ईमान (भाग-3) – ‘तौहीद’
मनुष्य के जीवन पर ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) का प्रभाव
अब हम आपको यह बताएँगे कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ के मानने से मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, और इसको न माननेवाला इस लोक और परलोक में क्यों विफल-मनोरथ हो जाता है।
1. इस ‘कलमे’ पर ‘ईमान’ रखने वाला कभी संकीर्ण दृष्टि नहीं हो सकता। वह एक ऐसे ईश्वर को मानता है जो धरती और आकाश का बनानेवाला और सारे संसार का पालन-पोषण करनेवाला है। इस ईमान के बाद पूरे विश्व में कोई चीज़ भी उसको पराई नहीं दीख पड़ती। वह सबको अपनी ही तरह एक ही मालिक की सम्पत्ति और एक ही सम्राट की प्रजा समझता है। उसकी हमदर्दी और प्रेम और सेवा किसी सीमा में वै़$द नहीं रहती। उसकी दृष्टि वैसी ही व्यापक हो जाती है, जिस तरह ईश्वर का राज्य व्यापक है। यह अवस्था किसी ऐसे व्यक्ति को हासिल नहीं हो सकती जो बहुत से छोटे-छोटे ख़ुदाओं को मानता हो या ईश्वर में मानव के सीमित और अपूर्ण गुण मानता हो या सिरे से ईश्वर में विश्वास ही न रखता हो।
2. यह ‘कलमा’ मनुष्य में उच्चतम कोटि का स्वाभिमान और आत्मगौरव पैदा कर देता है। इसपर विश्वास रखनेवाला जानता है कि केवल एक ईश्वर ही सारी शक्तियों का मालिक है। उसके सिवा हानि-लाभ पहुँचाने वाला कोई भी नहीं। कोई मारने और जिलानेवाला नहीं, कोई अधिकारी और प्रभुत्वशाली नहीं। यह ज्ञान और विश्वास उसको ईश्वर के सिवा समस्त शक्तियों से बेनियाज़ और बेपरवाह और निर्भय कर देता है। उसका सिर सृष्टि के किसी भी जीव या निर्जीव के आगे नहीं झुकता, उसका हाथ किसी के आगे नहीं फैलता, उसके दिल में किसी की बड़ाई का सिक्का नहीं बैठता। यह विशेषता सिवाय ‘‘तौहीद’’ (एकेश्वरवाद) की धारणा के किसी और धारणा से पैदा नहीं होती। शिर्व$ (बहुदेववाद) और कुप्ऱ$ और नास्तिकता की अनिवार्य विशेषता यह है कि मनुष्य सृष्टि के जीव या निर्जीव आदि के आगे झुके, उनको हानि-लाभ का मालिक समझे, उनसे डरे और उन्हीं से आस बांधे।
3. यह ‘कलमा’ मनुष्य में स्वाभिमान के साथ विनम्रता भी पैदा करता है। इसका मानने वाला कभी अहंकारी और अभिमानी नहीं हो सकता। अपनी शक्ति और धन और योग्यता का घमंड उसके मन में समा ही नहीं सकता, क्योंकि वह जानता है कि उसके पास जो कुछ है ईश्वर ही का दिया हुआ है और ईश्वर को, जिस तरह देने का सामर्थ्य प्राप्त है उसी तरह वह छीन भी सकता है। इसके विपरीत नास्तिकता के साथ जब मनुष्य को किसी प्रकार की सांसारिक कुशलता प्राप्त होती है तो वह अहंकारी हो जाता है, क्योंकि वह अपनी कुशलता को केवल अपनी योग्यता का फल समझता है। इसी तरह ‘शिर्क’ (अनेकेश्वरवाद) और ‘कुफ़्र’ (अधर्म) के साथ भी गर्व का पैदा होना लाज़िमी है, क्योंकि मुशरिक (बहुदेववादी) और व्यक्ति अपने मन में यह समझता है कि ईश्वरों और देवताओं से उसका कोई विशेष सम्बन्ध है जो दूसरों को प्राप्त नहीं।
4. इस ‘कलमे’ पर विश्वास रखने वाला अच्छी तरह समझता है कि मन की शुद्धता और सदाचार के सिवा उसके लिए मुक्ति और कल्याण का कोई साधन नहीं, क्योंकि वह एक ऐसे ईश्वर पर विश्वास रखता है जो अपेक्षारहित, निस्पृह और परम-स्वतंत्र है, किसी से उसका कोई नाता नहीं, बेलाग न्याय करनेवाला है और किसी को उसके ईश्वरत्व में अधिकार या प्रभाव प्राप्त नहीं। इसके विपरीत मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) और काफ़िर लोग सदा झूठी आशाओं के सहारे जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें कोई समझता है कि ईश्वर का पुत्र हमारे लिए प्रायश्चित बन गया है। कोई ख़याल करता है कि हम ईश्वर के प्रिय हैं और हमें दंड मिल ही नहीं सकता, कोई यह समझता है कि हम अपने पूर्वजों से ईश्वर के यहाँ सिफ़ारिश करा लेंगे। कोई अपने देवताओं को भेंट-उपहार और पुजापा देकर समझ लेता है कि अब उसे संसार में सब कुछ करने का लाइसेंस (Licence) मिल गया है। इस प्रकार की झूठी धारणाएँ इन लोगों को सदा गुनाहों, पापों ओर दुष्कर्मों के जाल में पँ$साए रखती हैं और वह इनके भरोसे पर आत्मा की शुद्धता और सत्कर्म के प्रति सचेत नहीं रह पाते। रहे नास्तिक, तो उनका सिरे से यह विश्वास ही नहीं कि कोई सर्वोच्च सत्ता उनसे भले या बुरे कर्मों के विषय में पूछ-ताछ करने वाली भी है, अतएव वे संसार में अपने आपको आज़ाद समझते हैं, उनकी अपनी तुच्छ इच्छा उनका ईश होती है और वे उसी के दास होते हैं।
5. इस ‘कलमे’ को मानने वाला किसी हालत में निराश नहीं होता और न उसका दिल टूटता है। वह एक ऐसे ईश्वर पर ईमान रखता है जो धरती और आकाश के समस्त ख़ज़ानों का मालिक है। जिसकी कृपा और अनुग्रह असीम और अपरिमित है और जिसकी शक्तियाँ अनन्त हैं। यह ईमान उसको असाधारण शान्ति प्रदान करता है, उसे परितोष से सम्पन्न कर देता है और सदैव आशायुक्त रखता है। चाहे वह संसार के समस्त द्वारों से ठुकरा दिया जाए, समस्त साधनों का सम्बन्ध छिन्न-भिन्न हो जाए और समस्त उपाय और उपकरण एक-एक करके उसका साथ छोड़ दें, फिर भी एक ईश्वर का सहारा किसी दशा में भी उसका साथ नहीं छोड़ता और उसी के बल-बूते पर वह नई आशाओं के साथ कोशिश-पर-कोशिश किए चला जाता है। यह आत्म-संतोष और दिल का जमाव ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) की धारणा के अतिरिक्त और किसी धारणा से प्राप्त नहीं हो सकता। ‘मुशरिक’ (अनेकेश्वरवादी) और ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) और नास्तिक छोटे दिल के होते हैं, उनका भरोसा सीमित शक्तियों पर होता है, इसलिए कठिनाइयों में शीघ्र ही उन्हें निराशा घेर लेती है और बहुत से तो ऐसी दशा में आत्महत्या तक कर डालते हैं।
6. इस ‘कलमे’ पर विश्वास मनुष्य में संकल्प, साहस और धैर्य और अल्लाह पर भरोसे की प्रबल शक्ति पैदा कर देता है। वह जब ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दुनिया में बड़े कार्य सम्पन्न करने के लिए उठता है, तो उसके मन में यह विश्वास होता है कि मेरे पीछे धरती और आकाश के सम्राट की शक्ति है। यह भावना उसमें पर्वत की-सी मज़बूती पैदा कर देती है और संसार की सारी कठिनाइयाँ और कष्ट और विरोधी शक्तियाँ मिलकर भी उनको अपने संकल्प से डगमगा नहीं सकतीं।
‘शिर्क’ (बहुदेववाद) और कुफ़्र और नास्तिकता में यह शक्ति कहाँ?
7. यह ‘कलमा’ मनुष्य को वीर बना देता है। देखिए मनुष्य को कायर बनानेवाली वास्तव में दो चीज़ें होती हैं। एक तो प्राण, धन और बाल-बच्चों का मोह, दूसरे यह धारणा कि ईश्वर के सिवा कोई और मारनेवाला है, और यह कि इन्सान अपने उपायों से मृत्यु को टाल सकता है। ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का विश्वास इन दोनों चीज़ों को दिल से निकाल देता है। पहली चीज़ तो इसलिए निकल जाती है कि इसका मानने वाला अपने प्राण और धन और हर चीज़ का स्वामी ईश्वर ही को समझता है और उसकी प्रसन्नता के लिए सब कुछ निछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। रही दूसरी चीज़, तो वह इसलिए बाक़ी नहीं रहती कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ कहनेवाले के विचार में प्राण लेने की शक्ति किसी मनुष्य या जानवर या तोप या तलवार या लकड़ी या पत्थर में नहीं है। इसका अधिकार केवल ईश्वर को है और उसने मृत्यु का जो समय निश्चित कर दिया है उससे पहले संसार की समस्त शक्तियाँ मिलकर भी चाहें, तो किसी के प्राण नहीं ले सकतीं। यही कारण है कि अल्लाह पर ईमान रखनेवाले से अधिक वीर संसार में कोई नहीं होता। उसके मुक़ाबले में असत्य की तमाम शक्तियाँ विफल हो जाती हैं। जब वह सत्यमार्ग में असत्य के विरुद्ध संघर्ष के लिए बढ़ता है, तो अपने से दस गुनी शक्ति का भी मुँह पे$र देता है। ‘मुशरिक’ (बहुदेववादी) और ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) और नास्तिक यह ताक़त कहाँ से लाएँगे? उनको तो प्राण सबसे अधिक प्रिय होते हैं और वे यह समझते हैं कि मृत्यु दुश्मनों के लाने से आती है और उनके भगाने से भाग सकती है।
8. ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का विश्वास मनुष्य में संतोष और निःस्पृहता का गुण पैदा कर देता है। लोभ एवं लोलुपता और ईष्र्या एवं डाह की तुच्छ भावनाओं को उसके दिल से निकाल देता है। सफलता प्राप्त करने के अवैध और नीच उपायों को अपनाने का ख़याल तक उसके मन में नहीं आने देता। वह समझता है कि रोज़ी अल्लाह के हाथ में है जिसको चाहे अधिक दे, जिसको चाहे कम दे। इज़्ज़त और शक्ति और यश और राज्य सब कुछ ईश्वर के अधिकार में है। वह गुप्त भलाई के मुताबिक़ जिसको जितना चाहता है देता है। हमारा काम केवल अपनी हद तक उचित प्रयत्न करना है। सफलता और असफलता ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। वह यदि देना चाहे, तो संसार की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती और न देना चाहे, तो कोई शक्ति दिला नहीं सकती। इसके विपरीत ‘मुशरिक’ और ‘काफ़िर’ और ‘नास्तिक’ अपनी सफलता और असफलता को अपने प्रयत्न और सांसारिक शक्तियों की सहायता या विरोध पर टिका हुआ समझते हैं इसलिए उनपर लोभ और लोलुपता पूर्ण अधिकार जमाए हुए होती है। सफलता प्राप्त करने के लिए रिश्वत, चापलूसी, साज़िश और हर प्रकार के नीचतम साधनों को अपनाने में उन्हें हिचक नहीं होती। दूसरों की सफलता पर ईष्र्या और डाह में जले मरते हैं और उनको नीचा दिखाने के किसी बुरे-से-बुरे उपाय को भी नहीं छोड़ते।
9. सबसे बड़ी चीज़ यह है कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर विश्वास मनुष्य को ईश्वर के क़ानून का पाबन्द बनाता है। इस कलमे पर ईमान लानेवाला यक़ीन रखता है कि ईश्वर हर छिपी और खुली चीज़ की ख़बर रखता है। वह हमारी शाह-रग से भी अधिक समीप है। यदि हम रात के अंधकार में और एकांत कमरे में भी कोई पाप करें, तो ईश्वर को उसकी ख़बर हो जाती है। यदि हमारे दिल की गहराई में भी कोई बुरा इरादा पैदा हो तो ईश्वर तक उसकी सूचना पहुँच जाती है। हम सबसे छिपा सकते हैं, परन्तु ईश्वर से नहीं छिपा सकते, सबसे भाग सकते हैं परन्तु ईश्वर के राज्य से नहीं निकल सकते। सबसे बच सकते हैं, परन्तु ईश्वर की पकड़ से बचना नामुमकिन है। यह विश्वास जितना मज़बूत होगा उतना ही अधिक मनुष्य अपने ईश्वर के आदेशों का पालन करेगा। जिस चीज़ को ईश्वर ने हराम (अवैध) किया है वह उसके पास भी न फटकेगा और जिस चीज़ का उसने आदेश दिया वह उसको एकान्त और अंधकार में भी मानेगा, क्योंकि उसके साथ एक ऐसी पुलिस लगी हुई है जो किसी हालत में उसका पीछा नहीं छोड़ती और उसको ऐसी अदालत (Court) का खटका लगा हुआ है, जिसके वारंट (Warrant) से वह कहीं भाग ही नहीं सकता। यही कारण है कि मुस्लिम होने के लिए सबसे पहली और ज़रूरी शर्त ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर ईमान लाना है। जैसा कि आपको शुरू में बताया जा चुका है, मुस्लिम का अर्थ है ईश्वर का आज्ञाकारी बन्दा (सेवक), और ईश्वर का आज्ञाकारी होना संभव ही नहीं जब तक कि मनुष्य इस बात पर विश्वास न करे कि अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षा में यह अल्लाह पर ईमान सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक चीज़ है। यह इस्लाम का केन्द्र है, उसका मूल है, उसकी शक्ति का उद्गम है। इसके अतिरिक्त इस्लाम की जितनी धारणाएँ और आदेश और क़ानून हैं सब इसी आधार पर स्थित हैं और उन सबको इसी केन्द्र से शक्ति पहुँचती है। इसको हटा देने के बाद इस्लाम कोई चीज़ नहीं रहता।
Courtesy :
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Taqwa Islamic School
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