SHIRK

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shirk

शिर्क

शिर्क का अर्थ है शरीक करना या साझी ठहराना। क़ुरआन की परिभाषा में ईश्वर के अस्तित्व या उसके गुणों और अधिकारों में किसी को शरीक या साझी समझना ‘शिर्क है। शिर्क करने वाले को अरबी भाषा में ‘मुशरिक’ कहते हैं।

जहां तक इस बात का संबंध है कि क़ुरआन में अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा की खंडन की गई है और कुफ़्र तथा शिर्क करने वालों (अनेकेश्वरवादियों) और मूर्तिपूजकों को ईश्वर के प्रकोप से डराया गया है तो बहरहाल ईश्वर को इसका अधिकार प्राप्त है। जिस ईश्वर ने हमें पैदा किया, हमारी आवश्यकताएं पूरी कीं और कर रहा है। जिसने हमारे लिए हर प्रकार की सामग्री जुटाई और जुटा रहा है, वह वास्तविक स्रष्टा, स्वामी, जीविकादाता, पालनहार, दयावान और कृपाशील प्रभु अपने पैदा किए हुए इन्सानों से इसकी अपेक्षा करता है कि उसके साथ किसी को साझी न ठहराया जाए और उसकी अवज्ञा न की जाए। दुनिया में किसी मालिक को अपने नौकर की ग़लती, अवज्ञा और विद्रोह पर उसे डांटने या सज़ा देने का अधिकार होता है। इस दुनिया का कोई शासक अपनी सत्ता और अधिकारों में किसी दूसरे के हस्तक्षेप को सहन नहीं कर सकता। कोई देश ऐसे व्यक्ति को कोई मंत्रीपद सौंप नहीं सकता, जो सिरे से उस देश के संविधान और संप्रभुता ही को स्वीकार न करता हो। ऐसे व्यक्ति को कोई मंत्रीपद प्रदान करना तो अलग रहा, उसे सहन ही नहीं कर सकता। इस दुनिया में तो दयावान प्रभु का अनुग्रह नास्तिक और अवज्ञाकारी लोगों को भी प्राप्त है, क्योंकि यहां उनकी परीक्षा लेना अभीष्ट है, लेकिन मरने के बाद आने वाले पारलौकिक जीवन में प्रभु प्रत्येक व्यक्ति का हिसाब लेगा और इस दुनिया में उसने जो भी कर्म किए हैं उनके अनुसार बदला देगा। वह अपने आस्तिक तथा आज्ञाकारी बन्दों को सफलता प्रदान करेगा और अपने नास्तिक तथा अवज्ञाकारी, अत्याचारी और दुष्कर्मी बन्दों को सज़ा देगा। ईश्वर इन विभिन्न और विपरीत गुणों वाले व्यक्तियों के परिणाम में अन्तर रखेगा। अपने मानने वाले आस्तिकों, आज्ञाकारियों और सदाचारियों को इनाम (स्वर्ग) प्रदान करना और इन्कार करने वाले अवज्ञाकारियों, विद्रोहियों, अत्याचारियों और नास्तिकों को सज़ा (नरक) देना तो सर्वथा सत्य और न्यायसंगत है।

अब हमें इस बात पर ग़ौर और चिंतन-मनन करने की बहुत ज़रूरत है कि अल्लाह के एहसानों और नेमतों (उपकारों और कृपादानों) से हम हर समय लाभ उठा रहे हैं। उसकी अनगिनत नेमतों से फ़ायदा उठाते हुए हमें क्या सुलूक अपनाना चाहिए? क्या हम अल्लाह का इन्कार कर सकते हैं? क्या उसके एहसानों और नेमतों में अल्लाह के साथ किसी दूसरी हस्ती/हस्तियों को साझी बना सकते हैं? यह बहुत बड़ा पाप (गुनाह) होगा। 

अल्लाह क़ुरआन में फ़रमाता है—‘‘और जिन लोगों ने इन्कार (कुफ़्र) किया है उनके लिए जहन्नम (नरक) की आग है। न उनका क़िस्सा ख़त्म कर दिया जाएगा कि मर जाएं और न उनके लिए जहन्नम के अज़ाब में कोई कमी की जाएगी। इस तरह हम बदला देते हैं हर उस व्यक्ति को जो इन्कार (कुफ़्र) करने वाला हो। वे वहां चिल्ला-चिल्लाकर कहेंगे कि—‘‘ऐ हमारे रब, हमें यहां से निकाल ले, ताकि हम अच्छे कर्म करें उन कर्मों से भिन्न जो पहले करते रहे थे।’’ (उन्हें जवाब दिया जाएगा) ‘‘क्या हमने तुमको इतनी उम्र न दी थी जिसमें कोई शिक्षा ग्रहण करना चाहता तो शिक्षा ग्रहण कर सकता था? और तुम्हारे पास चेतावनी देने वाला भी आ चुका था। अब मज़ा चखो। ज़ालिमों का यहां कोई सहायक नहीं है।’’ (क़ुरआन, 35:36,37)

क़ुरआन में एक दूसरी जगह अल्लाह तआला फ़रमाता है—
अगर तुम इन्कार (कुफ़्र) करो तो अल्लाह तुमसे बेनियाज़ (निस्पृह) है, लेकिन वह अपने बन्दों के लिए इन्कार (कुफ़्र) को पसन्द नहीं करता, और अगर तुम कृतज्ञता दिखाओ तो उसे वह तुम्हारे लिए पसन्द करता है। कोई बोझ उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा। अंततः तुम सबको अपने रब की ओर पलटना है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो, वह तो दिलों का हाल तक जानता है।  (क़ुरआन, 39:7)