Aazadi – Insaan ka Haq

0
1835

आज़ादी –  इन्सान का हक़

freedom1हर इन्सान की आज़ादी का हक़

इस्लाम में किसी आज़ाद इन्सान को पकड़ कर गु़लाम बनाना या उसे बेच डालना बिल्कुल हराम क़रार दिया गया है।

अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) के साफ़ शब्द ये हैं कि

तीन क़िस्म के लोग हैं जिनके ख़िलाफ़ क़ियामत के दिन मैं ख़ुद मुक़दमा दायर करूँगा। उनमें से एक वह आदमी है, जो किसी आज़ाद इन्सान को पकड़ कर बेचे और उसकी क़ीमत खाए।

रसूल (सल्ल॰) के इस फ़रमान के शब्द भी आम हैं। उसको किसी क़ौम या नस्ल या देश व वतन के इन्सान के साथ ख़ास नहीं किया गया है। पाश्चात्य लोगों को बड़ा गर्व है कि उन्होंने गु़लामी का ख़ात्मा किया है। हालांकि उन्हें यह क़दम उठाने का अवसर मध्य उन्नीसवीं सदी में मिला है। उससे पहले जिस बड़े पैमाने पर वे अफ्रीक़ा से आज़ाद इन्सानों को पकड़-पकड़ कर अपनी नव-आबादियों में ले जाते रहे हैं और उनके साथ जानवरों से भी बुरा सलूक करते रहे हैं, इसका विवरण उनकी अपनी ही लिखी हुई किताबों में मौजूद है।

पाश्चात्य क़ौमों की गु़लामसाज़ी

अमेरिका और हिन्द के पश्चिमी जज़ीरों वग़ैरह पर इन क़ौमों का क़ब्ज़ा होने के बाद साढ़े तीन सौ साल तक गु़लामी की यह ज़ालिमाना तिजारत जारी रही है। अफ़्रीक़ा के जिस तट पर देश के अन्दर से काले लोगों को पकड़ कर लाया जाता और बन्दरगाहों से उनको आगे भेजा जाता था, इसका नाम गु़लामों का तट (Slave Coast) पड़ गया था।

सिर्फ़ एक सदी में (1680 ई॰ से 1786 ई॰ तक) सिर्फ़ ब्रिटेन के क़ब्ज़ा किए हुए इलाक़ों के लिए, जितने आदमी पकड़ कर ले जाए गए उनकी तादाद ख़ुद ब्रिटेन के लेखकों ने दो करोड़ बताई है। सिर्फ़ एक साल के बारे में ऐसा बताया गया है (सन् 1790 ई॰) जिसमें पिचहत्तर हज़ार अफ़्रीक़ी पकड़े और गु़लाम बनाए गए। जिन जहाज़ों में वे लाए जाते थे, उनमें इन अफ़्रीक़ियों को बिल्कुल जानवरों की तरह ठूंस कर बन्द कर दिया जाता था और बहुतों को ज़ंजीरों से बांध दिया जाता था। उनको न ठीक से खाना दिया जाता था, न बीमार पड़ने या ज़ख़्मी हो जाने पर उनके इलाज की फ़िक्र की जाती थी।

पाश्चात्य लेखकों का अपना बयान है कि गु़लाम बनाने और ज़बरदस्ती ख़िदमत लेने के लिए जितने अफ़्रीक़ी पकड़े गए थे, उनमें से 20 प्रतिशत का रास्ते ही में ख़ात्मा हो गया। यह भी अंदाज़ा किया जाता है कि सामूहिक रूप से विभिन्न पाश्चात्य क़ौमों ने जितने लोगों को पकड़ा था उनकी तादाद दस करोड़ तक पहुंचती थी। इस तादाद में तमाम पाश्चात्य क़ौमों की ग़ुलामसाज़ी के आँकड़े शामिल हैं। ये हैं वे लोग जिनका यह मुंह है कि इस्लाम के अनुयायियों पर गु़लामी को जायज़ रखने का रात-दिन इल्ज़ाम लगाते रहे हैं। मानो नकटा किसी नाक वाले को ताना दे रहा है कि तेरी नाक छोटी है।

इस्लाम में गु़लामी की हैसियत

यहां संक्षेप में समझ लें कि इस्लाम में गु़लामी की हैसियत क्या है। अरब में जो लोग इस्लाम से पहले के गु़लाम चले आ रहे थे, उनके मामले को इस्लाम ने इस तरह हल किया कि हर मुमकिन तरीव़े$ से उनको आज़ाद करने की प्रेरणा दी गई। लोगों को हुक्म दिया गया कि अपने कुछ गुनाहों के प्रायश्चित के तौर पर उनको आज़ाद करें। अपनी ख़ुशी से ख़ुद किसी गु़लाम को आज़ाद करना एक बड़ी नेकी का काम क़रार दिया गया। यहां तक कहा गया कि आज़ाद करने वाले का हर अंग उस गु़लाम के हर अंग के बदले में नरक से बच जाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि ख़िलाफ़ते राशिदा के दौर तक पहुंचते-पहुंचते अरब के तमाम पुराने गु़लाम आज़ाद हो गए। (पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के बाद इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित शासन-प्रणाली एक अर्से तक क़ायम रही। यही दौर ख़िलाफ़ते राशिदा का दौर कहलाता है।)

अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने ख़ुद 63 गु़लाम आज़ाद किए। हज़रत आइशा (रज़ि॰) के आज़ाद किए हुए गु़लामों की तादाद 67 थी। हज़रत अब्बास (रज़ि॰) ने 70, हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि॰) ने एक हज़ार और अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि॰) ने बीस हज़ार गु़लाम ख़रीद कर आज़ाद कर दिए। ऐसे ही बहुत से सहाबा (रज़ि॰) के बारे में रिवायतों में तफ़सील आई है कि उन्होंने ख़ुदा के कितने बन्दों को गु़लामी से मुक्त किया था। इस तरह पुराने दौर की गु़लामी का मसला बीस-चालीस साल में हल कर दिया गया।

मौजूदा ज़माने में इस मसले का जो हल निश्चित किया गया है, वह यह है कि जंग के बाद दोनों तरफ़ के जंगी क़ैदियों का तबादला कर लिया जाए। मुसलमान इसके लिए पहले से तैयार थे, बल्कि जहाँ कहीं मुख़ालिफ़ पक्ष ने क़ैदियों के तबादले को क़ुबूल किया, वहाँ बग़ैर झिझक इस बात पर अमल किया गया। लेकिन अगर इस ज़माने की किसी लड़ाई में एक हुकूमत पूरे तौर पर हार खा जाए और जीतने वाली ताक़त अपने आदमियों को छुड़ा ले और हारी हुई हुकूमत बाक़ी ही न रहे कि अपने आदमियों को छुड़ा सके तो तजुर्बा यह बताता है कि पराजित क़ौम के क़ैदियों को गु़लामी से बदतर हालत में रखा जाता है। पिछले विश्व युद्ध में रूस ने जर्मनी और जापान के जो क़ैदी पकड़े थे, उनका अंजाम क्या हुआ। उनका आज तक हिसाब नहीं मिला है। कुछ नहीं मालूम कि कितने ज़िन्दा रहे और कितने मर-खप गए। उनसे जो ख़िदमतें ली गईं, वे गु़लामी की ख़िदमत से बदतर थीं। शायद फ़िरऔन के ज़माने में अहराम (Pyramids) बनाने के लिए गु़लामों से उतनी ज़ालिमाना ख़िदमतें न ली गई होंगी जितनी रूस में साइबेरिया और पिछड़े इलाक़ों को तरक़्क़ी देने के लिए जंगी क़ैदियों से ली गयीं।


Courtesy :
www.ieroworld.net
www.taqwaislamicschool.com
Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)