‘सर्वधर्म समानता’—क्यों नहीं ?
सारे धर्म अच्छी शिक्षाएँ देते हैं। सब, एक ही शाश्वत शक्ति की बात करते हैं चाहे उसके नाम अलग ही हों; यानी—ईश्वर, ख़ुदा, अल्लाह, गॉड आदि। सारे धर्मों की मंज़िल एक ही है चाहे रास्ते अलग-अलग हों। इस तरह सारे धर्म ‘सत्य’ हैं, समान हैं। फिर इस्लाम, मात्र अपने को ही ‘सत्य धर्म’ क्यों कहता है? अनेकता में एकता का पक्षधर क्यों नहीं है?
उपरोक्त विचार, और उससे पैदा होने वाले प्रश्न ‘धर्म’ के विषय में गहरे और गंभीर चिंतन-मनन व अध्ययन की कमी, एवं उथली व जल्दबाज़ सोच के नतीजे में उत्पन्न हुए हैं। वर्तमान युग ऐसे ज्ञान-विज्ञान, बौद्धिकता और तर्व$, प्रमाण का युग है; किसी विषय के बिल्कुल अन्दर तक जाकर उसके सारे पहलुओं, पक्षों और आयामों को विचाराधीन लाने का युग है कि हर व्यक्ति किसी भी चीज़ के बारे में कोई राय बनाने, नीति अपनाने के लिए अपनी बुद्धि-विवेक और चिंतन-शक्ति का यथासंभव पूरा इस्तेमाल करता है। लेकिन बड़ी अजीब बात है कि धर्म (जैसे महत्वपूर्ण विषय) पर वह सामान्यतया बड़ी लापरवाही और अगंभीरता से काम लेता और इसी स्थिति में कोई राय बना लेता है। फिर उस राय पर जम जाता है, उसका प्रचार-प्रसार करने लगता है।
‘सर्व-धर्म समभाव’ की विचारधारा भी इसी शोच-शैली का परिणाम है। आगामी पंक्तियों में इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालते हुए इसकी वास्तविकता को समझने-समझाने का प्रयास किया गया है। इस प्रयास में इस प्रश्न का उत्तर भी सामने आ गया है कि इस्लाम, सिर्फ़ ख़ुद को ही ‘‘एकमात्र सत्य-धर्म’’ क्यों कहता है? इसके तर्क क्या हैं और जो तर्क वह प्रस्तुत करता है वह कितने स्वाभाविक व बुद्धिसंगत हैं।
● धर्म
धर्म मौलिक मानवीय मूल्यों (अच्छे गुणों) से आगे की चीज़ है। अच्छे गुण (उदाहरणतः नेकी, अच्छाई, सच बोलना, झूठ से बचना, दूसरों की सहायता करना, ज़रूरतमन्दों के काम आना, दुखियों के दुःख बाँट लेना, निर्धनों निर्बलों से सहयोग करना आदि) हर व्यक्ति की प्रकृति का अभाज्य अंग है चाहे वह व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी हो, या अधर्मी और नास्तिक। धर्म इन गुणों की शिक्षा तो देता है; इन्हें महत्व भी बहुत देता है तथा मनुष्यों और मानव-समाज में इनके प्रचलन, उन्नति व स्थापन पर पूरा ज़ोर भी देता है, परन्तु ये मानवीय गुण वह आधारशिला नहीं है जिन पर धर्म का भव्य भवन खड़ा होता है। इसलिए धर्म के बारे में कोई निर्णायक नीति निश्चित करते समय बात उस बिन्दु से शुरू होनी बुद्धिसंगत है जो धर्म का मूल तत्व है। यहाँ यह बात भी स्पष्ट रहनी आवश्यक है कि संसार में अनेक मान्यताएँ ऐसी हैं जो ‘धर्म’ के अंतर्गत नहीं ‘मत’ के अंतर्गत आती हैं। इन दोनों के बीच जो अंतर है वह यह है कि ‘धर्म’ में ईश्वर को केन्द्रीय स्थान प्राप्त है और ‘मत’ में या तो ईश्वर की सिरे से कोई परिकल्पना ही नहीं होती; या वह ईश्वर-उदासीन (Agnostic) होता है, या ईश्वर का इन्कारी होता है। फिर भी ‘धर्म’ के अनुयायियों में भी और ‘मत’ के अनुयायियों में भी सभी मौलिक मानवीय गुण और मूल्य (Human Values) पाए जाते हैं।
● धर्म क्या है?
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में ‘धर्म’ विचारणीय वही है जो ‘ईश-केन्द्रित’ (God Centric) हो। इस ‘धर्म’ में ‘ईश्वर पर विश्वास’ करते ही कुछ और तत्संबंधित बातों पर विश्वास अवश्यंभावी हो जाता है; जैसे: ईश्वर के, स्रष्टा, रचयिता, प्रभु, स्वामी, उपास्य, पूज्य होने पर विश्वास। इसके साथ ही उसके अनेक गुणों, शक्तियों व क्षमताओं पर भी विश्वास आप से आप अनिवार्य हो जाता है। यहाँ से बात और आगे बढ़ती है। यह जानने के लिए कि ईश्वर की वास्तविकता क्या है; वह हम से अपनी पूजा-उपासना क्या और कैसे कराना चाहता है; हमारे लिए, हमारे जीवन संबंधी उसके आदेश (Instructions), आज्ञाएँ (Injuctions), नियम (Rules), पद्धति (Procedures), आयाम (Dimensions), सीमाएँ (Limits), उसके आज्ञापालन के तरीक़े (Methods) आदि; अर्थात् हमारे और ईश्वर के बीच घनिष्ठ संबंध की व्यापक रूपरेखा क्या हो; हमें उसकी ओर से एक आदेश-पत्र की आवश्यकता है जिसे ‘ईशग्रंथ’ कहा जाता है। यहाँ से बात थोड़ी और आगे बढ़कर इस बात को अनिवार्य बना देती है कि फिर मनुष्य और ईश्वर के बीच कोई मानवीय आदर्श माध्यम भी हो (जिसे अलग-अलग भाषाओं में पैग़म्बर, नबी, रसूल, ऋषि, Prophet आदि कहा जाता है)। इसके साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि धर्म की ‘मूलधारणा’ क्या है उस मूलधारणा के अंतर्गत और कौन-कौन-सी, मौलिक स्तर की उपधारणाएँ आती हैं, तथा उस मूलधारणा और उसकी उपधारणाओं के मेल से वह कौन-सी परिधि बनती है जो धर्म की सीमाओं को निश्चित व निर्धारित करती है जिसके अन्दर रहकर मनुष्य ‘धर्म का अनुयायी’ रहता है तथा जिसका उल्लंघन करके ‘धर्म से बाहर’ चला जाता, विधर्मी हो जाता है। धर्म यदि वास्तव में ‘धर्म’ है, सत्य धर्म है, शाश्वत धर्म है, सर्वमान्य है, सर्वस्वीकार्य है तथा उसकी सुनिश्चित रूपरेखा व सीमा है तब उसे उस मानवजाति का धर्म होने का अधिकार प्राप्त होता है जो मात्र एक प्राणी, एक जीव ही नहीं, सृष्टि का श्रेष्ठतम अस्तित्व भी है।
● क्या सारे धर्म समान हैं?
इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले कुछ महत्वपूर्ण बातों का, विचाराधीन आना आवश्यक है: जब ईश्वर मात्र ‘एक’ है; हर जीव-निर्जीव की संरचना उस ‘एक’ ही ईश्वर ने की है, विशेषतः ‘मनुष्यों’ का रचयिता वही ‘एक’ ईश्वर है; यह सृष्टि और ब्रह्माण्ड (जिसका, मनुष्य एक भाग है) उसी ‘एक’ ईश्वर की शक्ति-सत्ता के अधीन है; मनुष्यों की शारीरिक संरचना ‘एक’ जैसी है; वायुमंडल ‘एक’ है; बुराई, बदी की परिकल्पना भी सारे मनुष्यों में ‘एक’ है, और अच्छाई की परिकल्पना भी ‘एक’; सत्य ‘एक’ है जो नैसर्गिक व अपरिवर्तनशील है…..तो फिर धर्म ‘अनेक’ क्यों हों? जब संसार और सृष्टि की बड़ी-बड़ी हक़ीक़तें, जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध मनुष्य से है, ‘एक’ ही ‘एक’ हैं तो फिर मनुष्यों के लिए धर्म का ‘अनेक’ होना न तार्किक है न बुद्धिसंगत। मस्तिष्क और चेतना इस ‘अनेकता’ को स्वीकार नहीं करती।
● इस्लाम की विचारधारा:
इस्लाम इस उलझन को सहज रूप से सुलझा देता है। इस विचारधारा के अनुसार धर्म (अनेक नहीं) एक, मात्रा ‘एक ही’ है। धर्म ‘नैसर्गिक व शाश्वत सत्य’ है। यह ‘एक’ ही है, ‘एक’ ही था, ‘एक’ ही रहेगा। इसे विभिन्न युगों में, विभिन्न भाषाओं में अनेक शब्दों में अनेक नामों से जाना गया हो, यह तो तर्व$संगत है लेकिन शब्द अनेक प्रयुक्त होने से धर्म ‘अनेक’ नहीं हो जाते। जो सत्य है वह धर्म है, जो धर्म है वह सत्य है। ‘सत्य’ में विरोधाभास व विषमता संभव नहीं अतः जिसमें विरोधाभास हो व न सत्य है न सत्य धर्म। और यदि धर्म, बहुत सारे बन गए या बना लिए गए हों और सभों की मूलधारणाओं एवं मूलभूत मान्यताओं व अवधारणाओं में बड़ा अंतर हो, उनमें बड़े-बड़े विरोधाभास (Contradictions) हों तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि वे सारे, सच्चे और एक समान हों।
इस बात को अधिक स्पष्ट रूप से समझने में, वस्तुस्थिति पर एक तथ्यपरक (Objective) दृष्टि डालनी सहायक होगी:
● ‘धर्म’ और ‘धर्मों’ की परिकल्पनाएँ परस्पर प्रतिकूल हैं
‘धर्म’ का, ‘धर्मों’ का रूप ले लेना ही धर्मों में विषमता को अवश्यंभावी (Inevitable) कर देता है। ये विषमताएँ जब मूलभूत धारणाओं, सिद्धांतों, मान्यताओं, नियमों और शिक्षाओं में प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से अवलोकित होने और समाज पर गहरा असर डालने लगें तो समाज में भिन्नता की ऐसी मज़बूत बुनियादें पड़ जाती हैं कि ‘सारे धर्म समान हैं’, एक ‘मात्र नारा’ तो बन सकता है, यह व्यावहारिकता का स्वरूप धारण नहीं कर सकता।
ऐसी कुछ मुख्य विषमताएँ यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं:
● धर्मों में विषमताएँ (Contradictions):
● कोई धर्म यह कहे कि पूज्य, उपास्य केवल ‘एक ईश्वर’ है और दूसरा धर्म कहे कि नहीं, दो उपास्य और भी हैं।
● पूज्य-उपास्य होने में ‘एक’ और ‘तीन’ तक ही बात सीमित न रह जाए बल्कि कोई तीसरा धर्म कहे कि पूज्य-उपास्य तो सैकड़ों, हज़ारों, लाखों, करोड़ों हैं।
● एक धर्म कहे कि ईश्वर न किसी की संतान है न उसके कोई संतान है। दूसरा धर्म कहे कि ईश्वर के एक ‘बेटा’ भी है। बेटा होने के नाते वह ईश्वरत्व में ईश्वर का साझी-शरीक है जबकि पहला धर्म कहे कि ईश्वर के ईश्वरत्व में कोई साझी-शरीक है ही नहीं।
● एक धर्म कहे कि ईशपरायण जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति मरने के बाद स्वर्ग में जाएगा और विपरीत चरित्र का आदमी नरक में। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, अमुक शख़्सियत को ‘ईश्वर का पुत्र’ मान लेने से ही आदमी स्वर्ग में चला जाएगा चाहे उसने कितने ही पाप, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार किए हों।
● एक धर्म कहे कि ‘पूज्य’ केवल ईश्वर है, उसके अतिरिक्त और कोई नहीं, कदापि नहीं। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, माता-पिता भी पूज्य हैं, गुरु भी पूज्य, पशु भी पूज्य, नदी, पहाड़, वृक्ष, साँप भी पूज्य, और ऋषि, मुनि, महापुरुष, धर्माचार्य…सारे पूज्य हैं।
● एक धर्म कहे कि पुरुष किसी पराई स्त्री (जो पत्नी न हो) के शरीर को भी (यौन-वासना से) स्पर्ष करे तो वह परलोक में नरक की यातना व प्रताड़ना झेलेगा। दूसरा धर्म कहे कि दम्पत्ति को पुत्र न होता हो तो पति अपनी पत्नी को किसी दूसरे पुरुष के पास भेज सकता है जिससे उसकी पत्नी ‘गर्भधारण’ तक संभोग (‘नियोग’) करे। इसे सामाजिक व नैतिक मान्यता भी प्राप्त होगी।
● एक धर्म शराब, जुआ को अवैध व वर्जित करे; दूसरे धर्मों में जुआ, शराब वैध हों।
● एक धर्म कहे कि ईश्वर निराकार है। वह कभी भी, किसी कारण भी, किसी उद्देश्य से भी किसी भी प्रकार का आकार व शरीर धारण नहीं करता; मनुष्यों को मार्गदर्शन के लिए वह मनुष्यों में से ही किसी उचित व्यक्ति को चुन कर और उनके मार्गदर्शन के लिए माध्यम-स्वरूप उसे अपना सन्देष्टा, दूत (पैग़म्बर, रसूल, नबी) नियुक्त करता रहा है। दूसरा धर्म कहे कि वह सन्देष्टा, दूत, महापुरुष (ऋषि), साकार रूप में ‘स्वयं ईश्वर’ होता है जो मानव शरीर धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होता रहा है। इसके अलावा अनेक अन्य जीवधारियों का शरीर धारण करके भी अवतरित होता रहा है।
● एक धर्म कहे कि मृत्यु-पश्चात् स्वर्ग नरक भी है और पुनर्जन्म व आवागमन भी (जबकि दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी भी हों), और दूसरा धर्म कहे कि नहीं, मृत्यु के पश्चात् (पुनर्जन्म नहीं) केवल पुनरुज्जीवन होगा। परलोक में यह ‘पुनःजीवन’ या तो स्वर्ग में बीतेगा या नरक में।
● एक धर्म कहे कि सारे मनुष्य, मनुष्य की हैसियत में बराबर हैं, उनमें कोई भी जन्मजात ऊँचा-नीचा, श्रेष्ठ-तुच्छ नहीं। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, मनुष्यों में जन्मजात (नस्ली) ऊँच-नीच है, यह कभी समाप्त नहीं होता।
● एक धर्म कहे कि उसका मूलग्रंथ शुद्ध एवं पूर्णरूपेण ईश्वरीय ग्रंथ है, दूसरा धर्म कहे कि उसका ग्रंथ मानव-कृत, मानवीय हस्तक्षेप और संशोधन-परिवर्तन से रहित नहीं है फिर भी वह ‘ईश-वाणी’, ईशग्रंथ ही है। तीसरा धर्म कहे कि उसके ग्रंथ के ईशग्रंथ होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। कौन-सा/कौन से ग्रंथ धर्म के मूलग्रंथ हैं यह भी सर्वमान्य रूप से निश्चित नहीं। और वस्तुस्थिति यह हो कि सभों में परस्पर भी विरोधाभास है और उनमें से प्रमुख ग्रंथों में आंतरिक विरोधाभास भी।
● समीक्षा
उपरोक्त सूची काफ़ी दीर्घ हो सकती है। लेकिन संक्षिप्त सूची से भी यह तथ्य तो स्पष्ट और निश्चित रूप से सामने आ जाता है कि इतनी विषमताओं, अन्तर, मतभेद और विरोधाभास के होते हुए सारे धर्म न एक समान हो सकते हैं, न सत्य धर्म हो सकते हैं, न एक ही मंज़िल (Destination) पर अपने अनुयायिकों को पहुँचा सकते हैं। इनमें से सिर्फ़ कोई एक ही, ‘सत्य-धर्म’ है।
● सत्य-धर्म की खोज
एक बड़े असमंजस्य से उबरने, एक बड़ी उलझन के सुलझने के बाद मनुष्य के सामने केवल एक विकल्प रह जाता है: इस बात की खोज, कि ‘सत्य-धर्म’ फिर है कौन-सा?
लेकिन इस खोज का आधार क्या हो जो हर मानव-आत्मा के लिए संतोषजनक हो! इसका एक आधार है जो बुद्धि-विवेक को संतुष्ट भी करता है:
विश्व में चार प्रमुख धर्म प्रचलित हैं। यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, सनातन धर्म और इस्लाम धर्म। इन सब के अपने-अपने धर्मग्रंथ और धर्मशास्त्र हैं। इनमें से प्रत्येक की वे धारणाएं, अवधारणाएँ, मान्यताएँ एकत्र कर ली जाएँ जो सब में समान (Common) हों। अर्थात् उनमें परस्पर कोई मतभेद, विरोधाभास न हो। फिर यह देखा जाए कि वह किस धर्म का ग्रंथ/शास्त्र है जिसमें यह सारी धारणाएँ, अवधारणाएँ और मान्यताएँ समग्रता के साथ इस प्रकार मौजूद हैं कि उस धर्म के ग्रंथों/ग्रंथ में उन समान (Common) बातों के विरुद्ध व विपरीत कोई बात न हो। वो समान बातें, जो सामने आएँगी ये हैं :
(1) ‘एकेश्वरवाद’, जो विशुद्ध है, अर्थात् जिसके अनुसार पूज्य, उपास्य ‘मात्र एक ईश्वर’ है, उसके सिवाय कोई अन्य नहीं, न पूजा-उपासना में कोई उसका साझी शरीक है।
(2) ‘परलोकवाद’, इस धारणा के अनुसार, मृत्यु-पश्चात जीवन है जिसमें, इस जीवन के कर्मों के अनुसार या तो ‘स्वर्ग’ मिलेगा, या ‘नरक’।
इस प्रक्रिया के पूरा होने के साथ ही ‘सत्य धर्म की खोज’ पूरी हो जाएगी।
इस खोज का परिणाम यह सामने आएगा कि वह सत्य-धर्म ‘इस्लाम’ है क्योंकि यही ‘समान’ (Common) बातें इस्लाम की मूल धारणाएँ हैं और इसमें इन धारणाओं के विपरीत व विरुद्ध कुछ भी नहीं है। यही कारण है कि इस्लाम ‘‘सारे धर्म सत्य हैं’’ की एक अवास्तविक व अस्वाभाविक विचारधारा को नकारते, और एक भ्रामक स्थिति का निवारण करते हुए, स्वयं को ही ‘सत्य-धर्म’ कहता है। उसका यह दावा बुद्धि-विवेक, तर्व$ और आधुनिक अन्वेषण की कसौटी पर खरा, पूरा और संतोषजनक सिद्ध होता है। इस्लाम का यह दृष्टिकोण बौद्धिक व साइंटिफ़िक मानदंड के सर्वथा अनुकूल व तर्कसंगत है कि ‘सर्व-धर्म-समन्वय’, ‘सर्वधर्म समानता’, ‘सर्व-धर्म-एकता’ (Unity, Equality or Amalgamation of Diverse and Differing Religions) की विचारधारा उचित नहीं है बल्कि ‘धर्म का ऐक्य’ (Oneness of Religion) उचित विचारधारा है; बिल्कुल वैसे ही, जैसे वह ‘ईश्वर के एक्य’ (Oneness of God), और ‘मानवजाति के एक्य’ (Oneness of Mankind) का पक्षधर और आह्वाहक है।
● ‘धर्म’ को कैसा होना चाहिए?
मानव प्राणी चूँकि ‘शरीर’ और ‘आत्मा’ के समन्वय से अस्तित्व पाता है तथा उसके व्यक्तित्व में ये दोनों पहलू अविभाज्य (Inseparable) हैं; इसलिए धर्म ऐसा होना चाहिए जो उसके भौतिक व सांसारिक तथा आध्यात्मिक व नैतिक जीवन-क्षेत्रों में संतुलन व सामंजस्य के साथ अपनी भूमिका निभा सके। (इस्लाम के सिवाय अन्य) धर्मों तथा उनकी अनुयायी क़ौमों का इतिहास यह रहा है कि धर्म ने पूजा-पाठ, पूजा-स्थल, पूजागृह और कुछ सीमित धार्मिक रीतियों तक तो अपने अनुयायियों का साथ दिया, या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ मानवीय मूल्यों और कुछ नैतिक गुणों की शिक्षा देकर कुछ चरित्र-निर्माण, और कुछ समाज-सेवा में अग्रसर कर दिया। इसके बाद, इससे आगे मानवजाति की विशाल, वृहद्, बहुआयामी, बहुपक्षीय, व्यापक जीवन-व्यवस्था में धर्म ने अपने अनुयायियों और अनुयायी क़ौमों का साथ छोड़ दिया। यही बात इस विडंबना का मूल कारण बन गई कि धर्म को व्यवस्था से, व्यवस्था को धर्म से बिल्कुल ही अलग, दूर कर दिया गया। यह अलगाव इतना प्रबल और भीषण रहा कि ‘धर्म’ और ‘व्यवस्था’ एक-दूसरे के प्रतिरोधी, प्रतिद्वंद्वी, शत्रु-समान बन गए। अतः ‘व्यवस्था’ के संदर्भ में धर्म-विमुखता, धर्म-निस्पृहता, धर्म-उदासीनता यहाँ तक कि धर्म-शत्रुता पर भी आधारित एक ‘‘आधुनिक धर्म’’ ‘सेक्युलरिज़्म’ का आविष्कार करना पड़ा। इस नए ‘‘धर्म’’ ने पुकार-पुकार कर, ऊँचे स्वर में कहा कि (ईश्वरीय) धर्म को सामूहिक जीवन (राजनीति, न्यायपालिका, कार्यपालिका, प्रशासन, अर्थव्यवस्था, शैक्षणिक व्यवस्था आदि) से बाहर निकाल कर, वहाँ मात्रा इसी ‘‘नए धर्म’’ (सेक्युलरिज़्म) का अधिपत्य स्थापित होना चाहिए। इस प्रकार उपरोक्त धर्मों की अपनी सीमितताओं और कमज़ोरियों के परिणामस्वरूप मानव के अविभाज्य व्यक्तित्व को दो अलग-अलग हिस्सों में विभाजित कर दिया गया। ‘‘व्यक्तिगत पूजा-पाठ में तो ईश्वरवादी, धार्मिक रहना चाहो तो रहो, परन्तु इस दायरे से बाहर निकल कर सामूहिक व्यवस्था में क़दम रखने से पहले, ईश्वर और अपने धर्म को अपने घर में ही रख आओ’’ का मंत्र उपरोक्त ‘नए धर्म’ का ‘मूल-मंत्र’ बन गया। मनुष्य के अविभाज्य व्यक्तित्व का यह विभाजन बड़ा अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, बल्कि अत्याचारपूर्ण था, फिर भी ‘धर्म’ ने अपनी कमज़ोरियों और सीमितताओं के कारण इस नए क्रांतिकारी ‘‘धर्म’’ (सेक्युलरिज़्म) के आगे घुटने टेक दिए।
यह त्रासदी (Tragedy) इस वजह से घटित हुई कि धर्म, जो सामने था, ‘एक’ से ‘अनेक’ में टूट-बिखर चुका था, विषमताओं का शिकार हो चुका था; जातियों, नस्लों, राष्ट्रीयताओं आदि में जकड़ा जा चुका था अतः अपनी नैसर्गिक विशेषताएँ व गुण (सक्षमता, सक्रियता, प्रभावशीलता, उपकारिता, कल्याणकारिता आदि) खो चुका था। इस कारणवश उसे, ईश्वरीय धर्म को हटाकर उसकी जगह पर विराजमान हो जाने वाले ईश-उदासीन ‘नए क्रांतिकारी धर्म’ (सेक्युलरिज़्म) के आगे घुटने टेक देने ही थे। इसके बड़े घोर दुष्परिणाम मानव-जाति को झेलने पड़े और झेलने पड़ रहे हैं। उपद्रव, हिंसा, रक्तपात, शोषण, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, नशाख़ोरी, शराबनोशी, अपराध, युद्ध, बलात्कार, नरसंहार, भ्रष्टाचार, रिश्वत, लूट-पाट, डवै$ती, चोरी, ग़बन, घोटाले, स्वै$म, अपहरण, नग्नता, अभद्रता, अश्लीलता, यौन-अपराध, हत्या आदि का एक सैलाब है जिस पर बाँधा जाने वाला हर बाँध टूट जाता है। इसे मरम्मत करने की जितनी कोशिशें की जाती हैं, उन्हें असफल बनाकर, यह सैलाब पहले से भी ज़्यादा तबाही मचाता, फैलता, आगे बढ़ता-चढ़ता चला जा रहा है।
● इस्लाम की विशिष्टता
इस्लाम उपरोक्त अन्य धर्मों के ‘समान’ नहीं है। इसमें वह कमज़ोरियाँ, सीमितताएँ नहीं हैं जो अन्य धर्मों के हवाले से ऊपर बयान की गईं। यह न मनुष्य को ‘आध्यात्मिकता व धार्मिकता’ और ‘भौतिकता व सांसारिकता’ के कोष्ठों में बाँटता है न समाज व सामूहिक व्यवस्था को। इसमें हर बात, हर मामला, हर गतिविधि, हर जीवन-क्षेत्र, ईश्वरीय-धर्म में समाहित है। यह किसी भी छोटे-बड़े मामले या समस्या में न इन्सान को अकेला छोड़ देता है, न समाज को बेयार-व-मददगार और न सामूहिक व्यवस्था को बेसहारा। इन्सानों का पूर्ण मार्गदर्शन करने में, हर समय हर परिस्थिति में इन्सानों के साथ रहने, साथ देने, सहायक व सहयोगी बनने में तथा उनकी जटिल समस्याओं का समाधान करने में एक ‘ईश्वरीय सत्य-धर्म’ को जितना जागरूक, सतर्क, सक्षम, क्रियान्वित, तत्पर और अग्रसर होना अभीष्ट हो सकता है, इस्लाम ठीक वैसा ही है। फिर बुद्धिमानी व सत्यवादिता यह कहने में नहीं है कि ‘‘सारे धर्म एक समान हैं।’’
● व्यावहारिक पुष्टिकरण
अगर यह बात सिर्फ़ कहने की हद तक ही नहीं, बल्कि सचमुच सत्य होती कि सारे धर्म समान रूप से ‘सत्य’ हैं तो फिर ऐसा होना चाहिए था कि धर्म परिवर्तन पर वह व्याकुलता, रोष, क्रोध और कड़ा रुख़ न दर्शाया जाता जो किसी धर्म के अनुयायी, अपने धर्म के किसी व्यक्ति के धर्मान्तरण पर दर्शाया करते हैं। जब एक व्यक्ति ‘सत्य’ से ‘सत्य’ ही की ओर प्रस्थान करता है और हर अवस्था में सत्य के अंतर्गत ही रहता है तो फिर इस पर रोष व क्रोध का क्या औचित्य? इससे इस तथ्य का व्यावहारिक पुष्टिकरण भी हो जाता है कि सर्वधर्म समभाव के पक्षधर लोग, स्वयं भी यह मानते हैं कि ‘सारे धर्म समान नहीं हैं, सत्य नहीं हैं।’
यहां यह बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी महसूस होता है कि इस्लाम सभी प्रचलित धर्मों में एकसमानता, समभाव व समन्वय आदि की अस्वाभाविक नीति अपनाने और अव्यावहारिक शिक्षा देने के बजाय, सभी धार्मिक समुदायों (Religions Communities) में इन्सानियत और मानवीय मूल्यों के आधार पर सौहार्द्र (Harmony), इन्सानी भाईचारा सहिष्णुता, इन्साफ़, न्याय, परोपकार, तथा भले कामों में परस्पर सहयोग की शिक्षा देता है।