Hazrat Muhammad (saw) : Jeevan, Charitra, Sandesh, Kraanti

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हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) : जीवन, चरित्र, सन्देश, क्रान्ति

1इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰), अत्यंत लम्बी ईशदूत-श्रृंखला में एकमात्र ईशदूत हैं जिनका पूरा जीवन इतिहास की पूरी रोशनी में बीता। इस पहलू से भी आप उत्कृष्ट हैं कि आपकी पूरी ज़िन्दगी का विवरण, विस्तार के साथ शुद्ध, विश्वसनीय व प्रामाणिक रूप से इतिहास के पन्नों पर सुरक्षित है। जन्म से देहावसान तक, एक-एक बात का ब्यौरा; छोटी से बड़ी हर गतिविधि, हर कथनी-करनी और पूरा जीवन-वृत्तांत रिकार्ड पर है। संसार में कोई भी व्यक्ति, जो आपकी जीवनी, आपका जीवन-चरित्र, आपका संदेश और मिशन जानना चाहे तथा आप द्वारा लाई हुई अद्भुत, अद्वितीय, समग्र व सम्पूर्ण क्रान्ति का अध्ययन करना चाहे, और यह समझना चाहे कि 1400 से अधिक वर्षों से अरबों-खरबों लोग, एवं आज लगभग डेढ़ अरब (एक सौ पचास करोड़) लोग दुनिया भर में आप से सबसे ज़्यादा (अपने माता-पिता, संतान व परिजनों से भी ज़्यादा) प्रेम क्यों करते हैं, आप पर जान निछावर क्यों करते हैं; आपकी श्रद्धा से उनका सारा व्यक्तित्व ओत-प्रोत क्यों रहता है और आपके अनादर व मानहानि की छोटी-बड़ी किसी भी घटना पर अत्यंत व्याकुल और दुखी क्यों हो जाते हैं; और आख़िर क्या बात है कि डेढ़ हज़ार वर्ष के अतीत में, और वर्तमान युग में भी, ऐसे असंख्य लोग रहे हैं जो आपके ईशदूत्व पर ईमान न रखने (अर्थात् मुस्लिम समुदाय में न होने) के बावजूद आपकी महानता के स्वीकारी रहे तथा आपके प्रति श्रद्धा, सम्मान की भावना रखते आए हैं; आख़िर क्या बात है कि एक पाश्चात्य मसीही शोधकर्ता (माइकल हार्ट) पिछली लगभग 2-3 शताब्दियों के मानव-इतिहास से चुने हुए 100 महान व्यक्तियों में से, महात्म्य की कसौटी पर परखते हुए हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को प्रथम स्थान देता है; तो यह जानने के लिए उस व्यक्ति को विश्व के हर भाग में, संसार की लगभग तमाम प्रमुख भाषाओं में (और हमारे देश की सारी क्षेत्रीय भाषाओं में भी लिखित-प्रकाशित) सामग्री उपलब्ध है। (सल्ल॰=‘सल्ल-अल्लाहु अलैहि व सल्लम’—अर्थात—‘आप पर ईश्वर की अनुकंपा व सलामती हो’।)

जीवनी

मुहम्मद (सल्ल॰) अरब प्रायद्वीप (Arabian Penisula) में ‘हिजाज़’ (अब सऊदी अरब) के मरुस्थलीय क्षेत्र में, सूखे पहाड़ों से घिरी एक घाटी ‘बक्का’ में स्थित छोटे से शहर ‘मक्का’ में 20 अप्रैल 571 ई॰ को सोमवार की सुबह पैदा हुए। आपके पिता ‘अब्दुल्लाह’ और माता ‘आमिना’ थीं। आप अरब के प्रतिष्ठित क़बीले ‘क़ुरैश’ और प्रतिष्ठित ख़ानदान ‘बनी-हाशिम’ से थे। जन्म से कुछ महीने पहले ही पिता का देहांत हो गया था। यूँ, आप जन्मजात अनाथ (यतीम) थे। छः वर्ष बाद माता का भी देहांत हो गया था। फिर आपका पालन-पोषण दादा ‘अब्दुल मत्तलिब’ ने किया। आपकी आठ वर्ष की उम्र में दादा भी चल बसे। ईश्वर को यही मंज़ूर था कि आपका बचपन व लड़कपन रंज, ग़म और मानसिक आघातों को झेलते हुए बीते; विषम परिस्थितियों में आपके व्यक्तित्व की उठान हो और नवजवानी की अवस्था से ही जीवन एक ‘संघर्ष’ बन जाए; क्योंकि जीवन का अगला पूरा चरण प्रतिकूल व विषम परिस्थितियों के बीच घोर संघर्ष में ही बीतना था। अब आपका पालन-पोषण आपके चचा ‘अबू-तालिब’ ने किया। आपकी दो बहनें थीं जिनका कुछ वर्षों की आयु में देहांत हो गया था, भाई कोई न था।
आप जीविकोपार्जन के लिए तिजारत करते थे। शहर की एक प्रतिष्ठित महिला व्यापारी ‘ख़दीजा’ ने आपको शादी का पैग़ाम दिया। वो दो बार की विधवा थीं, उम्र 40 वर्ष थी। आपकी उम्र 25 वर्ष थी। शादी हो गई। इनसे आपकी चार बेटियाँ हुईं—जै़नब, रुवै़$या, उम्मे कुल्सूम, फ़ातिमा। दो बेटे हुए, क़ासिम और अब्दुल्लाह; इनकी कम उम्र में ही मृत्यु हो गई। आपका देहावसान 63 चाँद्र-वर्ष (61 सौर-वर्ष) की उम्र में हुआ। मदीना नगर की मस्जिद में (जिसे मक्का से 723 ई॰ में इस नगर को प्रस्थान करने पर आपने बनाई थी) दक्षिण-पूर्वी कोने में आप (सल्ल॰) दफ़्न हैं।

चरित्र

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) लड़कपन से ही बहुत शांत, मृदुल और सीधे-सादे, नेक स्वभाव के थे। समाज में पै$ली बुराइयों से सर्वथा दूर और अलग रहते थे। समाज में मूर्ति-पूजा व्याप्त थी लेकिन आपने कभी मूर्तिपूजा न की। ईश्वर को आप से, आगे चलकर एकेश्वरवाद का आह्वान कराना तथा मूर्तिपूजा का खण्डन कराना अभीष्ट था। आप सत्यवादी थे, ग़रीबों, अनाथों, दुखियारों, विधवाओं, असहायों की मदद करना आपके चरित्र का सबसे उभरा हुआ पहलू था। अत्यंत सादा जीवन बिताते, मोटा-झोटा पहनते, साधारण खाना खाते। ज़मीन पर चटाई पर सोते, घर-गृहस्ती के काम ख़ुद कर लेते। अमानतदार ऐसे थे कि नगर के लोग अपनी अमानतें आपके पास धरोहर रखवाया करते, यहाँ तक कि आगे चलकर जब पैग़म्बर की हैसियत से आपने एकेश्वरवाद का आह्नान दिया, मूर्तिपूजा और बहुदेववाद का खण्डन किया और इस कारणवश पूरा शहर मक्का आपको अपना ख़तरनाक दुश्मन मान बैठा, विरोध और प्रताड़नाओं की चक्की चल गई; बड़े-बड़े विरोधी और शत्रु भी अपनी अमानतें आपके पास ही रखवाते। क्षमाशीलता ऐसी थी, इतनी थी कि बड़े-बड़े शत्रुओं और कष्ट देने वालों एवं बुरा से बुरा अपमान करने वालों से भी बदला न लेते, क्षमा कर देते। पैग़म्बरी जीवन के, शुरू के 13 वर्षों तक घोर अपमान, यातनाएँ देने यहाँ तक कि जन्मभूमि मक्का को छोड़कर 450 किलोमीटर दूर शहर मदीना को प्रस्थान पर मजबूर कर देने, और वहाँ भी बार-बार युद्ध पर मजबूर कर देने वाले मक्कानिवासियों पर, जब 8 वर्ष बाद आपने विजय प्राप्त की और वह दिन प्रतिशोध व सज़ा-यातना का दिन था, आपने दो-एक को छोड़, सारे मक्कावासियों को आम क्षमादान (General Amnesty) प्रदान कर दिया। धर्ती-आकाश चकित रह गए महान चरित्र का यह रूप देखकर। मानव इतिहास आज तक भौंचक्का है आचरण के महात्म्य व उत्कृष्टता के इस दृश्य पर।

पैग़म्बरी (ईशदूतत्व)

चालीस वर्ष की उम्र को पहुँचते-पहुँचते आप में चिन्तन-मनन की ऐसी शक्ति पैदा हो गई जो आपको घर से लगभग दो-ढाई किलोमीटर दूरी पर स्थित एक पहाड़ी की गुफा तक ले गई। कई-कई रात-दिन आप वहाँ के शांत वातावरण में एकांतवास करते और सोचा करते कि जीवन क्या है? इस जीवन के बाद क्या है? ईश्वर है तो, परन्तु उसकी वास्तविकता क्या है? इन्सान पैदा किस लिए किया गया है? उचित जीवन-शैली क्या है? ईश्वर और मनुष्य के बीच संबंध क्या है, इसे वै$सा होना चाहिए? ईश्वर की उपासना क्या है, यह वै$से की जाए? मानवजाति का अभीष्ट क्या है, उसकी आख़िरी मंज़िल क्या है…आदि-आदि।

इसी अवस्था में एक दिन फ़रिश्ता जिब्रील के माध्यम से गुफा के अन्दर ही ईश प्रकाशना (वह्य, Divine Revelation) अवतरित हुई और क़ुरआन की पाँच आयतों (96%1-5) से ईशग्रंथ ‘क़ुरआन’ का अवतरण आरंभ हुआ। उस समय आपकी उम्र 40 वर्ष 11 दिन थी। कुछ दिन बाद कुछ और आयतें (सूरः 74-मद्दस्सिर) अवतरित हुईं, इससे आप ‘ईशदूत’ नियुक्त हुए। ईश्वर की ओर से आदेश आया कि: उठ खड़े हो, लोगों को (अधर्म, शिर्व$ अर्थात् बहुदेववाद व मूर्तिपूजा आदि के अनैचित्य तथा इनके लौकिक व पारलौकिक दुष्प्रभावों, हानियों व दुष्परिणामों की) चेतावनी दो, अल्लाह की महानता व महिमा बयान करो, अपना वस्त्र व शरीर हर प्रकार की अपवित्रता से पाक व पवित्र रखो, किसी पर एहसान जताने, उसे बाद में तंग करने, सताने, क्षुब्ध करने के लिए एहसान मत करो…।

आपका पैग़म्बराना आह्नान एकेश्वरवाद की ओर बुलाने और बहुदेववाद को छोड़ देने की शिक्षा से आरंभ हुआ और इसमें परलोकवाद की इस्लामी अवधारणा शामिल हो गई।

अनुकूल व प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ

इस पैग़म्बराना मिशन की कुछ अनुकूल प्रतिक्रिया हुई और अधिकतर प्रतिकूल और विरोध की प्रतिक्रिया। कुछ लोगों (स्त्रियों, पुरुषों, नवयुवकों) ने इस पुकार को स्वीकार करके इस्लाम ग्रहण कर लिया और मुहम्मद (सल्ल॰) के अधीन रहकर शिक्षा-दीक्षा तथा नैतिक प्रशिक्षण के मरहले से गुज़रते हुए दूसरों को इस्लाम का संदेश भी पहुँचाते रहे। बहुदेववादी बुतपरस्त समाज में एकेश्वरवादी तथा मात्रा एक ईश्वर की पूजा-उपासना व आज्ञापालन करने वाले समुदाय की संरचना होने लगी। उधर अधिकतर लोगों ने यह कहकर आपका और मुस्लिम समुदाय का विरोध शुरू कर दिया कि यह धर्म, हमारे पूर्वजों के धर्म से अलग, भिन्न, मुख़ालिफ़ और दुश्मन धर्म है। न हम इसे स्वीकार करेंगे, न दूसरों को ही स्वीकार करने देंगे, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े, कितना भी आगे तक बढ़ना पड़े।

विरोध, यातना, क्रूरता, अत्याचार, प्रताड़ना की परिस्थिति

शुरू में तरह-तरह की लालच और अनेक प्रलोभनों से आप (सल्ल॰) को इस्लाम के प्रचार से रोकने की कोशिशें की गईं, फिर डराया-धमकाया गया, फिर अपमानित किया गया, रास्ते में काँटे डाले गए, ऊपर कूड़ा फेंका गया, इबादत की अवस्था में बकरी की ओझड़ी ऊपर डाल दी गई। गर्दन में चादर डालकर उसे ऐंठ कर दम घोंट कर मार डालने का प्रयास किया गया। एक बहादुर व्यक्ति आपको क़त्ल कर देने के लिए नंगी तलवार लेकर घर से निकल खड़ा हुआ, चचा (अभिभावक व संरक्षक ‘अबू-तालिब’) पर ज़बरदस्त दबाव डाला गया कि वह बीच से हट जाएँ और आप (सल्ल॰) का ‘काम तमाम’ कर दिया, अर्थात आपको ख़त्म कर दिया जाए। यह सब होता रहा और आप सब्र, बर्दाश्त व धैर्य का पहाड़ बने, मानवता-हित में जुटे रहे, अल्लाह से रो-रोकर, सत्य पथ पर अडिग रहने और दुश्मनों के, सन्मार्ग पर आने की दुआ करते रहे।

उधर जो लोग इस्लाम स्वीकार कर लेते उन्हें मारा-पीटा जाता, तेज़ तपती रेत पर नंगी पीठ लिटा कर छाती पर भारी पत्थर रख दिया जाता, कोड़े बरसाए जाते, चटाई में लपेट कर धुआँ दिया जाता, स्वयं उनके परिवारजन ही उनका खाना-पीना बन्द कर देते, गालियाँ दी जातीं, मुँह पर थूका जाता लेकिन आप (सल्ल॰) की पैग़म्बरी पर विश्वास, ईश्वर से व्यक्तिगत मानसिक, आध्यात्मिक व भावुक संबंध तथा ईमान का स्वाद, नव-मुस्लिमों को ये यातनाएँ व अत्याचार-अपमान सब्र के साथ बर्दाश्त करने का धैर्य व संकल्प प्रदान करता रहा। इस्लाम इन प्रतिकूलताओं के बीच पनपता, पै$लता, बढ़ता, लोगों के मन-मस्तिष्क में घर करता उन्नति की ओर अग्रसर रहा। साथ ही जु़ल्म की चक्की चलती रही। जब स्थिति आम लोगों के लिए असह्य हो गई तो आप (सल्ल॰) ने साथियों को अनुमति दी कि वे हबशा (इथोपिया) चले जाएँ। कुछ दिन बाद हबशा को दूसरा पलायन हुआ। 82 मर्द, 18 औरतें मक्का छोड़ कर हबशा चली गईं। विरोधियों ने वहाँ तक पीछा किया लेकिन मुसलमानों को वहाँ से निकलवा लाने में असफल रहे।

बहिष्कार (बॉयकाट)

इस सब के बाद आपका पूर्ण बहिष्कार (Boycott) कर दिया गया। आपको, आपके साथियों (मर्दों, औरतों) को, उनके परिवारजनों को, और ख़ानदान के सारे लोगों को, चाहे वे मुस्लिम हों या ग़ैर-मुस्लिम, शहर के बाहर की एक घाटी में शरण लेने पर विवश कर दिया गया। यह हुक्मनामा लिखकर काबा पर लगा दिया गया कि कोई भी व्यक्ति उन लोगों से मिलेगा नहीं, खाने-पीने का सामान उन तक पहुँचने न देगा, सारे नाते-रिश्ते और मानवीय संबंध तोड़ दिए जाएँगे। इस स्थिति में आप और मुसलमानों ने कुछ दिन, सप्ताह, या महीने नहीं, पूरे तीन साल व्यतीत किए। घास खाई जाती, जूते का चमड़ा उबाल कर उसका पानी पिया जाता। नन्हे-नन्हे बच्चे बिलखते, छोटे-छोटे बच्चे भूख से रोते-चिल्लाते तो रातों को इनकी आवाज़ें मक्का-निवासियों के कानों में भी पड़तीं लेकिन पत्थर जैसे कठोर दिलों में न उतरतीं। अन्ततः कुछ लोगों में इन्सानियत ने ज़ोर मारा और वह हुक्मनामा नोचकर फाड़ डाला गया, आप (सल्ल॰) साथियों समेत शहर वापस आ गए। इसी बीच जबकि पैग़म्बरी का दसवाँ साल था, आप (सल्ल॰) पर एक बार फिर ग़म के दो पहाड़ टूटे। आप के संरक्षक अभिभावक ‘अबू तालिब’ का देहांत हो गया और दो माह बाद जीवनसंगिनी ‘ख़दीजा’ भी चल बसीं।

आपने देखा कि मक्का की धरती, अपने कुछ सपूतों को इस्लाम की शरण में देकर, और अधिक फ़सल देने से असमर्थ, बंजर हो गई है तो मक्का से बाहर की दुनिया पर ध्यान केन्द्रित किया।

मक्का से बाहर इस्लाम का पैग़ाम

पैग़म्बरी के दसवें साल (मई अंत, या जून आरंभ, 619 ई॰ में) आप (सल्ल॰) ने मक्का से लगभग 90 किलोमीटर दूर स्थित शहर ‘ताइफ़’ का सफ़र पैदल तय किया, कि वहाँ के लोगों को इस्लाम का संदेश दें। आशा के विपरीत, उन लोगों ने आपके पैग़ाम का इन्कार किया, आपकी हँसी उड़ाई, आप पर पत्थरों की ऐसी बौछार की कि शरीर लहू-लुहान हो गया यहाँ तक कि ख़ून बह-बहकर जूतियों में जम गया। लौंडों के हवाले कर दिया जो आप पर ठट्ठे लगाते, शोर मचाते, तालियाँ पीटते, सीटी बजाते, पत्थर मारते, धक्का देकर गिरा देते, आप उठकर चलने लगते तो फिर धकेल कर गिरा देते। आप दस दिन तक ताइफ़ वालों को सिर्फ़ एक बात समझाने का प्रयास करते रहे कि मेरे संदेश में मेरा कोई स्वार्थ नहीं है। ईश्वर को ‘मात्र एक’ मान लो, परलोक-जीवन पर विश्वास कर लो, मैं तुम्हारे ही हित में एक पैग़म्बर की हैसियत से तुम्हें ईशमार्ग पर बुला रहा हूँ। लेकिन उन अभागों ने न सिर्प़$ इसे माना नहीं बल्कि एक पैग़म्बर को इतना सताया जिसकी कोई मिसाल पैग़म्बरों के इतिहास में नहीं मिलती। (बाद में कभी आपने अपनी एक पत्नी से कहा कि ताइफ़ जैसे सख़्त दिन मुझ पर कभी नहीं गुज़रे)।

आपने एक बाग़ में शरण लिया, अल्लाह से, अपनी कमज़ोरी व बेबसी का शिकवा करके उसके प्रकोप से पनाह की दुआ माँगी और अपनी यह कामना और संकल्प अल्लाह के समक्ष पेश किया कि मैं सिर्फ़ तेरी प्रसन्नता का अभिलाषी हूँ और तेरी ही शरण चाहता हूँ। आपको वह्य हुई कि आप चाहें तो ताइफ़ वालों को भूकंप द्वारा अगल-बग़ल की पहाड़ियों के बीच पीस कर, विनष्ट करके रख दिया जाए। साक्षात् दया, करुणा, क्षमाशीलता—हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का उत्तर था: नहीं मेरे अल्लाह, इन पर प्रकोपित न हो, ये मुझे और मेरे संदेश को समझते नहीं; ये नहीं, तो इनकी अगली सन्तानें इसे समझ लेंगी……।

मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार

हर साल हज के अवसर पर शहर मदीना (मक्का से लगभग साढ़े चार सौ किलोमीटर उत्तर में स्थित नगर, जो आपका नानिहाली नगर भी था) से सैकड़ों लोग हज करने मक्का आते थे। रात के अंधेरे में आप उनके कैम्पों में जाते और इस्लाम का संदेश देते। जुलाई सन् 620 ई॰ में छः लोगों ने इस्लाम क़बूल कर लिया और यह बात तय पाई कि वे वापस जाकर मदीना में इस्लाम का प्रचार करेंगे। अगले साल हज (जुलाई 621 ई॰) में इन पाँच व्यक्तियों के साथ सात और लोग (सबके नाम इतिहास के पन्नों पर अभिलिखित हैं।) आप से मिले और इस्लाम क़बूल किया। अगले साल (जून 622 ई॰) मक्का से 75 मुसलमान हज के लिए आए और इस्लाम व पैग़म्बर से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों का संकल्प किया। उनके मदीना वापस जाने के बाद आपने अपने साथियों को मदीना जाकर बस जाने की अनुमति दे दी। जब वे लोग अपनी जन्म भूमि, अपना शहर, वतन, घर-बार छोड़कर जाने लगे तो उन्हें बहुत सताया गया। नगर मक्का में हाहाकार मच गई।

पैग़म्बर की हत्या का फ़ैसला

मक्का में 12 सितम्बर 622 ई॰, वृहस्पतिवार, दोपहर से पहले मक्का के सारे क़बीलों के प्रतिनिधियों की (उनके नाम इतिहास के रिकार्ड पर हैं) बैठक हुई। इस्लाम को रोकने और आप (सल्ल॰) को इस्लाम के आह्वान से बाज़ रखने के कई सुझाव आए। विचार-विमर्श के बाद एक-एक सुझाव नकार दिया गया। अंततः इस सुझाव पर सब लोग सहमत हो गए कि आप (सल्ल॰) की हत्या कर दी जाए, न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। हत्या की तैयारी पूरी कर ली गई, तरीक़ा निश्चित कर लिया गया। लेकिन वे अपनी चाल चल रहे थे, अल्लाह अपनी तदबीर कर रहा था।

मदीना को प्रस्थान (हिजरत)

अल्लाह की ओर से वह्य आई कि आप मदीना चले जाने की तैयारी करें। हिजरत की रात भी निश्चित कर दी गई और आदेश दिया गया कि उस रात आप अपने बिस्तर पर न सोएँ। आपने अपने साथी अबूबक्र (रज़ि॰) और एक ऊँटनी के साथ तैयारी कर ली, निर्धारित रात को ही दुश्मनों ने आपके घर का घेराव कर लिया था। आप (सल्ल॰) ने अपने चचेरे भाई हज़रत अली (रज़ि॰) को, उन्हीं मक्कावासियों की (जो आपके ख़ून के प्यासे थे) अमानतें देकर कहा कि इन्हें फ़लाँ-फ़लाँ को लौटा देना और ख़ुद मदीना चले आना। रात के अंधेरे में आप घर से निकले। अल्लाह की तदबीर यह हुई कि कुछ क्षणों के लिए दुश्मनों को झपकी आ गई। उसी बीच आप निकल गए। दूर एक सेवक ऊँट लिए खड़ा था। आपने अबूबक्र (रज़ि॰) को उनके घर से साथ लिया, ऊँट पर सवार हुए। मदीना से विपरीत दिशा (दक्षिण) की ओर चले। कुछ दूर स्थित ‘सौर’ नामक पहाड़ की गुफा में जा बैठे। यह मालूम होने पर कि हज़रत मुहम्मद तो घर में हैं ही नहीं, उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ लाने के बड़े-बड़े इनाम की घोषणा करके उनकी तलाश में चारों ओर घुड़सवार दौड़ा दिए गए। जब वे नाकाम वापस हो गए तो आप (सल्ल॰) हज़रत अबूबक्र (रज़ि॰) के साथ गुफा से निकले और मदीना जाने वाला मुख्य मार्ग छोड़कर पश्चिम जाकर लाल सागर के समानांतर उत्तर की ओर चलते-चलते, और फिर उत्तर-पूर्व को मुड़कर दस दिन बाद मदीना पहुँच गए।

नगर ‘मदीना’ में भव्य स्वागत

मदीना पहुँचने की ख़बर पाकर लगभग पूरा मदीना शहर आपके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा। वहाँ आपको स्नेह मिला, प्रेम मिला, आदर मिला, अपनाइयत मिली, सहयोग मिला और ऐसे-ऐसे लोग मिले जिन्होंने इस्लाम के लिए आपका साथ देने और प्रतिकूल परिस्थितियों में आपके आदेश पर आपकी और इस्लाम की रक्षा में सब कुछ—यहाँ तक कि अपनी जान भी—निछावर कर देने का संकल्प किया, शपथ खाई।

मक्कावासियों की धमकी

उधर मक्कावासियों ने अपनी विफलता से खीझ कर सन्देश भेजा: ‘यह मत समझना कि यहाँ से चले गए हो तो तुम बच गए, और आराम से इस्लाम का प्रचार-प्रसार करते रहोगे। हम वहीं आकर तुम्हारा सर्वनाश कर देंगे।

युद्ध—और बार-बार युद्ध

अपने इरादों के अनुसार मक्कावासियों ने युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दीं, इधर आप (सल्ल॰) ने भी प्रतिरक्षात्मक युद्ध की तैयारी शुरू कर दी और उन लोगों को यह इशारे दिए कि अब हम तुम्हारे लिए ‘नर्म चारा’ नहीं हैं। पहला युद्ध बहुत जल्द ही मदीना से थोड़ी दूर ‘बद्र’ नामक स्थान पर हुआ। मक्कावासियों की सेना में 1000 लोग थे, इस्लामी फ़ौज में 313 आदमी। घमासान का रण पड़ा। इस्लामी सेना विजयी हुई। उसकी कमान ख़ुद आप (सल्ल॰) ने संभाल रखी थी।

इसके बाद आठ वर्ष तक युद्ध होते रहे। ऐसे युद्धों (ग़ज़वों) की संख्या जिनमें आप ख़ुद शरीक रहे 23 थी, इनकी कमान आप ही ने संभाली थी। छोटे-छोटे 30 युद्धों या मामूली टकराव की घटनाओं (सिराया) में आप शरीक नहीं थे। आठ साल बाद 10,000 का लश्कर लेकर आपने मक्का पर चढ़ाई कर दी (इससे अनुमान होता है कि इतने कम समय में मुसलमानों की कुल संख्या लगभग 50,000 तो हो गई होगी। यह मुहम्मद (सल्ल॰) के धैर्य, निष्ठा, संकल्प और सत्यमार्ग में घोर व निरंतर संघर्ष तथा उत्सर्ग का, एवं ईश्वरीय सहायता व सहयोग का परिणाम था)। मक्कावासियों ने बिना मुक़ाबला किए, समर्पण का दिया। लेकिन वे अपने 13 वर्षीय कुकर्मों व अत्याचारों के परिणाम व प्रतिशोध से अत्यंत भयभीत भी थे।

आप (सल्ल॰) ने उद्घोषणा की:

‘‘आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं, जाओ, सब आज़ाद हो।’’

आसमान की नज़रों, धरती की आँखों और इतिहास के पन्नों ने बड़प्पन, विशालहृदयता और दयाशीलता व क्षमादान का ऐसा दृश्य न इससे पहले कभी देखा था, न इसके बाद कभी देख सके। इस सदाचरण व सद्व्यवहार का ऐसा प्रभाव पड़ा कि पूरे मक्का शहर की सारी आबादी ने इस्लाम क़बूल कर लिया और देखते-देखते अरब प्रायद्वीप के दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इस्लाम पै$ल गया।

युद्ध क्यों? रक्तपात क्यों?

इस्लाम साक्षात् शान्ति, दयाशीलता, अनुकंपा, मानव-सम्मान, उदारता, सहिष्णुता का धर्म है। अतः यह (अनावश्यक) रक्तपात को सख़्त नापसन्द करता है। क़ुरआन ने हज़रत मुहम्मद को ‘‘तमाम संसारों के लिए रहमत (Mercy)’’ की उपाधि दी है (21%107)। फिर आप (सल्ल॰) ने इतने अधिक युद्ध क्यों किए? उत्तर है: सत्य, न्याय, अमन, शान्ति की स्थापना में जो तत्व, जो शक्तियाँ सशस्त्र होकर अवरोध व रुकावट डालें, अत्याचार करें, जु़ल्म ढाएँ, कमज़ोरों को दबाएँ कुचलें, उनका शोषण करें, ईश्वर के प्रति उद्दंडता और बग़ावत में सशस्त्र व संगठित होकर, सत्यवादियों व शान्तिप्रेमियों पर आक्रमण करें, और उनका ज़ोर तोड़ने के लिए युद्ध के सिवाय कोई और विकल्प (Option) न रह जाए तो युद्ध अनिवार्य हो जाता है, वरना धरती अन्याय व अत्याचार से भर जाएगी। इसी अन्तिम विकल्प के रूप में ही आप (सल्ल॰) ने युद्ध किए।

अद्भुत, अद्वितीय क्रान्ति

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) 21-22 वर्षों में ही ऐसी क्रान्ति ले आए जो पूरे मानव-इतिहास में अद्वितीय (Unparalleled) है। इसके सिर्फ़ कुछ पहलू अति संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं :

  • एक पूरी क़ौम को जो बहुदेवपूजा, तथा बुतपरस्ती में पूरी तरह डूबी हुई थी, एकेश्वरवादी क़ौम बना दिया। 360 बुतों के सामने झुकने वाले सिरे, मात्र एक ईश्वर, एक अल्लाह के सामने झुकने लगे।
  • बात-बात पर तलवारें निकाल कर एक-दूसरे की गरदनें काट देने वाले लोगों को, इन्सानी जान का सम्मान करने वाला, परोपकारी, जनसेवक बना दिया।
  • शराब में लतपत समाज (जिसमें लगभग 200 क़िस्म की शराबें पी जाती थीं) से शराब ऐसा छुड़वा दिया कि लोग शराब की ‘एक बूँद’ भी ज़बान पर नहीं डाल सकते थे।
  • कन्या-वध की प्रथा का पूर्ण उन्मूलन कर दिया।
  • जुआ को, ब्याज को, अश्लीलता, नग्नता, परस्त्रीगमन, व्यभिचार और बलात्कार आदि को जड़-बुनियाद से उखाड़ फेंका।
  • मानवीय समानता, इन्सानी बराबरी और मानवाधिकार का ऐसा चार्टर बनाया जिससे समकालीन मानवजाति अनभिज्ञ थी। इन महान मानव-मूल्यों को सैद्धांतिकता के स्तर पर जमाया और समाज में प्रवाहित कर दिया।
  • नारी जाति को वह सम्मान तथा समाज, सभ्यता-संस्कृति में वह स्थान दिलाया, उसे इतने अधिकार दिलाए, उसके शील और नारीत्व की हिफ़ाज़त का ऐसा मज़बूत, गौरवपूर्ण प्रावधान कराया जिसे विश्व-इतिहास में एक चमत्कार ही कहा जाएगा।
  • छोटे-बड़े कुल लगभग 53 युद्धों में, इस क्रान्ति के 8 वर्षीय काल में 300 जानें भी नहीं गईं। 150 ग़ैर-मुस्लिम और 120 मुस्लिम; या कुछ ही कम-ज़्यादा। यह पूरे ज्ञात मानव-इतिहास में सिर्फ़ आप ही की लाई हुई क्रांति की विशिष्टता है, वरना क्रांतियाँ तो लाखों इंसानों का ख़ून बहा कर आती रही हैं, जबकि कुछ ही वर्षों या शताब्दियों बाद विफल भी होती रही हैं।
  • आपके लिए, आपके घर की कुछ वर्ग गज़ ज़मीन भी तंग कर दी गई थी, दस ही वर्ष बाद अरब प्रायदीप के पचीस लाख वर्ग किलोमीटर पर पै$ली ज़मीन आपके क़दमों के नीचे आ गई। एक ऐसे महान शासक के पूर्ण अधिपत्य व अधिकार में, जो एक बहुत ही मामूली से आदमी का-सा जीवन बिताता रहा। आप (सल्ल॰) ने एक ‘आदर्श शासक’ का व्यावहारिक नमूना दुनिया के सामने पेश किया जो इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गया। (बाद की शताब्दियों में भी ऐसे कई इस्लामी शासक हुए हिन्होंने आपके इस नमूने को काफ़ी हद तक बरतते हुए यह सिद्ध कर दिया कि यह क्रान्तिकारी चरित्र मात्र एक कहानी का पात्र, कोई अव्यावहारिक चरित्र नहीं है।)
  • यह ऐसी क्रान्ति थी जिसकी रूप-रेखा 1400 वर्ष की दीर्घकालीन अवधि में भी, और आज तक, अपनी चमक-दमक दिखाती रही है। क्या अफ़्रीक़ा; क्या एशिया; क्या यूरोप; क्या अमेरिका, हर जगह पुण्य आत्माएँ पैग़म्बर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आह्वान पर इस्लाम की ओर खिंचती और आपके आदर्श को पथ-प्रदर्शक व दिशा सूचक रूप में स्वीकार करती जा रही हें जबकि इस्लाम के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार और साज़िश की आँधियाँ भी पूरी गति और वेग से चलाई जा रही हैं।

कुछ आम शिक्षाएँ

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने अपने साथियों के चरित्र और नैतिकता के निर्माण के लिए तथा जीवन की सारी गतिविधियों को सद्गुण से सुशोभित करने के लिए प्रथम स्थान पर तो स्वयं अपने चरित्र व व्यवहार को आदर्श-स्वरूप पेश किया (इसे परिभाषा में ‘सुन्नत’ कहा गया है।) और शिक्षा दी कि तुम लोग इसी का अनुसरण करो, और यही सुन्नत व नमूना रहती दुनिया तक के लिए सारे मुसलमानों के लिए अनुकर्णीय अनिवार्य आदर्श क़रार दिया गया। इसके साथ ही, एक तरफ़ तो क़ुरआन की शिक्षाओं को खोल-खोलकर लोगों को बताया, दूसरी तरफ़ स्वयं अपनी ओर से भी, जीवन भर अपने अनुयायियों को शिक्षाएँ देते रहे। उनमें से कुछ आम शिक्षाएँ यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं:

  • तुम में सबसे अच्छा वह है जिसके अख़लाक़ (दूसरों के प्रति व्यवहार) सबसे अच्छे हों।
  • अपनी औरतों के साथ अच्छे से अच्छा सलूक करो। वो आबगीनों (पानी के बुलबुलों) की तरह (नाज़ुक) होती हैं।
  • तुम में सबसे अच्छा वह है जो अपने से छोटों से प्रेम और बड़ों से आदर के साथ पेश आए।
  • किसी व्यक्ति को दान दो तो दिखावा मत करो, इतनी ख़ामोशी से दो कि दायाँ हाथ दे तो बाएँ हाथ को पता न चले। किसी बड़े सामाजिक, सामूहिक हित के अवसर पर दान दो तो खुले, एलानिया दो ताकि दूसरों को भी प्रेरणा मिले।
  • वह व्यक्ति सच्चा ईमान वाला (मुस्लिम) नहीं है जिसके पड़ोस में कोई व्यक्ति/परिवार निर्धनता-वश भूखा रहे और वह पेट-भर खाना खाकर सोए।
  • मज़दूर की मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले दे दो।
  • परलोक जीवन (में सफलता) की तैयारी इसी जीवन में कर लो।
  • बुढ़ापा आने से पहले जवानी को ग़नीमत जानो, बीमारी आने से पहले स्वास्थ्य को ग़नीमत जानो, ग़रीबी आने से पहले धन-सम्पन्नता को ग़नीमत जानो, मौत आने से पहले ज़िन्दगी को ग़नीमत जानो (अर्थात् इन सबका अधिकाधिक उपयोग सत्कर्म, इशोपासना, ईशाज्ञापालन में कर लो)।
  • तुम में से हर कोई दूसरों के लिए वही पसन्द करे जो स्वयं अपने लिए पसन्द करता है।
  • रास्ते से कष्टदायक चीज़ें (जैसे पत्थर, काँटा आदि) हटा दिया करो, यह इबादत है।
  • जिसका वस्त्र हराम, नाजायज़ माल (जैसे चोरी, डकैती, ब्याज, रिश्वत, ग़बन, जुआ, शराब के कारोबार, धोखाधड़ी, जमाख़ोरी, उचित सीमा से अधिक मुनाफ़ाख़ोरी, कम नाम-तौल, अवैध व्यापार, अवैध वस्तुओं की बिक्री, झूठ-फ़रेब आदि) से बना हो और जिसका शरीर ऐसे माल से पल रहा हो, उसकी दुआएँ अल्लाह हरगिज़ क़बूल नहीं करता।
  • आपस में मिलो तो होंठों पर मुस्कराहट के साथ मिला करो।
  • वह व्यक्ति जन्नत में नहीं जा सकता जिसकी शरारतों और दुर्व्यवहार से उसके आस-पास के पड़ोसी सुरक्षित न हों।
  • तबाही है उस व्यक्ति के लिए जिसे उसके माता-पिता दोनों, या उनमें से कोई एक बुढ़ापे की उम्र में मिलें (अर्थात् बूढ़ा हो जाने तक जीवित रहें) और वह उनकी सेवा-सुश्रूषा करके ख़ुद को जन्नत (स्वर्ग) का हक़दार न बना ले।
  • ज़मीन वालों पर दया करो, आसमान वाला (अर्थात् अल्लाह) तुम पर दया करेगा।
  • आपस में ‘सलाम’ को ख़ूब प्रचलित करो। अर्थात् ‘अस्सलामु अलैकुम’ (आप पर सलामती हो) सलाम करने में पहल करो।
  • अपने बच्चों के लिए माता-पिता का सर्वोत्तम उपहार उनकी अच्छी शिक्षा-दीक्षा है, जिससे, वे बड़े होकर अच्छे, नेक, ईमानदार आदमी बनें।
  • पेशाब खड़े होकर नहीं, बैठकर करो। ऊँची जगह से बैठकर नीचे की ओर (या ऐसी जगह पर) करो कि छींटें शरीर या वस्त्र पर न पड़ें। फिर पानी से धोकर या स्वच्छ मिट्टी आदि से सोखा कर स्वच्छ, पवित्र हो जाओ।
  • मोज़ा, जूता पहनने से पहले ठीक से झाड़ लिया करो। ऐसा न हो कि कोई कीड़ा घुसा हो और काट ले।
  • पीठ पीछे किसी की निन्दा (ग़ीबत) न करो, चुग़ली न खाओ, किसी शारीरिक त्रुटि की वजह से दूसरों पर हँसो मत।
  • दूसरों के बुरे उपनाम मत रखो, ऐसे नामों से न उन्हें बुलाओ, न उनकी चर्चा करो।
  • जो व्यक्ति बेटियों पर बेटों को प्राथमिकता न दे, बेटियों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा व उत्तम प्रशिक्षण के साथ, स्नेह व प्रेम के साथ पाले-पोसे, अच्छा, नेक रिश्ता करके उनका घर बसा दे तो वह स्वर्ग (जन्नत) में मेरे साथ रहेगा।

शिष्टाचार की शिक्षा

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने शिष्ट व्यक्ति, शिष्ट समाज बनने को असाधारण महत्व दिया और अपने अनुयायियों को उत्तम शिष्टाचार (Etiquette) सिखाए,

जैसे :

  • आम हालात में विनम्र, शिष्ट चाल चलो। भाग-दौड़कर मत चलो, यह मानव-गरिमा के प्रतिकूल है। अकड़ कर मत चला करो। घमंड मत करो, दंभ से बचो।
  • बहुत ज़्यादा मुँह खोलकर हँसने, ठहाके लगाने से बचो।
  • रास्ते का भी तुम पर हक़ है इसका ख़्याल रखो। अनावश्यक इधर-उधर देखते, पराई स्त्रियों को घूरते मत चलो। बीच रास्ते में खड़े होकर बातें मत किया करो, यह आम राहगीरों के इस्तेमाल की जगह है।
  • खाना बैठकर खाओ, पानी बैठकर पियो। खाने से पहले हाथ धो लो। दाएं हाथ से खाओ। अपनी प्लेट में कुछ छोड़ो मत, एक-एक दाना खा लो, हर दाना ख़ुदा की दी हुई रोज़ी, उसकी नेमत है, उसे बरबाद मत करो। खाने के बाद हाथ धो लो। खाने में ऐब, बुराई न निकालो। कोई चीज़ पसन्द न हो तो उसे खाओ मत, लेकिन बुरा मत कहो। सारी उँगलिया खाने में सान मत लो। हलाल कमाई का खाना खाओ। बहुत गर्म खाना मत खाओ जिससे होंट और जीभ जलने लगें। पानी तीन साँस में पियो, हर साँस में मुँह बर्तन से हटा लिया करो, और बैठकर पानी पियो।
  • किसी से मिलने जाओ तो दरवाज़ा खटखटा कर थोड़ा रुको, दरवाज़े के ठीक सामने नहीं, थोड़ा बग़ल में खड़े हो जाओ (ताकि दरवाज़ा खुले तो अन्दर तक (स्त्रियों आदि पर) तुम्हारी नज़र न पड़े)। रुक-रुककर तीन बार खटखटाने से भी दरवाज़ा न खुले तो बुरा माने बिना वापस आ जाओ (हो सकता है वह व्यक्ति उस समय मिलने की स्थिति में न हो या घर में सिर्फ़ स्त्रियाँ ही हों)।
  • किसी मजलिस, बैठक में जाओ तो जहाँ जगह मिले बैठ जाओ, लोगों के कन्धे फलाँगते हुए किसी ख़ास जगह पर मत जाओ।
  • इजाज़त लिए बिना किसी के घर में दाख़िल मत हो।
  • सच्ची, खरी, सही, न्याय संगत बात कहो, विशेषतः दो पक्षों के बीच किसी विवादस्पद मामले में; चाहे वह बात अपनों ही के ख़िलाफ़ जाए।

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) दिन-रात ईश्वर को याद करते और अपने व दूसरे इन्सानों की भलाई के लिए ईश्वर से दुआएँ करते रहते थे। इसी की शिक्षा आपने अपने अनुयायियों को भी दी।


Source: IslamDharma

Courtesy :
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