Tipu Sultan ki Asli Taqat Unki Rocket Pradyoki Thi

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टीपू सुल्तान की असली ताकत उनकी रॉकेट प्रौद्योगिकी थी

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‘मैसूर का शेर’ कहे जाने वाले टीपू सुल्तान की असली ताकत उनकी रॉकेट प्रौद्योगिकी थी। उनके रॉकेट अंग्रेजों के लिए अनुसंधान का विषय बन गए थे।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने एक बार बेंगलूर के टीपू सुल्तान शहीद मेमोरियल में अयोजित एक कार्यक्रम में टीपू को विश्व का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक करार दिया था।

भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब ‘विंग्स ऑफ़ फ़ायर’ में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी। कलाम लिखते हैं “मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था। वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते”।

इतिहास के प्रोफेसर केके उपाध्याय के अनुसार टीपू की सबसे बड़ी ताकत उनकी रॉकेट प्रौद्योगिकी थी। टीपू की सेना ने रॉकेटों के जरिए अंग्रेजों और निजामों को तितर बितर कर दिया था। ये दिवाली वाले रॉकेट से थोड़े ही लंबे होते थे। टीपू के ये रॉकेट इस मायने में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं कि इन्होंने भविष्य में रॉकेट बनाने की नींव रखी।

टीपू की शहादत के बाद अंग्रेजों ने रंगपट्टनम में दो रॉकेटों पर कब्जा कर लिया था और वे इन्हें 18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन स्थित वूलविच म्यूजियम आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए थे।

बीस नवम्बर 1750 को देवनहल्ली (वर्तमान में कर्नाटक का कोलर जिला) में जन्मे टीपू सुल्तान के पिता का नाम हैदर अली था।

वह बहादुर और रण चातुर्य में दक्ष थे. टीपू ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने कभी नहीं झुके और अंग्रेजों से जमकर संघर्ष किया।

मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की उन्होंने अंग्रेजों ही नहीं बल्कि निजामों को भी धूल चटाई. अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया। मैसूर की तीसरी लड़ाई में जब अंग्रेज टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने टीपू के साथ मेंगलूर संधि की लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम से मिलकर चौथी बार टीपू पर भीषण हमला कर दिया और आखिरकार चार मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए मैसूर का यह शेर शहीद हो गया।

टीपू ने 1782 में अपने पिता के निधन के बाद मैसूर की कमान संभाली थी। उन्होंने सड़कों सिंचाई व्यवस्था और अन्य विकास कार्यों की झड़ी लगाकर अपने राज्य को समृद्ध क्षेत्र में तब्दील कर दिया था और यह व्यापार क्षेत्र में काफी आगे था। उन्होंने कावेरी नदी पर एक बांध की नींव रखी। इसी जगह पर आज कृष्णासागर बांध है।

टीपू सुल्तान का कम से कम एक योगदान ऐसा है जो उन्हें इतिहास में एक अलग और पक्की जगह दिलाता है। टीपू के सांप्रदायिक होने या न होने पर बहस छिड़ी है. लेकिन उसके एक कारनामे को लेकर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है।

असल में टीपू और उनके पिता हैदर अली ने दक्षिण भारत में दबदबे की लड़ाई में अक्सर रॉकेट का इस्तेमाल किया। ये रॉकेट उन्हें ज्यादा कामयाबी दिला पाए हों ऐसा लगता नहीं। लेकिन ये दुश्मन में खलबली ज़रूर फैलाते थे। उन्होंने जिन रॉकेट का इस्तेमाल किया वो बेहद छोटे लेकिन मारक थे। इनमें प्रोपेलेंट को रखने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था। ये ट्यूब तलवारों से जुड़ी होती थी। ये रॉकेट करीब दो किलोमीटर तक मार कर सकते थे।

माना जाता है कि पोल्लिलोर की लड़ाई (आज के तमिलनाडु का कांचीपुरम) में इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया था। 1780 में हुई इस लड़ाई में एक रॉकेट शायद अंग्रेज़ों की बारूद गाड़ी में जा टकराया था। अंग्रेज़ ये युद्ध हार गए थे।

टीपू के इसी रॉकेट में सुधार कर अंग्रेज़ों ने उसका इस्तेमाल नेपोलियन के ख़िलाफ़ किया। हालांकि ये रॉकेट अमरीकियों के ख़िलाफ़ युद्ध में कमाल नहीं दिखा सका, क्योंकि अमरीकियों को किलेबंदी कर रॉकेट से निपटने का गुर आता था। 19वीं सदी के अंत में बंदूक में सुधार की वजह से रॉकेट एक बार फिर चलन से बाहर हो गया। 1930 के दशक में गोडार्ड ने रॉकेट में तरल ईंधन का इस्तेमाल किया।

लेकिन भारत की धरती पर रॉकेट तभी वापस आया जब 60 के दशक में विक्रम साराभाई ने भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू किया।


Source: TeesriJung

Courtesy :
www.ieroworld.net
www.taqwaislamicschool.com
Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)


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