इस्लामी सज़ाएं—क्रूरता व निर्दयता?
‘‘इस्लामी सज़ाएं बड़ी क्रूर व निर्दयतापूर्ण हैं। वर्तमान सभ्यता में अंधकार काल की ऐसी सज़ाओं का क्या औचित्य कि हाथ काट दिया जाए, कोड़े लगाए जाएं, जान से मार दिया जाए! यह व्यक्तिगत मानव-अधिकार का हनन है।’’
इस्लामी शरीअत की सज़ाएं, संक्षेप में निम्नलिखित हैं, जिन्हें ‘क्रूर’ और ‘निर्दयतापूर्ण’ तथा ‘मानवाधिकार-हनन’ कहा जाता है :
1. चोरी की सज़ा ‘हाथ काट देना’।
2. व्यभिचार, बलात्कार की सज़ा ‘कोड़े मारना’ या ‘जान से मार डालना’, (जैसा अपराध हो उसी के अनुकूल)।
3. व्यभिचार (या बलात्कार) का आरोप (जिसे गवाहों द्वारा सिद्ध न किया जा सके) लगाने वाले को ‘कोड़े मारने’ की सज़ा।
4. हत्यारे को ‘हत्या-दंड’।
आज के समाज में जिसे स्वयं हम ही लोगों ने बनाया है न कि इस्लाम ने, और जो सेक्युलर (ईश्वर-विहीन) होने के कारण से नैतिकता व ईशपरायणता पर आधारित समाज नहीं बल्कि भौतिकता, स्वच्छंदता तथा अनैतिकता से बोझिल समाज है, उपरोक्त सज़ाएं सचमुच क्रूर और निर्दयतापूर्ण हैं। ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक व्यवस्था में उपरोक्त सख़्त सज़ाएं लागू ही नहीं हो सकतीं। इस्लाम तो पहले एक ईश-केन्द्रित (God-centred) और परलोक मुखी (Akhirah oriented) समाज और सामूहिक व्यवस्था, कल्चर, सभ्यता-संस्कृति बनाता है। उसमें चोरी, व्यभिचार, बलात्कार, हत्या, उपद्रव, डाका आदि के अवसरों की संभावना को शिक्षा-दीक्षा, नैतिक प्रशिक्षण, ईश-भय तथा परलोक में, हर कर्म के (ईश्वर के समक्ष) उत्तरदायित्व तथा अपराधों की अवश्यंभावी सज़ा के दृढ़ विश्वास द्वारा कम करते-करते न्यूनतम स्तर पर ले आता है, बल्कि कुछ मामलों में तो शून्य-स्तर पर। इसके बाद भी जब कोई व्यक्ति (नारी य पुरुष) अपराध करता है तो इस्लाम इससे यह निष्कर्ष निकालता है कि वह व्यक्ति समाज के शरीर का कैंसर और ज़हर है। उसे यदि समाज से समाप्त न कर दिया गया, या उसका ज़हर निकाल न दिया गया तो वह समाज के लिए घातक और समाज के नैतिक स्वास्थ्य के लिए अतिहानिकारक होगा। इस प्रकार इस्लाम एक या चन्द-एक ऐसे ‘कैंसरों’ से समाज-शरीर को मुक्त करने के लिए कठोरतम सज़ाओं का प्रावधान करता है।
चोरी की सज़ा:
इस्लामी राज्य सचमुच का ‘कल्याणकारी राज्य’ (Welfare state) होता है (न कि उन ‘सेक्युलर डिमॉक्रेटिक’ राज्यों की तरह जो स्वयं के ‘कल्याणकारी’ होने का दावा व प्रोपगंडा करते हैं लेकिन उन्हीं की छत्रा-छाया में लाखों-करोड़ों निर्धन, ग़रीब, दरिद्र तथा आजीविका संसाधन से वंचित लोग दो रोटी को तरस्ते, भूखों मरते, दवा-इलाज कराने में असमर्थ रहते, आत्महत्या तक कर लेते हैं)। इस्लामी (कल्याणकारी) राज्य में यह शासन का उत्तरदायित्व होता है कि अपने किसी भी नागरिक को मूलभूत आवश्यकताओं और आजीविका संसाधन से वंचित न रहने को यक़ीनी बनाए। इसके बाद भी यदि कोई व्यक्ति चोरी करे तो स्पष्ट है कि वह चोरी के लिए मजबूर नहीं था। तब इस्लाम उस पर अपना क़ानून लागू कर देता है; क़ुरआन कहता है:
‘‘और चोर, चाहे औरत हो या मर्द, दोनों के हाथ काट दो।’ यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद सज़ा…।’’ (5:38)
’(पहली चोरी पर दायां हाथ, दोबारा चोरी करे तो बायां हाथ। इस्लामी शरीअत में व्याख्या की गई है कि किन चीज़ों की (कितनी मात्रा की) चोरी पर यह सज़ा नहीं दी जाएगी।)
इस्लामी शासक (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के दूसरे उत्तराधिकारी हज़रत उमर (रज़ि॰) के शासनकाल (634-645 ई॰) में एक बार इतना भारी अकाल पड़ा कि देश और समाज की आर्थिक स्थिति असमान्य हो गई। एक व्यक्ति ने चोरी की। सिद्ध हो जाने पर कि उसने बहुत मजबूरी की हालत में चोरी की थी, हज़रत उमर (रज़ि॰) ने अस्थाई रूप से चोरी की सज़ा (हाथ काट देना) निलंबित (Suspend) कर दिया था।
सामान्य परिस्थितियों में, हाथ काटने की सज़ा देकर इस्लाम ने व्यक्ति को, समाज को बड़ी बेचैनी, बदअमनी से और प्रशासन व्यवस्था व न्याय व्यवस्था को अपराधों के भारी बोझ से बचा लिया।
व्यभिचार/बलात्कार की सज़ा:
इस्लाम ने अपनी परदा-प्रणाली द्वारा, और विपरीत लिंगों (Opposite sexes) के बेरोकटोक, अनियंत्रित, स्वच्छंद मेल-जोल पर अंकुश लगाकर व्यभिचार (ससहमति अवैध यौनाचार) तथा बलात्कर का प्रवेश-द्वार बन्द कर दिया। अब भी यदि कोई व्यक्ति (महिला या पुरुष) इस द्वार को तोड़ कर अपराध-गृह में घुस जाए तो इसका मतलब है कि वह मनुष्य नहीं, शैतान है। उसे कठोरतम सज़ा देकर समाज को ऐसी शैतनत तथा इसके अनेकानेक दुष्परिणामों और कुप्रभावों से बचाने का प्रावधान अवश्य करना चाहिए। अब इस्लाम उस पर अपना क़ानून लागू कर देता है। क़ुरआन कहता है—
‘‘व्यभिचारिणी औरत और व्यभिचारी मर्द दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो। और उन पर तरस खाने की भावना अल्लाह के धर्म के विषय में तुम को न सताए अगर तुम अल्लाह और अन्तिम दिन (परलोक में हिसाब-किताब और कर्मों के बदला मिलने के दिन) पर ईमान रखते हो। और उनको सज़ा देते समय ईमान वालों का एक गिरोह (वहां) मौजूद रहे।’* (24:2)
*(ताकि समाज में यदि कुछ बुरे तत्व हों तो वे डर जाएं और ऐसा कुकृत्य करने की हिम्मत न कर सकें।)
वर्तमान सेक्युलर क़ानून ससहमति व्यभिचार (Fornication) को क़ाबिले सज़ा क़ानूनी जुर्म नहीं मानता (बल्कि, अफ़सोस है कि इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ‘मानवाधिकार’ मानता है)। यह सोचा ही नहीं जाता कि ससहमति व्यभिचार, यहीं नहीं रुका रहता बल्कि अगले चरण, ‘बलात्कार’ में भी क़दम रखे बिना इसका पूर्ण समापन नहीं होता। इस्लाम ने यह मूर्खता नहीं की है। हां इतना ख़्याल अवश्य रखा है इन्सानी कमज़ोरी का कि शरीअत ने अविवाहित (एक या दोनों पक्षों) को अस्सी-अस्सी कोड़े मारने की; और विवाहित होकर भी व्यभिचार/बलात्कार करने वाले को ‘पत्थर मार-मारकर मार डालने’ की सज़ा नियुक्त की है। इससे व्यभिचार/बलात्कार के ‘न्यूनतम स्तर’ को ‘शून्य-स्तर (Zero level) पर ले आना अभीष्ट (Required) है।
व्यभिचार/बलात्कार के असिद्ध आरोप की सज़ा:
इस्लाम की दृष्टि में चरित्रा-हनन (Character Assassination) और किसी को अनुचित बदनाम करना (Defamation) बड़ा पाप है। विशेषतः शीलवान स्त्रियों/पुरुषों पर व्यभिचार/ बलात्कार का झूठा आरोप लगाना तो महापाप है और क़ानूनन अपराध भी। क़ुरआन कहता है:
‘‘और जो लोग पाकदामन (शीलवान) औरतों पर तोहमत (मिथ्यारोप) लगाएं, फिर चार गवाह लेकर न आएं उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो, और वे ख़ुद ही पापी हैं, सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधर जाएं; अल्लाह अवश्य (उनके प्रति) क्षमाशील और दयावान है।’’ (24:4,5)
(यदि किसी व्यभिचारी/बलात्कारी पर चार गवाह न हों तो क़ानून तो उसे/उन्हें सज़ा नहीं देगा। लेकिन उसका/उनका साफ़ छूट जाना यह अर्थ हरगिज़ नहीं रखता कि उनके इस अपराध की कोई सज़ा ही न थी। परलोक जीवन में, जिसमें कि यहां के पापों व अपराधों का पूरी सज़ा मिलनी, ईश्वर की न्याप्रदता का तक़ाज़ा है, व्यभिचारी या बलात्कारी को नरक की घोर, कठोर यातना मिलकर रहेगी)।
नाहक़ (अनुचित) हत्या की सज़ा:
सेक्युलर क़ानून-व्यवस्था में, ‘मानवाधिकार’ के तर्क पर (कुछ अति विशेष मामलों को छोड़कर साधारणतया) हत्या की सज़ा ‘मौत’ का प्रावधान नहीं रखा गया है। यह क़ानून प्रत्यक्ष तथा आश्चर्यजनक रूप से हत्यारे के प्रति बड़ी हद तक सहानुभूति और दयाशीलता का पक्षधर है और जिसकी हत्या हुई उसके परिजनों (माता-पिता, औलाद, पत्नी, परिवार आदि) की भावनाओं, उनकी मुसीबतों व समस्याओं, उनकी आर्थिक कठिनाइयों से निस्पृह (Indifferent)। हत्यारे का तो ‘मानवाधिकार’ प्रिय हो जाता है और प्रभावित परिवार का मानवाधिकार उसके घर के अन्दर एड़ियां रगड़-रगड़ कर बिलखता, तड़पता रहता है। हत्यारा कुछ समय बाद जेल से छूटकर मौज कर रहा होता है और पीड़ित परिवार रंज, ग़म, ग्लानि, पीड़ा, अनाथपन, विधवापन, और कुछ मामलों में आर्थिक तबाही, बरबादी, बेबसी आदि की मार खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। परिणामतः हज़ारों हत्याएं प्रतिवर्ष होती हैं। अदालतें ऐसे मुक़दमों के बोझ तले दबी कराह रही होती हैं। हत्या के प्रतिरोध में भी हत्याएं होती हैं। शत्रुता, अशान्ति से परिवार, घराने और समाज प्रदूषित होकर रह जाते हैं।
इस्लाम ऐसी परिस्थिति को न बर्दाश्त करता है न उत्पन्न होने देता है, न पनपने, फलने-पू$लने देता है। क़ुरआन कहता है:
‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो तुम्हारे लिए हत्या के मुक़दमों में क़िसास (बदले) का आदेश लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने हत्या की हो तो उस आज़ाद आदमी से ही बदला लिया जाए, ग़ुलाम हत्यारा हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए, और औरत ने हत्या की हो तो उस औरत से। हां, यदि किसी क़ातिल के साथ, उसका भाई (अर्थात् मृतक का कोई परिजन, जो इन्सानी रिश्ते से ‘भाई’ ही है) कुछ नरमी करने के लिए तैयार हो तो सामान्य नियम के अनुसार ख़ून के माली (रुपये-पैसे से) बदले का निपटारा होना चाहिए और क़ातिल के लिए आवश्यक है कि भले तरीवे़$ से ‘ख़ून-बहा’ (हत्या प्रतिदान राशि) चुका दे…अक़्ल और सूझबूझ वालो, तुम्हारे लिए ‘क़िसास’ में ज़िन्दगी है। आशा है कि तुम इस क़ानून के उल्लंघन से बचोगे।’’ (2:178,179)
क़ुरआन ने ‘क़त्ल की सज़ा क़त्ल’ (या हत्या-प्रतिदान-राशि) को ‘ज़िन्दगी’ कहा है क्योंकि इससे, आगे क़त्ल होने वाली बहुत-सी ज़िन्दगियां बच जाती हैं। अतः इसे ‘क्रूरता’ और ‘निर्दयता’ कहने का कोई औचित्य ही नहीं है।