आर्थिक व्यवस्था:
इस्लाम पूर्ण जीवन-व्यवस्था है। इस ने मानव जीन के प्रत्येक पक्ष को उत्तम से अतिउत्तम बनाने एवं परेशानियों और मुसीबतों से छुटकारा दिलाने के लिए ऐसे नियम और सिद्धांत प्रदान किए हैं कि लोक और परलोक के जीवन में अमन व शान्ति प्राप्त हो।
इस्लाम ने व्यक्ति के विश्वास, आचार, दृष्टिकोण, राजनैतिक आवश्यकताओं तथा पारिवारिक एवं आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ उसकी आजीविका-संबंधित आवश्यक आदेश भी प्रदान किए हैं। इन आदेशों की विशेषता यह है कि जीवन के समस्त पक्ष एक-दूसरे से जुड़कर संयोजित हो जाते हैं और मनुष्य को पूर्ण अम्न व सलामती प्राप्त होती है।
इस्लाम की मूल-धारणा इस तथ्य पर आधारित है कि मानव का मालिक, हाकिम, स्वामी एक, और सिर्फ़ एक अल्लाह ही है । उसने हमें अक़्ल और सूझ-बूझ दी और यह स्वतंत्रता भी दी कि हम किसी तथ्य को स्वीकार करें या अस्वीकार। इसके साथ-साथ उसने हमें जीवन व्यतीत करने के साधन भी दिए। परलोक में वह हम से इसका हिसाब लेगा कि उसकी प्रदान की हुई इन नेमतों, अर्थात् जीवन-अधिकार की स्वतंत्रता और जीवन व्यतीत करने के साधनों का हम ने कैसे उपयोग किया। यदि यह काम उसकी इच्छानुसार हुआ तो स्वर्ग की प्राप्ति; नहीं तो नरक का ईंधन बनने का परिणाम इन्सानों के लिए है।
जीवन, और जीवन व्यतीत करने के साधनों को अल्लाह की इच्छानुसार उपयोग करने के लिए अल्लाह ने अपने रसूलों और किताबों का सिलसिला जारी किया जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और कु़रआन पर ख़त्म हुआ और यह रहती दुनिया तक के लिए पथ-प्रदर्शक है।
इस्लाम में संसार-विरक्त हो जाना मना है। इसमें जीवन व्यतीत करने के साधनों से लाभ उठाना नापसन्दीदा नहीं है। केवल यह बात याद रखनी चाहिए कि हम वास्तव में किसी चीज़ के स्वामी नहीं हैं बल्कि वास्तविक स्वामी (ईश्वर) के प्रतिनिधि हैं। हमें समस्त साधनों को प्रयोग में लाने और इसमें अपने प्रयास को बढ़ोत्तरी करने के लिए वास्तविक स्वामी के आदेशों का, जो कि कु़रआन और मुहम्मद (सल्ल॰) की सुन्नत में मौजूद है, ध्यान रखना होगा। इन आदेशों के अन्तर्गत इन साधनों में जो भी बढ़ोत्तरी हो वह प्रशंसनीय है। इसी प्रकार, धन कमाना, उसमें बढ़ोत्तरी का प्रयास करना, उससे लाभ उठाना, उसे ख़र्च करना या उसे जमा करना बुरा नहीं है, बल्कि अच्छा है; केवल शर्त यह है कि अल्लाह और उसके रसूल के आदेश का पालन किया जाए।
इस्लाम के शिक्षानुसार समस्त मानव एक ही माता-पिता आदम एवं हव्वा (अलैहि॰) की संतान हैं इसलिए इनमें रंग, वंश, भाषा, प्रदेश, जाति, पेशा आदि के कारण कोई अन्तर या भेदभाव नहीं है। अपना जीवन व्यतीत करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से यह अवसर प्राप्त है कि किसी भी वैध कार्य को वह अपनी रुचि एवं पसन्द के अनुसार हासिल कर सकता है तथा धन एवं दूसरे साधनों को प्राप्त करने, उन्हें ख़र्च करने, बचत करने एवं धन में बढ़ोत्तरी के लिए कारोबार में लगाने का अधिकार रखता है। शासन और समाज का यह उत्तरदायित्व है कि वह अपने नागरिकों को समान अवसर प्रदान करे और यदि कोई दुष्कर्मी किसी के इस क़ानूनी अधिकार में रुकावट डाल रहा है तो उसे ऐसा न करने दे।
यह भी एक वास्तविकता है कि सभी इन्सानों के हालात, तथा उनकी शारीरिक एवं मानसिक अवस्था एक जैसी नहीं होती है। किसी की सूझ-बूझ अधिक है, किसी का शरीर बलवान है, कोई शहरी है, कोई ग्रामीण है, कोई स्वस्थ है, कोई रोगी है। रोज़गार हासिल होने के समान अवसर प्राप्त होने के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति समान जीविका प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए जीवन की दौड़ में सभी लोग एक साथ नहीं रह सकते। कोई बहुत आगे बढ़ जाएगा, कोई बहुत पीछे रह जाएगा। हो सकता है, कुछ लोगों के पास मौलिक आवश्यकताओं के लिए भी कोई साधन न रहे। इस्लाम ने ऐसे लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक ओर ज़कात, सदक़ात और वक़्फ़ जैसे दान एवं परोपकार के तरीक़ों की शिक्षा दी है, तो दूसरी ओर अनाथ बच्चों, विधवा नारियों, बूढ़ों और रोगियों, और दूसरे बेसहारा लोगों के साथ सद्व्यवहार के निर्देश दिए हैं।
इस्लाम ने अर्थव्यवस्था से संबंधित ऐसे नियम बनाए हैं कि जीवन व्यतीत करने के साधन इस तरह उपयोग में लाए जाएँ कि वह मानव समाज की भलाई और परोपकारिता का साधन बनें। इस सिलसिले में इस्लामी धर्म- विद्वानों ने कु़रआन और हदीस की शिक्षानुसार यह निर्देश दिए कि जो भी काम किया जाए उसका उद्देश्य व्यक्ति के ईमान, उसके जीवन, सूझ-बूझ, वंश और धन को सुरक्षित रखना हो।
जीविका के सिलसिले में इस्लामी शिक्षा कुछ चीज़ों को सख़्ती से अवैध ठहराती है। इन हराम चीज़ों में सर्वप्रथम सूद है अर्थात् किसी क़र्ज़ पर मूल से अधिक धन या किसी और प्रकार का लाभ प्राप्त करना। सूद न लिया जा सकता है, न दिया जा सकता है और न इसका कारोबार किया जा सकता है (कु़रआन, 2:275-76, 278-79; 3:130; 4:161, 30:39)। सूदी लेन-देन करने वालों के दस्तावेज़ तैयार करना भी वर्जित ठहराया गया। दूसरी चीज़ें जो हराम हैं और जिन्हें अवैध ठहराया गया है वह हैं – जुआ, अनाज की क़ीमत बढ़ने के लिए उसे रोकना, रिश्वत, धोखा, जो चीज़ें अपने अधिकार में न हों उन्हें बेचना, अत्याचार, लेन-देन को मामले में महत्वपूर्ण जानकारी छिपाना, किसी की मजबूरी से लाभ उठाना, झूठी बोली बोल कर क़ीमत बढ़ाना आदि।
इस्लाम ने अवैध, अप्रशंसनीय एवं बुरी चीज़ों का विवरण स्पष्ट रूप से दे दिया है जो चीज़ें इस वर्जित तालिका में नहीं हैं, मानव उसके लिए स्वतंत्र है। वर्जित चीज़ों की यह सूची छोटी-सी है और इसके बाहर काम की एक पूरी दुनिया मौजूद है जिसमें मेहनत करके इन्सान अपनी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।
आमदनी हासिल करने के सिलसिले में इस्लामी सिद्धांत यह है कि वैध कार्यों द्वारा वैध तरीक़ों से धन कमाया जा सकता है। धन कमाने का कोई तरीक़ा या पेशा किसी परिवार, देश या जाति-बिरादरी के लिए विशेष नहीं है। हर व्यक्ति अपनी अवस्था, रुचि, क्षमता, कुशलता एवं उपलब्ध अवसर के अनुसार कोई भी काम कर सकता है। किसी अवैध कार्य के करने का अधिकार किसी को नहीं है, शराब और नशा की चीज़ें बनाना, अश्लीलता और देहव्यापार और नाच-गाने का पेशा, जुआ, लॉटरी, सट्टा, ऐसा काम जिसमें एक का लाभ दूसरे की हानि निश्चित हो, किसी की विवशता से लाभ उठाकर उसे परेशान किया जाना, और इस तरह के सभी काम जो मानव और मानव समाज के लिए हानिकारक हों वर्जित कर दिए गए हैं।
व्यक्ति, वैध तरीक़ों से हासिल किए हुए धन का स्वामी होता है। वह अपनी इच्छानुसार उसकी बचत कर सकता है या उसे ख़र्च कर सकता है। किन्तु धन को ख़र्च सिर्फ़ वहीं किया जा सकता है और उसी प्रकार किया जा सकता है जिसकी इस्लाम ने अनुमति दी है।
जिस तरह, अवैध तरीक़ों से धन कमाना वर्जित ठहराया गया है उसी तरह धन ख़र्च करने के समस्त अवैध तरीक़ों पर भी रोक लगा दी गई है। इस तरह धन को दिखावे में, और रंग-रेलियों में, जो कि इस्लाम की दृष्टि में अप्रशंसनीय हैं ख़र्च नहीं किया जा सकता, शराब नहीं पी जा सकती, अश्लीलता नहीं फैलाई जा सकती, जुआ और सट्टे में पैसे नहीं लगाए जा सकते। वैध और प्रशंसनीय तरीके से प्राप्त किया गया धन वैध और प्रशंसनीय तरीक़े से ही ख़र्च किया जा सकता है।
वैध तरीक़े से हासिल किए हुए धन को प्रशंसनीय तरीक़ों से ख़र्च करने के अलावा उनकी बचत भी की जा सकती है। इस तरह, बचत के धन से धन कमाने के लिए उसे कारोबार में भी लगाया जा सकता है। इस्लाम के आदेशानुसार बचत के धन में से ज़कात (अनिवार्य धन दान) एवं उश्र (फ़सल के उत्पाद का दसवाँ भाग) परोपकार, परहित, जन-सेवा व समाज-सेवा के कामों के लिए निकालने की व्यवस्था है। अर्थात् बचत के धन एवं व्यापारिक वस्तुओं पर ज़कात और खेतों की उपज पर ‘उश्र’ निकालना होगा।
धन के प्रति इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि धन का संचालन हो और वह कुछ हाथों में सिमट कर न रह जाए और समाज के अन्दर प्रवाहित रहे।
इस्लाम निर्देश देता है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसके धन, सम्पत्ति को उसके उत्तराधिकारियों में विभाजित कर दिया जाए ताकि पुरखों का धन पीढ़ियों तक कुछ ही हाथों में सिमट कर न रहे बल्कि उसका बड़े स्तर पर संचालन होता रहे।
इस तरह, इस्लाम ने अपनी आर्थिक व्यवस्था में वैध आमदनी, वैध ख़र्च, प्रशंसनीय तरीक़े से बचत और धन में बढ़ोत्तरी के लिए धन को कारोबार में लगाने; व्यक्ति के पास जमा धन व सम्पत्ति को उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में विभाजित होने; तथा परोपकार व समाज-सेवा में धन (व फ़सल का उत्पाद) ख़र्च करने की शिक्षाओं व नियमों द्वारा उत्तम मानव और उत्तम मानव-समाज के निर्माण का प्रावधान किया है। इस तरीक़े को अपना कर अपने पैदा करने वाले की इच्छानुसार जीवन व्यतीत कर, उसे प्रसन्न कर, सांसारिक जीवन में संतुष्टि एवं शान्ति और परलोक में सदा बाक़ी रहने वाली जन्नत का रास्ता दिखाया गया है।
आध्यात्मिक व्यवस्था:
इस्लाम की आध्यात्मिक व्यवस्था और सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था से उसका संबंध समझने के लिए पहले आध्यात्म की इस्लामी अवधारणा तथा अन्य धर्मों और दार्शनिक प्रणालियों की अवधारणाओं के अन्तर को समझ लेना ज़रूरी है। यह अन्तर स्पष्ट न होने के कारण अधिकतर ऐसा होता है कि इस्लाम की आध्यात्मिक व्यवस्था पर चर्चा करते हुए आदमी के दिमाग़ में बिना इरादे के वह अवधारणाएँ घूमने लगती हैं जो प्रायः ‘रूहानियत’ या ‘आध्यात्म’ शब्द के साथ जुड़ गई हैं। फिर इस उलझन में पड़कर आदमी के लिए यह समझना कठिन हो जाता है कि इस्लाम की यह आध्यात्मिक व्यवस्था किस प्रकार की है जो आत्मा के जाने-पहचाने क्षेत्रा से निकलकर भौतिकता तथा शारीरिक क्षेत्र में दख़ल देती है और केवल दख़ल ही नहीं देती बल्कि उस पर छा जाना चाहती है।
दर्शन और धर्म की दुनिया में साधारणतया जो विचार पाया जाता है वह यह है कि आत्मा और शरीर एक-दूसरे के प्रतिरोधी हैं, दोनों की दुनिया अलग-अलग हैं, दोनों की माँगें अलग बल्कि परस्पर विरोधी हैं। इन दोनों का विकास एक साथ संभव नहीं है। आत्मा के लिए शरीर और पदार्थ की दुनिया एक जेल है। सांसारिक जीवन के संबंध और आकर्षण वे हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ हैं जिनमें आत्मा जकड़ जाती है। दुनिया के कारोबार और क्रियाएँ वह दलदल है, जिसमें फंसकर आत्मा की उड़ान समाप्त हो जाती है। इस सोच का अनिवार्यतः परिणाम यह हुआ कि आध्यात्मिकता तथा सांसारिकता के मार्ग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गए। जिन लोगों ने दुनियादारी अपनाई वह पहले पग पर ही निराश हो गए कि यहाँ रूहानियत उनके साथ न चल सकेगी। इस चीज़ ने उन्हें भौतिकता में डुबो दिया। जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, तात्पर्य यह कि सांसारिक जीवन के सारे अंग अध्यात्म के प्रकाश से वंचित रह गए।
रिणामस्वरूप पृथ्वी अत्याचार से भर गई। दूसरी ओर जो लोग आध्यात्म-प्रेमी हुए उन्होंने अपने आत्मिक उत्थान के लिए ऐसे मार्ग चुने जो दुनिया के बाहर ही बाहर से निकल जाते हैं, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से आत्मिक उन्नति का कोई ऐसा मार्ग संभव ही न था जो दुनिया के अन्दर से होकर गुज़रता हो। उनके निकट आत्मा की उन्नति के लिए शरीर को कमज़ोर करना ज़रूरी था इसलिए उन्होंने ऐसी तपस्याएँ ईजाद कीं जो वासना को मारने और शरीर को चेतनाशून्य और बेकार कर देने वाली हों। तपस्या के लिए उन्होंने जंगलों, पहाड़ों और एकान्तवास को अत्यंत उपयुक्त स्थान समझा ताकि आबादी का कोलाहल ज्ञान-ध्यान में विघ्न न डालने पाए। आत्मिक विकास के लिए उन्हें इसके अतिरिक्त कोई उपाय न सूझा कि संसार तथा उसकी गतिविधियों से हाथ खींच लें तथा उन सभी संबंधों को काट फेंके जो उन्हें भौतिक संसार से जोड़े हुए हैं।
शरीर और आत्मा के इस परस्पर विरोध ने इन्सान के लिए उन्नति के शिखर के दो भिन्न-भिन्न अर्थ एवं लक्ष्य तय कर दिए। सांसारिक जीवन की उन्नति का सर्वोच्च बिन्दु यह निश्चित हुआ कि इन्सान केवल भौतिक सुख-सुविधाओं से मालामाल हो, और अन्तिम लक्ष्य यह ठहरा कि मनुष्य एक अच्छा पक्षी, एक बढ़िया मगरमच्छ, एक श्रेष्ठ घोड़ा और एक सफल भेड़िया बन जाए। दूसरी ओर आध्यात्मिक जीवन की ऊँचाई यह तय हुई कि इन्सान कुछ अलौकिक शक्तियों का मालिक बन जाए और लक्ष्य यह ठहरा कि एक अच्छा रेडियो सेट, एक शक्तिशाली दूरबीन और एक बढ़िया माइक्रोस्कोप बन जाए अथवा उसकी नज़र और उसके शब्द एक पूर्ण औषधालय का काम देने लगें।
इस्लाम का दृष्टिकोण इस मामले में दुनिया की सभी धार्मिक व दार्शनिक व्यवस्थाओं से भिन्न है। वह कहता है कि इन्सानी आत्मा को ईश्वर ने धरती पर अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया है। कुछ कर्तव्य और उत्तरदायित्व उसे सौंपे हैं और उनको पूरा करने के लिए श्रेष्ठतम एवं उपयुक्ततम शारीरिक संरचना प्रदान की है। यह शरीर उसको दिया ही इसलिए गया है कि वह अपने अधिकारों के प्रयोग तथा अपने कर्तव्यों के निर्वाह में इससे काम ले। इसलिए यह शरीर आत्मा के लिए जेल नहीं बल्कि उसका कारख़ाना है और यदि आत्मा का कोई विकास संभव है तो वह इसी प्रकार, कि इस कारख़ाने के औज़ारों तथा ऊर्जा का उपयोग करके अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन करे। फिर यह दुनिया कोई यातनागृह भी नहीं है जिसमें इन्सानी आत्मा किसी प्रकार आकर फंस गई हो; बल्कि यह तो वह कर्मस्थली है जिसमें काम करने के लिए ईश्वर ने उसे भेजा है। यहाँ कि अनगिनत चीज़ें उसके अधीन कर दी गई हैं। यहां दूसरे बहुत-से इन्सान इसी प्रतिनिधित्व के कर्तव्य निभाने के लिए उसके साथ पैदा किए गए हैं। यहाँ प्रकृति की माँगों से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा जीवन के अन्य विभाग उसके लिए अस्तित्व में आए हैं। यहाँ अगर कोई रूहानी तरक़्क़ी संभव है तो उसका उपाय यह नहीं है कि आदमी इस कर्मस्थली से मुख मोड़कर किसी एकांत में जा बैठे, बल्कि उसका उपाय यह है कि वह इसके अन्दर कार्य करके अपनी योग्यता का परिचय दे। यह उसके लिए परीक्षा-गृह है। जीवन का प्रत्येक पक्ष परीक्षा के प्रश्न-पत्र के समान है। घर, मुहल्ला, बाज़ार, मंडी, दफ़्तर, कारख़ाना, पाठशाला, कचहरी, थाना, छावनी, पार्लियामेंट, अमन कांफ्रेंस (शान्ति सम्मेलन), और युद्ध के मैदान सब विभिन्न विषयों के प्रश्न पत्र हैं जो उसे करने के लिए दिए गए हैं। वह अगर उनमें से कोई प्रश्न पत्र न करे या अधिकतर विषयों की उत्तरपुस्तिका ख़ाली छोड़ दे तो परीक्षाफल में शून्य के अतिरिक्त और क्या पा सकता है? सफलता और उन्नति की संभावना अगर हो सकती है तो इसी तरह कि वह अपना सारा समय और पूरा ध्यान परीक्षा देने पर केन्द्रित करे और जितने पर्चे भी उसे दिए जाएँ उन सबमें अच्छे से अच्छा करके दिखाए।
इस प्रकार इस्लाम ‘संन्यास’ के विचार को रद्द कर देता है और मानव के लिए आत्मिक उत्थान का मार्ग दुनिया के बाहर से नहीं बल्कि दुनिया के अन्दर से निकलता है। आत्मा की उन्नति, विकास और सफलता-प्राप्ति का वास्तविक स्थान उसके अनुसार जीवन की गतिविधियों के ठीक बीच में है, न कि उसके किनारे पर।
अब यह देखना चाहिए कि इस्लाम हमारी आत्मा की उन्नति और अवनति की क्या कसौटी प्रस्तुत करता है? इसका उत्तर उसी ‘प्रतिनिधित्व’ की धारणा में मौजूद है जिसका अभी उल्लेख किया गया है। प्रतिनिधि होने की हैसियत से इन्सान अपने जीवन के सभी कार्यों के लिए ख़ुदा के सामने जवाबदेह है। उसका कर्तव्य यह है कि धरती पर उसे जो अधिकार और साधन दिए गए हैं उन्हें ख़ुदा की मरज़ी के अनुसार इस्तेमाल करे। जिन विभिन्न संबंधों और सम्पर्कों में दूसरे इन्सानों के साथ उसे जोड़ा गया है उनमें ऐसा रवैया अपनाए जो ईश्वर को पसन्द है और कुल मिलाकर अपने सभी प्रयास और परिश्रम धरती की व्यवस्था को इतना उत्तम बनाने में लगा दे जितना उसका ईश्वर देखना चाहता है। इस सेवा को इन्सान जितना अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से आज्ञाकारिता एवं मालिक की प्रसन्नता हेतु सम्पन्न करेगा उतना ही अधिक ईश्वर के निकट होगा और ईश्वर की निकटता ही इस्लाम की दृष्टि में आत्मिक उन्नति है। इसवे$ विपरीत वह जितना आलसी, कामचोर और कर्तव्य-विमुख होगा या जितना उद्दंड, विद्रोही और अवज्ञाकारी होगा उतना ही वह ईश्वर से दूर होगा और ईश्वर से दूरी ही का नाम इस्लाम की भाषा में ‘आत्मिक अवनति’ है।
इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस्लामी दृष्टिकोण से दीनदार (धर्मपरायण) और दुनियादार दोनों का कार्यक्षेत्रा एक ही है और एक ही कर्मस्थली है जिसमें दोनों कार्य करेंगे। बल्कि धार्मिक व्यक्ति सांसारिक व्यक्ति से भी अधिक तन्मयता से व्यस्त होगा। घर की चारदीवारी से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के मंच तक जितने भी जीवन संबंधी मामले हैं उन सबकी ज़िम्मेदारियाँ धर्मपरायण व्यक्ति भी दुनियादार के बराबर बल्कि उससे कुछ बढ़कर ही अपने हाथों में ले लेगा। हाँ, जो चीज़ उन दोनों वे$ मार्ग अलग करेगी वह ईश्वर के साथ उनके संबंधों की विशेषता है। धर्मपरायण व्यक्ति जो कुछ भी करेगा इस भावना के साथ करेगा कि वह ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है, इस उद्देश्य से करेगा कि उसे ईश-प्रसन्नता प्राप्त हो और उस क़ानून के अनुसार करेगा जो ईश्वर ने उसके लिए बना दिए हैं। इसके विपरीत सांसारिकता धारण करने वाला जो कुछ करेगा अनुत्तरदायी ढंग से करेगा, ईश्वर से विमुख होकर करेगा और अपने मनमाने ढंगों से करेगा। यही अन्तर धार्मिक व्यक्ति के सम्पूर्ण भौतिक जीवन को पूर्ण आध्यात्मिक बना देता है और सांसारिकता धारण करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को आध्यात्म के प्रकाश से वंचित कर देता है।
यहाँ संक्षेप में यह बात प्रस्तुत की जा रही है कि इस्लाम सांसारिक जीवन के बीच से इन्सान के आत्मिक उत्थान का मार्ग किस प्रकार बनाता है।
1. इस मार्ग का प्रथम चरण ईमान है, जिसका आशय यह है कि आदमी के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठ जाए कि ईश्वर ही उसका मालिक, शासक और पूज्य है। ईश-प्रसन्नता ही उसके सारे प्रयत्नों का मूल उद्देश्य हो और ईश्वर का आदेश ही उसके जीवन का विधान हो। यह विचार जितना अधिक दृढ़ और पक्का होगा उतनी ही अधिक इस्लामी मानसिकता पूर्णता लिए हुए होगी और उतने ही स्थायित्व और दृढ़ निश्चय के साथ इन्सान आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चल सकेगा।
2. इस रास्ते की दूसरी मंज़िल आज्ञापालन है। अर्थात मनुष्य का व्यवहारतः अपनी स्वच्छंद स्वतंत्राता को त्याग देना और उस ईश्वर के प्रति व्यावहारिक रूप से समर्पित हो जाना जिसे वह धारणा के रूप में अपना ईश्वर मान चुका है। इसी आज्ञापालन और समर्पण का नाम कु़रआन की शब्दावली में ‘इस्लाम’ है।
3. तीसरी मंज़िल तक़वा (ईशभय) की है जिसे साधारण भाषा में कर्तव्यपरायणता और उत्तरदायित्व की भावना से व्यक्त किया जाता है। ईशभय यह है कि आदमी अपने जीवन के प्रत्येक पहलू में यह समझते हुए कार्य करे कि उसे अपनी विचारधाराओं, कथनों और कर्मों का हिसाब ईश्वर को देना है। हर उस काम से रुक जाए जिससे ख़ुदा ने मना किया है, हर उस सेवा के लिए तत्पर हो जाए जिसका ख़ुदा ने हुक्म दिया है और पूर्ण विवेकशील ढंग से वैध-अवैध, सही-ग़लत और भलाई-बुराई के बीच अन्तर करके जीवन व्यतीत करे।
4. अन्तिम और सबसे ऊँची मंज़िल ‘एहसान’ (अति उत्तम आचरण) की है। एहसान का अर्थ यह है कि मनुष्य की इच्छा ईश्वर की इच्छा के साथ एकाकार हो जाए। जो कुछ ईश्वर की पसन्द है वही उसके दास (मनुष्य) की अपनी पसन्द भी हो और जो कुछ ईश्वर को नापसन्द है, दास का अपना दिल भी उसे नापसन्द करे। ईश्वर जिन बुराइयों को अपनी धरती पर देखना नहीं चाहता मनुष्य न केवल यह कि स्वयं उनसे बचे बल्कि उन्हें दुनिया से मिटा देने के लिए अपनी सम्पूर्ण क्षमताएँ और सभी साधन लगा दे। ईश्वर जिन भलाइयों से अपनी धरती को सुसज्जित देखना चाहता है, मनुष्य उनको अपने जीवन में अपनाने तक ही सीमित न रहे बल्कि अपनी जान लड़ाकर दुनिया भर में उन्हें फैलाने और स्थापित करने का प्रयास करे। इस स्थान पर पहुँचकर मनुष्य को अपने ईश्वर का निकटतम सामीप्य प्राप्त होता है और इसी लिए यह इन्सान की आत्मिक उन्नति और विकास का उच्चतम शिखर है।
आध्यात्मिक उन्नति का यह रास्ता व्यक्तियों के लिए ही नहीं बल्कि वर्गों और समूहों के लिए भी है। एक व्यक्ति की भाँति एक क़ौम (राष्ट्र) भी ईमान, आज्ञापालन और ईशभय की मंज़िलों से गुज़रकर एहसान की सर्वोच्च मंज़िल तक पहुँच सकती है और एक राज्य भी अपनी पूर्ण व्यवस्था के साथ ईमान वाला, इस्लाम का अनुगामी, ईशभय धारण करने वाला और एहसान वाला बन सकता है। बल्कि वास्तव में इस्लाम का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है जब एक पूरी क़ौम इसी मार्ग पर चले और दुनिया में एक ईशभय रखने वाला, उत्तम आचरण से सुसज्जित राज्य स्थापित हो जाए।
अब आध्यात्मिक प्रशिक्षण की उस व्यवस्था को भी देख लिया जाए तो व्यक्ति और समाज को इस रूप में तैयार करने के लिए इस्लाम ने पेश की है। इस व्यवस्था के चार स्तंभ हैं :
(1) पहला स्तंभ नमाज़ है। यह प्रतिदिन पाँच बार आदमी के मस्तिष्क में ख़ुदा की याद को ताज़ा करती है, उसका भय दिलाती है, उसका प्रेम पैदा करती है, उसके आदेश बार-बार सामने लाती है और उसके आज्ञापालन का अभ्यास कराती है। यह नमाज़ केवल व्यक्तिगत नहीं है बल्कि सामूहिकता के साथ अनिवार्य की गई ताकि पूरी सोसाइटी सामूहिक रूप से आध्यात्मिक उन्नति वे$ इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो जाए।
(2) दूसरा स्तंभ रोज़ा है जो हर वर्ष पूरे एक माह तक मुसलमान व्यक्ति को अलग-अलग और मुस्लिम सोसाइटी को सामूहिक रूप से ईशभय का प्रशिक्षण देता रहता है।
(3) तीसरा स्तंभ ज़कात है जो मुसलमान व्यक्तियों में आर्थिक त्याग-भाव, आपसी हमदर्दी और मदद की भावना उत्पन्न करती है। आजकल के लोग भ्रमवश ज़कात को कर (Tax) के अर्थ में लेते हैं, जबकि ‘ज़कात’ की आत्मा कर की आत्मा से सर्वथा भिन्न है। ज़कात का मूल शाब्दिक अर्थ वृद्धि विकस और शुद्धता है। इस शब्द से इस्लाम आदमी के मन में यह तथ्य बैठाना चाहता है कि अल्लाह की मुहब्बत में अपने भाइयों की तुम जो आर्थिक सहायता करोगे, उससे तुम्हारा आत्मिक उत्थान होगा और तुम्हारे आचरण में पवित्राता और शुद्धता आएगी।
(4) चैथा स्तंभ हज है। यह ईशभक्ति की धुरी पर ईमान वाले और आस्थावान मनुष्यों की एक अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी बनाता है और एक ऐसा विश्वव्यापी आन्दोलन चलाता है जो दुनिया में सदियों से ‘सत्य’ के आह्नान पर एकजुटता का ऐलान कर रहा है और ईश्वर ने चाहा तो रहती दुनिया तक वह ऐलान करता रहेगा।