-जबरदस्ती से मुसलमान बनाने की सख्त मनाही हैं……।
देखिए कुरआन मजीद में अल्लाह के ये आदेश:
‘‘और अगर तुम्हारा परवरदिगार (यानी अल्लाह) चाहता तो जितने लोग जमीन पर हैं, सबके सब र्इमान ले आते । तो क्या तुम लोगो पर जबरदस्ती करना चाहते हो कि वे मोमिन (यानी मुसलमान) हो जाएं।’’ (कुरआन,सूरा-10,आयत-99)
‘‘(ऐ पैगम्बर! इस्लाम के इन मुंकिरों (नास्तिको) से) कह दो कि ऐ काफिरों! जिन (बुतों) को तुम पूजते हो, उनको मैं नही पूजता और जिस (खुदा) की मैं इबादत करता हूं, उसकी तुम इबादत नही करते, और (मैं फिर कहता हूं कि) जिनकी तुम पूजा करते हो, उनकी मैं पूजा करने वाला नही हूं। और न तुम उसकी बन्दगी करनेवाले (मालूम होते) हो, जिसकी मैं बन्दगी करता हूं। तुम अपने दी (धर्म) पर, मैं अपने दीन पर।’’ (कुरआन, सूरा-109,आयत-1-6)
‘‘ऐ पैगम्बर!अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगे, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करनेवाले तो खुदा के फरमाबरदार (अर्थात आज्ञाकारी) हो चुके और अहले-किताब और अनपढ़ लोगो से कहो कि क्या तुम भी (खुदा के फरमाबरदार बनते और) इस्लाम लाते हो? अगर ये लोग इस्लाम ले आएं तो बेशक हिदायत पा ले और अगर (तुम्हारा कहा) न माने, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंुचा देना हैं। और खुदा (अपने) बन्दो को देख रहा हैं। (कुरआन, सूरा-3, आयत-20)
‘‘कह दो कि ऐ अहले-किताब! जो बात हमारे और तुम्हारे दर्मियान एक ही (मान ली गर्इ) हैं, उसकी तरफ आओं, वह यह कि खुदा के सिवा हम किसी की इबादत (पूजा) न करे और उसके साथ किसी चीज को शरीक (यानी साझी) न बनाएं और हममे से कोर्इ किसी को खुदा के सिवा अपना कारसाज न समझे। अगर ये लोग (इस बात को) न माने तो (उनसे) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम (खुदाके) फरमांबरदार हैं।” (कुरआन,सूरा-3,आयत 64)
इस्लाम मे जोर-जबरदस्ती से धर्म-परिवर्तन की मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़कर किसी भी प्रकार की जोर-जबरदस्ती की इजाजत नही है….।
देखिए अल्लाह का यह आदेश:
‘‘दीने-इस्लाम (इस्लाम धर्म) में जबरदस्ती नही हैं।’’ (कुरआन,सूरा-2,आयत-256)
जो बुरे काम करेगा और असत्य नीति अपनाएगा मरने के बाद आनेवाले जीवन मे उसका फल भोगेगा:
‘‘हां, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह (हर तरफ से) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोजख (में जाने) वाले हैं। (और) वे हमेशा उसमें (जलते) रहेंगे।’’ (कुरआन, सूरा-2,आयत-81)
निष्कर्ष:
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी व कुरआन मजीद की इन आयतों को देखने के बाद स्पष्ट हैं कि हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की करनी और कुरआन की कथनी मे कही भी आतंकवाद नही हैं।
इससे सिद्ध होता हैं कि इस्लाम की अधूरी जानकारी रखनेवाली ही अज्ञानता के कारण इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं….।
पैम्फलेट मे लिखी पहले क्रम की आयत हैं:
‘‘फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं, तो ‘मुशरिकों’ को जहां कही पाओ कत्ल करो, और पकड़ो, और उन्हे घेरो, और हर घात की जगह उनकी ताक मे बैठो। फिर यदि वे ‘तौबा’ कर ले, नमाज कायम करें और जकात दे, तो उनका मार्ग छोड़ दो। नि:सन्देह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला हैं। (कुरआन,सूरा-9,आयत-5)
इस आयत के संदर्भ में-जैसा कि हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी से स्पष्ट हैं कि मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफिर कुरैश, अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के पीछे पड़े हुए थे। वे मुहम्मद (सल्ल0) को और सत्य धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर सम्भव कोशिश करते रहते। काफिर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नही दिया। वे उनको सदैव सताते ही रहे। इसके लिए वे सदैव लड़ार्इ की साजिश रचते रहते।
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के हिजरत के छठवें साल जीकादा महीने में आप (सल्ल0) सैकड़ो मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए। लेकिन मुनाफिकों (यानी कपटाचारियों) ने इसकी खबर कुरैश को दे दी।
कुरैश पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) को घेरने का कोर्इ मौका हाथ से जाने न देते इस बार भी वे घात लगाकर रस्ते मे बैेठ गए। इसकी खबर मुहम्मद (सल्ल0) को लग गर्इ। आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुएं के पास पड़ाव डाला। कुए के नाम पर ही इस जगह का नाम हुदैबिया था।
जब कुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुंच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं, तो काफिरो ने कुछ लोगो को आपकी हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों के द्वारा पकड़ लिए गए और अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के सामने लाए गए। लेकिन आपने उन्हे गलती का एहसास कराकर माफ कर दिया।
इसके बाद हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने लड़ार्इ-झगड़ा, खून-खराबा टालने के लिए हज़रत उस्मान (रजि0) का कुरैश से बात करने के लिए भेजा। लेकिन कुरैश ने हज़रत उस्मान (रजि0) को कैद कर लिया। इधर हुदैबिया में पड़ाव डाले अल्लाह के रसूल (सल्ल0) को खबर लगी कि हज़रत उस्मान (रजि0) कत्ल कर दिए गए। यह सुनते ही मुसलमान हज़रत उस्मान (रजि0) के कत्ल का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगे।
जब कुरैश को पता चला कि मुसलमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित हैं तो उनसे बातचीत के लिए सुहैल-बिन-अम्र को हजरत मुहम्मद(सल्ल0) के पास हुदैबिया भेजा। सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान (रजि0) का कत्ल नही हुआ है, वे कुरैश की कैद मे हैं। सुहैल ने हज़रत उस्मान (रजि0) का कैद से आजाद करने व युद्ध टालने के लिए कुछ शर्ते पेश की।
पहली शर्त थी:
इस साल आप सब बिना उमरा (काबा-दर्शन) किए लौट जाएं। अगले साल आएं , लेकिन तीन दिन बाद चले जाएं।
दूसरी शर्ते थी:
हम कुरैश का कोर्इ आदमी मुसलमान बनकर यदि मदीना आए तो उसे हमे वापस किया जाए। लेकिन यदि कोर्इ मुसलमान मदीना छोड़कर मक्का मे आ जाए, तो हम वापस नही करेंगे।
तीसरी शर्त थी:
कोर्इ भी कबीला अपनी मर्जी से कुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता हैं।
समझौते मे चौथी शर्त थी:
इन शर्तो को मानने के बाद कुरैश और मुसलमान न एक-दूसरे पर हमला करेंगे और न ही एक-दूसरे के सहयोगी कबीलो पर हमला करेंगे। यह समझौता 10 साल के लिए हुआ, जो हुदैबिया समझौते के नाम से जाना जाता हैं।
हालांकि ये शर्ते एक तरफा और अन्यायपूर्ण थी, फिर भी शान्ति और सब्र के दूत मुहम्मद (सल्ल0) ने इन्हे स्वीकार कर लिया, ताकि शान्ति स्थापित हो सके।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक कबीले ने जो मक्का के कुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी कबीलो खुजाआ पर हमला कर दिया। इस हमले मे कुरैश ने बनू-बक्र कबीले का साथ दिया ।
खुजाआ कबीले के लोग भागकर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के पास पहुंचे और इस हमले की खबर दी। पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) ने शान्ति के लिए इनता झुककर समझौता किया था, इसके बाद भी कुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला।
अब युद्ध एक आवश्यकता थी, धोखा देने वालो को दण्डित करना शान्ति स्थापना के लिए जरूरी था। इसी जरूरत को देखते हुए अल्लाह की ओर से सूरा-9 की आयते अवतरित हुर्इ हुर्इ।
इनके अवतरित होने पर नबी सल्ल0 ने सूरा-9 की आयतें सुनाने के लिए हजरत अली (रजि0) को मुशरिकों के पास भेजा। हजरत अली (रजि0) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए कि मुसलमानों के लिए अल्लाह का फरमान आ चुका हैं, उनको सूरा-9 की ये आयते सुना दी:
‘‘(ऐ मुसलमानों! अब) खुदा और उसके रसूल की तरफ से मुशरिकों से, जिनसे तुमने अहद (समझौता) कर रखा था, बेजारी (और जंग की तैयारी) हैं। तो (मुशरिको! तुम) जमीन मे चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम खुदा को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि खुदा काफिरों को रूसवा करनेवाला हैं। और हज्जे-अक्बर के दिन खुदा और उसके रसूल की तरफ से लोगो को आगाह किया जाता है कि खुदा मुशरिकों से बेजार है और उसका रसूल भी (उनसे दस्तबरदार हैं)। पस अगर तुम तौबा कर लो, तो तुम्हारे हक में बेहतर हैं और न मानों (और खुदा से मुकाबला करो) तो जान रखो कि तुम खुदा को हरा नही सकोगे और (ऐ पैगम्बर!) काफिरो को दु:ख देनेवाले अजाब की खबर सुना दो।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयतें-1-3)
अली (रजि0) ने मुशरिकों से कह दिया कि ‘‘यह अल्लाह का फरमान हैं, अब समझौता टूट चुका हैं और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया हैं इसलिए अब इज्जत के चार महीने बीतने के बाद तुमसे जंग (यानी युद्ध) हैं।’’
समझौता तोड़कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक बनता था, वह भी मक्का के उन मुशरिकों के विरूद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थें। इसी लिए सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फरमान भेजा।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत हैं:
‘‘अलबत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुमने अहद किया हो, और उन्होने तुम्हारा किसी तरह का कुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुकाबले मे किसी की मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उनके साथ अहद किया हो, उसे पूरा करो (कि) खुदा परहेजगारों को दोस्त रखता हैं।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-4)
इससे स्पष्ट हैं कि जंग का यह एलान उन मुशरिको के विरूद्ध था जिन्होने युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरूद्ध नहीं जिन्होने ऐसा नही किया। युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था।
अत: अन्यायियों, अत्याचारियों द्वारा जबरदस्ती थोपे गए युद्ध से अपने बचाव के लिए किए जानेवाले किसी भी प्रकार के प्रयास को किसी भी तरह झगड़ा कराने वाला नहीं कहा जा सकता। अत्याचारीयों और अन्यायियों से अपनी व अपने धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्मसम्मत हैं।
इस पर्चे छापने और बॉटने वाले लोग क्या नही जानते कि अत्याचारियों और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। क्या यह उपदेश लड़ार्इ-झगड़ा करानेवाला या घृणा फैलाने वाला है?
यदि नही, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यो कहा जाता हैं?
फिर यह पूरी सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरूद्ध उतारी गर्इ, जो अल्लाह के रसूल के ही भार्इ-बन्धु कुरैश थे। फिर इसे आज के सन्दर्भ मे और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा हैं ?
क्या यह हिन्दुओं व अन्य गैर-मुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम का बदनाम करने की घृणित साजिश नही हैं?
पैम्फलेट मे लिखी दूसरे क्रम की आयत है:
‘‘ हे ‘र्इमान’ लानेवालो! ‘मुशरिक’ (मूर्तिपूजक) नापाक है।’’ (कुरआन,सूरा-9, आयत-28)
लगातार झगड़ा-फसाद, अन्याय-अत्याचार करनेवाले अन्यायी, अत्याचारी अपवित्र नही हैं तो और क्या है?
पैम्फलेट में लिखी तीसरे क्रम की आयत हैं:
‘‘नि:सन्देह ‘काफिर’ तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।’’ (कुरआन, सूरा-4, आयत-101)
वास्तव मे जान-बूझकर इस आयत का एक अंश ही दिया गया हैं। पूरी आयत ध्यान देकर पढ़े:
‘‘और जब तुम सफर को जाओ, तो तुम पर कुछ गुनाह नही कि नमाज को कम करके पढ़ो, बशर्ते कि तुम को डर हो कि काफिर लोग तुम को र्इजा (तकलीफ) देंगे। बेशक काफिर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।’’ कुरआन,सूरा-4, आयत-101)
इस पूरी आयत से स्पष्ट है कि मक्का व आस-पास के काफिर जो मुसलमानों को सदैव नुकसान पहुंचाना चाहते थे (देखिए हजरत मुहम्मद सल्ल0 की जीवनी), ऐसे दुश्मन काफिरों से सावधान रहने के लिए ही इस 101वीं आयत मे कहा गया हैं ‘‘कि नि:सन्देह ‘काफिर’ तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।’’
इससे अगली 102वीं आयत से यह और स्पष्ट हो जाता हैं जिसमें अल्लाह ने और सावधान रहने का फरमान दिया हैं कि:
‘‘और (ऐ पैगम्बर!) जब तुम उन (मुजाहिदों के लश्कर) में हो और उनको नमाज पढ़ाने लगो, तो चाहिए कि एक जमाअत तुम्हारे साथ हथियारों से लैस होकर खड़ी रहे, जब वे सज्दा कर चुके तो पूरे हो जाएं फिर दूसरी जमाअत, जिसने नमाज नही पड़ी (उनकी जगह आए और होशियार और हथियारों से लैस होकर) तुम्हारे साथ नमाज अदा करें। काफिर इस धात मे हैं कि तुम जरा अपने हथियारों और सामानों से गाफिल हो जाओं तो तुम पर एकबारगी हमला कर देंगे।” (कुरआन,सूरा-4, आयत-102)
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी व ऊपर लिखे तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों के लिए काफिरों से अपनी व अपने धर्म की रक्षा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। अत: इस आयत मे झगड़ा कराने, धृणा फैलाने या कपट करने जैसी कोर्इ बात नही हैं, जैसा कि पैम्फलेट मे लिखा गया हैं। जबकि जान-बूझकर कपटपूर्ण ढंग से आयत का मतलब बदलने के लिए आयत के केवल एक अंश को लिखकर और शेष को छिपाकर जनता को बरगलाने, घृणा फैलाने व झगड़ा कराने का कार्य तो वे लोग कर रहे हैं, इसे छापने व पूरे देश मे बांटने का कार्य कर रहे हैं। जनता ऐसे लोगो से सावधान रहे।
पैम्फलेट मे लिखी चौथे क्रम की आयत हैं:
‘‘हे ‘र्इमान’ लानेवालो! (मुसलमानो!) उन ‘काफिरो’ से लड़ो जो तुम्हारे आस-पास है, और चाहिए कि वे तुममे सख्ती पाएं।’’ (कुरआन,सूरा-9, आयत-123)
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी व ऊपर लिखे जा चुके तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों को काफिरो से अपनी व अपने धर्म की रक्षा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। इसलिए इस आत्मरक्षा वाली आयत को झगड़ा करानेवाली नही कहा जा सकता।
पैम्फलेट में लिखी पांचवे क्रम की आयत हैं:
‘‘जिन लोगो ने हमारी ‘आयतों’ का इन्कार किया, उन्हे हम जल्द अन्नि मे झोंक देंगे। जब उनकी खाले पक जाएंगी तो हम उन्हे दूसरी खालो से बदल देंगे, ताकि वे यातना का रसास्वादन कर ले। नि:सन्देह अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदश्र्ाी है।’’ (कुरआन, सूरा-4, आयत-56)
यह तो धर्म-विरूद्ध जाने पर दोजख (यानी नरक) में दिया जानेवाला दण्ड हैं। सभी धर्मो मे उस धर्म की मान्यताओं के अनुसार चलने पर स्वर्ग का अकल्पनीय सुख और विरूद्ध जाने पर नरक का भयानक दण्ड हैं ।
फिर कुरआन में बताए गए नरक (यानी दोजख) के दण्ड के लिए एतराज क्यों?
इस मामले में इन पर्चा छापने व बॉंटने वालो को हस्पक्षेप करने का क्या अधिकार हैं?
या फिर क्या लोगो को नरक मे मानवाधिकारों की चिन्ता सताने लगी हैं?
पैम्फलेट मे लिखी छठे क्रम की आयत हैं:
‘‘हे ‘र्इमान’ लानेवालो! (मुसलमानों!) अपने बापो और भार्इयों को अपना मित्र मत बनाओं, यदि वे ‘र्इमान’ की अपेक्षा ‘कुफ्र’ को पसन्द करें। और तुममें से जो कोर्इ उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग जालिम होंगे।’’ (कुरआन, सूरा-9,आयत-23)
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) जब एकेश्वरवाद का सन्देश दे रहे थे, तब कोर्इ व्यक्ति अल्लाह के रसूल (सल्ल0) द्वारा दिए जा रहे तौहीद (यानी एकेश्वरवाद) के पैगाम पर र्इमान (यानीविश्वास) लाकर मुसलमान बनता और फिर अपने मां-बाप, बहन-भार्इ के पास जाता, तो वे एकेश्वरवाद से उसका विश्वास खत्म कराके फिर से बहुर्इश्वरवादी बना देते। इस कारण एकेश्वरवाद की रक्षा के लिए अल्लाह ने यह आयत उतारी, जिससे एकेश्वाद के सत्य को दबाया न जा सके। अत: सत्य की रक्षा के लिए आर्इ इस आयत को झगड़ा करानेवाली या घृणा फैलानेवाली आयत कैसे कहा जा सकता हैं? जो ऐसा कहते हैं, वे अज्ञानी हैं।
पैम्फलेट में लिखी सातवे क्रम की आयत हैं:
‘‘अल्लाह ‘काफिर’ लोगो को मार्ग नही दिखाता।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-37)
आयत का मतलब बदलने के लिए इस आयत को भी जान-बूझकर पूरा नही दिया गया, इसलिए इसका सही मकसद समझ में नही आता।
इसे समझने के लिए हम आयत को पूरा दे रहे हैं:
‘‘अम्न के किसी महीने को हटाकर आगे-पीछे कर देना कुफ्र में बढ़ोत्तरी करता हैं। इससे काफिर गुमराही मे पड़े रहते है। एक साल तो उसको हलाल समझ लेते हैं और दूसरे साल हराम, ताकि अदब के महीनों की, जो खुदा ने मुकर्रर किये हैं, गिनती पूरी कर लें और जो खुदा ने मना किया हैं, उसको जायज कर लें। उनके बुरे अमल उनको भले दिखार्इ देते हैं और खुदा काफिर लोगो को हिदायत नही दिया करता।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-37)
अदब या अम्न (यानी शान्ति) के चार महीने होते हैं, वे हैं- जीकादा, जिलहिज्जा, मुहर्रम और रजब । इन चार महीनों में लड़ार्इ-झगड़ा नही किया जाता। काफिर कुरैश इन महीनो में से किसी महीने को अपनी जरूरत के हिसाब से जान -बूझकर आगे-पीछे कर लड़ार्इ-झगड़ा करने के लिए मान्यता का उल्लंघन किया करते थे। अनजाने मे भटके हुए को मार्ग दिखाया जा सकता हैं, लेकिन जान-बूझकर भटके हुए को मार्ग र्इश्वर भी नही दिखाता। इसी सन्दर्भ में यह आयत उतरी। इस आयत का लड़ार्इ-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से कोर्इ सम्बन्ध ही नही है।
पैम्फलेट मे लिखी आठवें क्रम की आयत हैं:
‘‘हे ‘र्इमान’ लानेवालों !…………..और ‘काफिरों’ को अपना मित्र मत बनाओं। अल्लाह से डरते रहो यदि तुम र्इमानवालों हो।” (कुरआन,सूरा-5,आयत-57)
यह आयत भी अधूरी दी गर्इ हैं। आयत के बीच का अंश जान-बूझकर छिपाने की शरारत की गर्इ हैं, पूरी आयत हैं:
‘‘ऐ र्इमान लानेवालो! जिन लोगो को तुमसे पहले किताबे दी गर्इ थी, उनको और काफिरो को जिन्होने तुम्हारे दीन (धर्म) को हंसी और खेल बना रखा हैं, दोस्त न बनाओं और मोमिन हो तो खुदा से डरते रहो।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत-57)
आयत को पढ़ने से साफ हैं कि काफिर कुरैश तथा उनके सहयोगी यहूदी और र्इसार्इ जो मुसलमानों के धर्म की हंसी उड़ाया करते थे, उनको दोस्त न बनाने के लिए यह आयत आर्इ। यह लड़ार्इ-झगड़ा के लिए उकसानेवाली या घृणा फैलानेवाली कहां से हैं?
इसके विपरीत पाठक स्वंय देखें कि पैम्फलेट में ‘जिन्होने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा हैं’ को जान-बूझकर छिपाकर उसका मतलब पूरी तरह बदल देने की साजिश करनेवाले क्या चाहते है?
पैम्फलेट में लिखी नौवें क्रम की आयत है।
‘‘फिटकारे हुए (गैर-मुस्लिम) जहां कही पाए जाएंगे, पकड़े जाएंगे और बुरी तरह कत्ल किए जाएंगे।’’(कुरआन,सूरा-33,आयत-61)
इस आयत का सही मतलब तभी पता चलता है जब इसे इसके पहलेवाली 60वीं आयत से जोड़ा जाए।
‘‘अगर मुनाफिक (यानी कपटाचारी) और वे लोग जिनके दिलों में मर्ज हैं और जो मदीना (के शहर) मे बुरी-बुरी खबरें उड़ाया करते हैं, (अपने किरदार से) रूकेंगे नही, तो हम तुमको उनके पीछे लगा देंगे, फिर वहां तुम्हारे पड़ोस में न रह सकेंगे, मगर थोड़े दिन। (वे भी फिटकारे हुए) जहॉ पाए गए, पकड़े गए और जान से मार डाले गए। (कुरआन, सूरा-33, आयते-60,61)
उस समय मदीना शहर जहां अल्लाह के रसूल (सल्ल0) का निवास था, कुरैश के हमले का सदैव अन्देशा रहता था। कुछ मुनाफिक (कपटाचारी) और यहूदी तथा र्इसार्इ जो मुसलमानों के पास भी आते और काफिर कुरैश से भी मिले रहते और अफवाहे उड़ाया करते थे। युद्ध जैसे माहौल में जहां हमले का सदैव अन्देशा हो, अफवाह उड़ाने वाले जासूस कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अन्दाजा किया जा सकता हैं । आज के कानून मे भी ऐसे लोगो की सजा मौत हो सकती हैं। वास्तव मे शान्ति की स्थापना के लिए उनको यही दण्ड उचित हैं। यह न्यायसंगत हैं। अत: इस आयत को झगड़ा करानेवाली कहना दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
पैम्फलेट में लिखी दसवें क्रम की आयत हैं:
‘‘(कहा जाएगा:) निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ‘जहन्नम’ का र्इधन हो। तुम अवश्यक उसके घाट उतरोगे। (कुरआन, सूरा-21, आयत-98)
इस्लाम एकेश्वरवादी मजहब हैं, जिसके अनुसार एक र्इश्वर ‘अल्लाह’ के अलावा किसी दूसरे को पूजना सबसे बड़ा पाप हैं। इस आयत मे इसी पाप के लिए अल्लाह मरने के बाद जहन्नम (यानी नरक) का दण्ड देगा।
पैम्फलेट मे लिखी पांचवे क्रम की आयत में हम इस विषय मे लिख चुके है। अत: इस आयत को भी झगड़ा करानेवाली आयत कहना न्यायसंगत नही हैं।
पैम्फलेट मे लिखी ग्यारहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘और उससे बढ़कर जालिम कौन होगा जिसे उसके ‘रब’ की ‘आयतों’ के द्वारा चेताया जाए, और फिर वह उनसे मुंह फेर ले। निश्चय ही हमे ऐसे अपराधियों से बदला लेना हैं।’’ (कुरआन, सूरा-32, आयत-22)
इस आयत में भी इसके पहले लिखी आयत की ही तरह अल्लाह उन लोगो को नरक का दण्ड देगा जो अल्लाह की आयतों को नही मानते। ये परलोक की बाते हैं, अत: इस आयत का सम्बन्ध इस लोक मे लड़ार्इ-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से जोड़ना शरारत पूर्ण हरकत हैं।
पैम्फलेट में लिखी बारहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘अल्लाह ने तुमसे बहुत-सी ‘गनीमतों’ (लूट) का वादा किया हैं जो तुम्हारे हाथ आएंगी।’’ (कुरआन, सूरा-48, आयत-20)
पहले मैं यह बता दूं कि गनीमत का अर्थ लूट नही बल्कि शत्रु की कब्जा की गर्इ सम्पत्ति होता हैं। उस समय मुसलमानों के अस्तित्व को मिटाने के लिए हमले होते यह हमले की तैयारी हो रही होती। काफिर और उनके सहयोगी यहूदी व र्इसार्इ धन से शक्तिशाली थे। ऐसे शक्तिशाली दुश्मनों से बचाव के लिए उनके विरूद्ध मुसलमानों का हौसला बढ़ाए रखने के लिए अल्लाह की ओर से वायदा हुआ।
यह युद्ध के नियमों के अनुसार जायज हैं। आज भी शत्रु की कब्जा की गर्इ सम्पत्ति, जो युद्ध के दौरान कब्जे में आती हैं, विजेता की होती हैं।
अत: इसे झगड़ा कराने वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
पैम्फलेट में लिखी तेरहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘तो जो कुछ ‘गनीमत’ (लूट) का माल तुमने हासिल किया हैं, उसे ‘हलाल’ व पाक समझकर खाओं।’’ (कुरआन,सूरा-8, आयत-69)
बारहवें क्रम की आयत में दिए हुए तर्क के अनुसार इस आयत का भी सम्बन्ध आत्मरक्षा के लिए किए जाने वाले युद्ध में मिली चल सम्पत्ति से हैं और युद्ध में हौसला बनाए रखने से हैं। इसे भी झगड़ा बढ़ानेवाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
पैम्फलेट में लिखी चौदहवें क्रम की आयत है:
‘‘हे नबी! ‘काफिरों’ और ‘मुनाफिको’ के साथ जिहाद करो, और उनपर सख्ती करो और उनका ठिकाना ‘जहन्नम’ हैं, और बुरी जगह हैं जहां पहुंचे।’’ (कुरआन,सूरा-66, आयत-9)
जैसा कि हम ऊपर बता चुके है कि काफिर कुरैश अन्यायी व अत्याचारी थें और मुनाफिक (यानी कपट करनेवाले कपटाचारी) मुसलमानों के हमदर्द बनकर आते, उनकी जासूसी करते हैं और काफिर कुरैश को सारी सूचना पहुंचाते तथा काफिरों के साथ मिलकर अल्लाह के रसूल (सल्ल0) की खिल्ली उड़ाते और मुसलमानों के खिलाफ साजिश रचते। ऐसे अधर्मियों की विरूद्ध लड़ना अधर्म को समाप्त कर धर्म की स्थापना करना हैं।
ऐसे ही अत्याचारी कौरवों के लिए योगेश्वर श्री कृष्णा ने कहा था:
अथ चेत् त्वमिमं धम्र्य संग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमपाप्स्यसि।।
(गीता:अध्याय 2, श्लोक-33)
‘‘हे अर्जुन! किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को न करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।’’
तस्मात्वमुतिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुड्क्ष्व राज्यं समृद्धम्। (गीता: अध्याय 11, श्लोक-33)
‘‘इसलिए तू उठ! शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर, यश प्राप्त कर, धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग।’’
पोस्टर या पैम्फलेट छापने व बॉटने वाले श्रीमद भगवद गीता के इस आदेश को क्या झगड़ा-लड़ार्इ करानेवाला कहेंगे?
यदि नही, तो इन्ही परिस्थितियों में आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए अत्याचारियों के विरूद्ध जिहाद (यानी आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए युद्ध) करने का फरमान देने वाली आयत को झगड़ा कराने वाली कैसे कह सकते हैं?
क्या यह अन्यायपूर्ण नीति नही हैं?
आखिर किस उद्देश्य से यह सब किया जा रहा हैं?
पैम्फलेट मे लिखी पंद्रहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘तो अवश्य हम ‘कुफ्र’ करने वालों को यातना का मजा चखाएंगे, और अवश्य ही हम उन्हे सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे।’’ (कुरआन, सूरा-41, आयत-27)
उस आयत को तो लिखा जिसमें अल्लाह काफिरों को दण्डित करेगा, लेकिन यह दण्ड क्यों मिलेगा?
इसकी वजह इस आयत के ठीक पहले वाली आयत (जिसकी यह पूरक आयत हैं) में हैं, उसे ये छिपा गए। अब इन दोनो आयतों को हम एक साथ दे रहे हैं।
पाठक स्वयं देखे कि इस्लाम को बदनाम करने की साजिश कैसे रची गर्इ हैं:
‘‘और काफिर कहने लगे कि इस कुरआन को सुना ही न करो और (जब पढ़ने लगे तो) शोर मचा दिया करो, ताकि तुम गालिब रहों। से हम भी काफिरों को सख्त अजाब के मजे चखाएंगे, और बुरे अमल की जो वे करते थे, सजा देंगे। (कुरआन, सूरा-41, आयते-26, 27)
अब यदि कोर्इ अपनी धार्मिक पुस्तक का पाठ करने लगे या नमाज पढ़ने लगे, तो उस समय बाधा पहुचाने के लिए शोर मचा देना क्या दुष्तापूर्ण कर्म नही हैं?
इस बुरे कर्म की सजा देने के लिए र्इश्वर कहता हैं, तो क्या वह झगड़ा कराता हैं?
मेरी समझ मे नही आ रहा कि पाप कर्मो का फल देनेवाली इस आयत में झगड़ा कराना कैसे दिखार्इ दिया ?
पैम्फलेट में लिखी सौलहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का (’जहन्नम’ की) आग। इसी मे उनका सदा घर हैं, इसके बदले कि हमारी ‘आयतों’ का इन्कार करते थे।’’ (कुरआन,सूरा-41, आयत-28)
यह आयत ऊपर पन्द्रवे क्रम की आयत की पूरक हैं जिसमें काफिरों को मरने के बाद नरक का दण्ड हैं, जो परलोक की बात है। इसका इस लोक में लड़ार्इ-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से कोर्इ सम्बन्ध नही हैं।
पैम्फलेट मे लिखी सतराहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘नि:सन्देह अल्लाह ने ‘र्इमान’वालों (मुसलमानों) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में खरीद लिया हैं कि उनके लिए ‘जन्नत’ हैं; वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते है तो मारते भी हैं और मारे भी जाते हैं।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-111)
गीता में हैं:
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ् कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:।।
(गीता: अध्याय-2, श्लोक-37)
‘‘या (तो तू युद्ध में) मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा (संग्राम में) जीतकर, पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इसलिए हे अर्जुन ! (तू) युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।’’
गीता का यह आदेश लड़ार्इ-झगड़ा बढ़ानेवाला नही हैं। यह अधर्म को बढ़ाने वाला भी नही हैं, क्योकि यह तो अन्याचारियों का विनाश कर धर्म की स्थापना के लिए किए जानेवाले युद्ध के लिए हैं।
इन्ही परिस्थितियों में अन्यायी, अत्याचारी मुशरिक-काफिरों को समाप्त करने के लिए ठीक वैसा ही अल्लाह (यानी परमेश्वर) का फरमान भी सत्य-धर्म की स्थापना के लिए हैं, आत्मरक्षा के लिए हैं।
फिर इसे ही झगड़ा करानेवाला क्यो कहा गया?
ऐसा कहने वाले क्या अन्यायपूर्ण नीति नहीं रखतें?
जनता को ऐसे लोगो से सावधान हो जाना चाहिए।
पैम्फलेट मे लिखी अठ्ठारहवें क्रम की आयत हैं:
‘‘अल्लाह ने इन मुनाफिक (अर्ध मुस्लिम) पुरूषों और मुनाफिक स्त्रियों और ‘काफिरों’ से ‘जहन्नम’ की आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे। यही उन्हे बस हैं। अल्लाह ने उन्हे लानत की और उनके लिए स्थायाी यातना हैं।’’ (कुरआन, सूरा-9,आयत-68)
सूरा-9 की इस 68वीं आयत के पहले वाली 67वीं आयत को पढ़ने के बाद इस आयत को पढ़े; पहले वाली 67वीं आयत हैं:
‘‘मुनाफिक मर्द और मुनाफिक औरतें एक दूसरे के हमजिन्स (यानी एक ही तरह के) हैं, कि बुरे काम करने को कहते और नेक कामों से मना करते और (खर्च करने से) हाथ बन्द किए रहते हैं, उन्होने खुदा को भुला दिया, तो खुदा ने भी उनको भुला दिया। बेशक मुनाफिक ना-फरमान हैं।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-67)
स्पष्ट है। मुनाफिक (कपटाचारी) मर्द और औरतें लोगो को अच्छे कामों से रोकते और बुरे काम करने को कहते हैं। अच्छे काम के लिए खोटा सिक्का भी न देते। खुदा (यानी परमेश्वर) को कभी याद न करते, उसकी अवज्ञा करते और खुराफात मे लगे रहते। ऐसे पापियों को मरने के बाद कियामत के दिन जहन्नम (यानी नरक) की सजा की चेतावनी देनेवाली अल्लाह की यह आयत बुरार्इ पर अच्छार्इ की जीत के लिए उतरी, न कि लड़ार्इ-झगड़ा कराने के लिए।
पैम्फलेट मे लिखी उन्नीसवीं क्रम आयत हैं:
‘‘हे नबी! ‘र्इमान’ वालों (मुसलमानों) को लड़ार्इ पर उभारों। यदि तुम में 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, और यदि तुममें 100 हों तो 1000 ‘काफिरो’ पर भारी रहेंगे, क्योकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ-बूझ नहीं रखतें।’’ (कुरआन,सूरा-8, आयत-65)
मक्का के अत्याचारी कुरैश व अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के बीत होने वाले युद्ध में कुरैश की संख्या अधिक होती और सत्य के रक्षक मुसलमानों की कम। ऐसी हालत में मुसलमानों का हौसला बढ़ाने व उन्हे युद्ध मे जमाए रखने के लिए अल्लाह की ओर से यह आयत उतरी। यह युद्ध अत्याचारी व आक्रमणकारी काफिरो से था, न कि सभी काफिरों या गैर-मुसमानों से। अत: यह आयत अन्य धर्मावलत्बियों से झगड़ा कराने का आदेश नही देती।
इसके प्रमाण में हम एक आयत दे रहे हैं:
‘‘जिन लोगों (यानी काफिरों) ने तुमसे दीन के बारे में जंग नही की और न तुमको तुम्हारे घरो से निकाला, उनके साथ भलार्इ और इंसाफ का सुलूक करने से खुदा तुमको मना नही करता। खुदा तो इंसाफ करनेवालो को दोस्त रखता हैं।’’ (कुरआन,सूरा-60, आयत-8)
पैम्फलेट में लिखी बीसवें क्रम की आयत है:
‘‘हे र्इमान लानेवालों (मुसलमानों) तुम ‘यहूदियों’ और र्इसार्इयों’ को मित्र न बनाओं। ये आपस मे एक दूसरे के मित्र हैं। और जो कोर्इ तुममें से उनको मित्र बनाएगा, वह उन्ही मे से होगा। नि:सन्देह अल्लाह जुल्म करनेवालों को मार्ग नही दिखाता।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत-51)
यहूदी और र्इसार्इ ऊपरी तौर पर मुसलमानों से दोस्ती की बात करते थे लेकिन पीठ पीछे कुरैश की मदद करते और कहते, मुहम्मद से लड़ो, हम तुम्हारे साथ हैं। उनकी इस चाल को नाकाम करने के लिए ही यह आयत उतरी जिसका उद्देश्य मुसलमानों को सावधान करना था, न कि झगड़ा कराना।
इसके प्रमाण मे कुरआन मजीद की यह आयत देखें:
‘‘खुदा उन्ही लोगों के साथ तुमको दोस्ती करने से मना करता हैं, जिन्होने तुमसे दीन के बारे मे लड़ार्इ की और तुमको तुम्हारे घरो से निकाला और तुम्हारे निकालने मे औरों की मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही जालिम हैं।’’ (कुरआन, सूरा-60, आयत-9)
पैम्फलेट मे लिखी इक्किसवें क्रम की आयत हैं:
‘‘किताबवाले जो न अल्लाह पर ‘र्इमान’ लाते हैं, न अन्तिम दिन पर, न उसे ‘हराम’ करते हैं जिसे अल्लाह और उसके ‘रसूल’ ने हमरा ठहराया है, और न सच्चे ‘दीन’ को अपना ‘दीन’ बनाते हैं, उनसे लड़ो यहां तक कि वे अप्रतिष्ठित (अपमानित) होकर अपने हाथों से ‘जिज़्ाया’ देने लगें।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-29)
इस्लाम के अनुसार तौरात, जूबूर (Old Testament), इंजील (NewTestament) और कुरआन मजीद अल्लाह की भेजी हुर्इ किताबे हैं, इसलिए इन किताबों पर अलग-अलग र्इमान लानेवाले क्रमश: यहूदी, र्इसार्इ और मुसलमान ‘किताब वाले’ या ‘अहले-किताब’ कहलाए। यहां इस आयत मे किताब वाले से मतलब यहूदियों और र्इसाइयों से हैं।
र्इश्वरीस पुस्तके रहस्यमयी होती हैं इसलिए इस आयत को पढ़ने के बाद ऐसा लगता हैं कि इसमें यहूदियों और र्इसार्इयों को जबरदस्ती मुसलमान बनाने के लिए लड़ार्इ का आदेश हैं। लेकिन वास्तव मे ऐसा नही हैं, क्योकि इस्लाम में किसी भी प्रकार की जबरदस्ती की इजाजत नही हैं।
कुरआन में अल्लाह मना करता है कि किसी को जबरदस्ती मुसलमान बनाया जाए। देखिए:
‘‘ऐ पैगम्बर! अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगे, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो खुदा के फरमाबरदार हो चुके और ‘अहले-किताब’ और अनपढ़ लोगो से कहो कि क्या तुम भी (खुदा के फरमाबरदार बनते और) इस्लाम लाते हो? अगर ये लोग इस्लाम ले आये ंतो बेशक हिदायत पा लें और अगर (तुम्हारा कहा) न माने, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंचा देना हैं। और खुदा (अपने) बन्दो को देख रहा हैं।’’ (कुरआन, सूरा-3, आयत-20)
‘‘और अगर तुम्हारा परवरदिगार (यानी अल्लाह) चाहता, तो जितने लोगजमीन पर हैं, सब के सब र्इमान ले आते, तो क्या तुम लोगो पर जबरदस्ती करना चाहते हो कि वे मोमिन (यानी मुसलमान) हो जाएं।’’ (कुरआन, सूरा-10, आयत-99)
इस्लाम के प्रचार-प्रसार मे किसी तरह की जोर-जबरदस्ती न करने की इन आयतों के बावजूद इस आयत में ‘किताबवालों’ से लड़ने का फरमान आने के कारण वही हैं, जो पैम्फलेट मे लिखी 8वें, 9वें, व 20 वें क्रम की आयतों के लिए मैने दिए हैं। आयत में जिज़्या नाम का टैक्स गैर-मुसलमानों से उनकी जान-माल की रक्षा के बदले लिया जाता था। इसके अलावा उन्हें कोर्इ टैक्स नही देना पड़ता था। जबकि मुसलमानों के लिए भी जकात देना जरूरी था। आज तो सरकार ने बात-बात पर टैक्स लगा रखा हैं।
पैम्फलेट मे लिखी बाइसवे क्रम की आयत हैं:
‘‘………………..फिर हमने उनके बीच ‘कियामत’ के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं।” (कुरआन,सूरा-5,आयत-14)
कपटपूर्ण उद्देश्य के लिए पैम्फलेट मे यह आयत भी जान-बूझकर अधूरी दी गर्इ हैं। पूरी आयत हैं:
‘‘और जो लोग (अपने को) कहते है कि हम नसारा (यानी र्इसार्इ) हैं, हमने उनसे भी अहद (यानी वचन) लिया था, मगर उन्होने भी उस नसीहत का, जो उनको की गर्इ थी एक हिस्सा भुला दिया, तो हमने उनके आपस में ‘कियामत’ तक के लिए दुश्मनी और कीना (द्वेष) डाल दिया, और जो कुछ वे करते रहे खुदा बहुत जल्द उनको उससे आगाह करेगा।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत-14)
पूरी आयत पढ़ने से स्पष्ट हैं कि वादा खिलाफी, चलाकी और फरेब के विरूद्ध यह आयत उतरी, न कि झगड़ा कराने के लिए।
पैम्फलेट में लिखी तेर्इसवें क्रम की आयत हैं:
‘‘वे चाहते है कि जिस तरह से वे ‘काफिर’ हुए हैं उसी तरह से तुम भी ‘काफिर’ हो जाओं, फिर तुम एक जैसे हो जाओं, तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और यदि वे इससे फिर जावे तो उन्हे जहां कही पाओं पकड़ो और उनका वध (कत्ल) करो। और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना।’’ (कुरआन, सूरा-4, आयत-89)
इस आयत को इसके पहले वाली 88वीं आयत के साथ मिलाकर पढ़ें, जो निम्न हैं:
‘‘तो क्या वजह हैं कि तुम मुनाफिकों के बारे में दो गिरोह (यानी दो भाग) हो रहे हो? हाल यह है कि खुदा ने उनके करतूतों की वजह से औंधा कर दिया हैं। क्या तुम चाहते हो कि जिस शख्स को खुदा ने गुमराह कर दिया हैं, उसको रास्ते पर ले आओ?’’ (कुरआन,सूरा-4,आयत-88)
स्पष्ट है कि इससे आगे वाली 89वीं आयत, जो पर्चे मे दी हैं, उन मुनाफिकों (यानी कपटाचारियो) के सन्दर्भ मे हैं, जो मुसलमानों के पास आकर कहते है कि हम ‘र्इमान’ ले आए और मुसलमान बन गए और मक्का में काफिरों के पास जाकर कहते कि हम अपने बाप-दादा के धर्म में ही हैं, बुतों को पूजने वाले।
हम तो मुसलमानों के बीच भेद लेनेजाते हैं, जिसे हम आप को बताते हैं। ये मुसलमानों के बीच बैठकर उन्हें अपने बाप-दादा के धर्म ‘बुत-पूजा’ पर वापस लौटने को भी कहते।
इसी लिए यह आयत उतरी कि इन कपटाचारियों को दोस्त न बनाना क्योकि ये दोस्त हैं ही नही, तथा इनकी सच्चार्इ की परीक्षा लेने के लिए इनसे कहो कि तुम भी मेरी तरह वतन छोड़कर हिजरत करो, अगर सच्चे हो तो। यदि न करें तो समझों कि ये नुकसान पहुंचाने वाले कपटाचारी जासूस हैं, जो काफिर दुश्मनों से अधिक खतरनाक हैं। उस समय युद्ध का माहौल था, युद्ध के दिनों में सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे जासूस बहुत ही खतरनाक हो सकते थे, जिनकी एक ही सजा हो सकती थी; मौत। उनकी सन्दिग्ध गतिविधियों के कारण ही मना किया गया हैं कि उन्हे न तों अपना साथी बनाओं और न ही मददगार, क्योकि ऐसा करने पर धोखा ही धोखा हैं।
यह आयत मुसलमानों की आत्मरक्षा के लिए उतरी, न कि झगड़ा कराने या घृणा फैलाने के लिए।
पैम्फलेट मे लिखी चौबीसवें क्रम की आयत है:
‘‘उन (काफिरों) से लड़ो! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा, और उन्हें रूसवा करेगा और उनके मुकाबले मे तुम्हारी सहायता करेगा, और ‘र्इमान’ वालों के दिल ठंडे करेगा।’’ (कुरआन, सूरा-9, आयत-14)
पैम्फलेट मे लिखी पहले क्रम की आयत में हम विस्तार से बता चुके हैं कि कैसे शान्ति का समझौता तोड़कर हमला करने वालों के विरूद्ध सूरा-9की ये आयतें उतरी। पैम्फलेट में 24 वें क्रम मे लिखी आयत इसी सूरा की हैं जिसमे समझौता तोड़ हमला करनेवाले अत्याचारियों से लड़ने और उन्हें दण्डित करने का अल्लाह का आदेश है जिससे झगड़ा-फसाद करनेवालों के हौसले पस्त हों और शान्ति की स्थापना हों।
इसे और स्पष्ट करने के लिए कुरआन मजीद की सूरा-9 की इस 14वीं आयत के पहले वाली दो आयते देखे:
‘‘और अगर अहद (यानी समझौता) करने के बाद अपनी कसमों को तोड़ डाले और तुम्हारे दीन में ताने करने लगें, तो उन कुफ्र के पेशवाओं से जंग करो, (ये बे-र्इमान लोग हैं और) इनकी कसमों का कुछ एतिबार नही है। अजाब नही कि (अपनी हरकतों से) बाज आ जाएं।’’ (कुरआन, सूरा-9, आयत-12)
‘‘भला तुम ऐसे लोगो से क्यों न लड़ो, जिन्होने अपनी कसमों को तोड़ डाला और (खुदा के ) पैगम्बर के निकालने का पक्का इरादा कर लिया और उन्होने तुमसे (किया गया अहद तोड़ना) शुरू किया। क्या तुम ऐसे लोगो से डरते हो, हालांकि डरने के लायक खुदा हैं, बशर्ते कि र्इमान रखते हो।’’(कुरआन, सूरा-9, आयत-13)
अत: शान्ति स्थापना के उद्देश्य से उतरी सूरा-9 की इन आयतों को शान्ति भंग करनेवाली या झगड़ा-फसाद कराने वाले या तो धूर्त हैं अथवा अज्ञानी।
निष्कर्ष:
40 वर्ष की उम्र मे हजरत (सल्ल0) को अल्लाह से सत्य का सन्देश मिलने के बाद से अन्तिम समय (यानी 23वर्षो) तक अत्याचारी काफिरों ने मुहम्मद (सल्ल0) को चैन से बैठने नही दिया। इस बीच लगातार युद्ध और साजिशों का माहौल रहा।
ऐसी परिस्थितियों में आत्मरक्षा के लिए दुश्मनों से सावधान रहना, माहौल गन्दा करनेवाले मुनाफिकरों (यानी कपटाचारियों) और अत्याचारियों का दमन करना या उन पर सख्ती करना या उन्हें दण्डित करना एक आवश्यकता ही नही, कर्तव्य था।
ऐसे दुष्टों, अत्याचारियों और कपटाचारियों के लिए ऋग्वेद में परमेश्वर का आदेश है:
मयाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर:।
विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर।।
(ऋग्वेद:मण्डल 1, सूक्त 11, मंत्र 7)
भावार्थ:
बुद्धिमान मनुष्यों को र्इश्वर आज्ञा देता है कि साम, दाम, दण्ड और भेद की युक्ति से दृष्ट और शत्रु जनों की निवृत्ति करके विद्या और चक्रवती राज्य की यथावत् उन्नति करनी चाहिए तथा जैसे इस संसार मे कपटी, छली और दुष्ट पुरूष वृद्धि को प्राप्त न हों, वैसा उपाय निरन्तर करना चाहिए। (हिन्दी भाष्य महर्षि दयानन्द)
लेखक : स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य
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