ईमान (भाग-4) – फ़रिश्तों पर ईमान
(3) ईश्वर के फ़रिश्तों पर ईमान
अल्लाह पर ईमान के बाद दूसरी चीज़ जिसपर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने ‘ईमान’ लाने का आदेश दिया है वह फ़रिश्तों का वुजूद है, और बड़ा लाभ इस शिक्षा का यह है कि इससे ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) की धारणा को शिर्क (Polytheism) के समस्त ख़तरों से नजात मिल जाती है।
ऊपर बताया जा चुका है कि मुशरिकों (बहुदेववादियों) ने ईश्वरत्व में सृष्टि की दो प्रकार की चीज़ों को शामिल किया है: एक प्रकार तो उनका है जिनका भौतिक (Material) अस्तित्व है और जो दीख पड़ती हैं, जैसे सूर्य, चन्द्रमा और तारे, आग और पानी और मनुष्यों में महान लोग इत्यादि। दूसरा प्रकार उनका है जिनका अस्तित्व भौतिक नहीं है बल्कि वे निगाहों से ओझल हैं और परोक्ष रूप से विश्व का प्रबन्ध-कार्य कर रही हैं, जैसे कोई हवा चलानेवाली और कोई पानी बरसानेवाली और कोई प्रकाश करनेवाली। इनमें से पहले प्रकार की चीज़ें तो मनुष्य की आँखों के सामने मौजूद हैं। इसलिए उनके ईश्वर होने की मनाही स्वयं ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ के शब्दों ही से हो जाती है, परन्तु दूसरे प्रकार की चीज़ें अप्रत्यक्ष और रहस्यमय हैं। मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) अधिकतर उन्हीं पर जमे हुए हैं। उन्हीं को देवता और ईश, या ईश्वर की सन्तान समझते हैं, उन्हीं की काल्पनिक मूर्तियाँ बनाकर भेंट और पुजापा चढ़ाते हैं, अतएव एकेश्वरवाद को शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की इस दूसरी शाखा से बचाने के लिए इस्लाम ने एक स्थायी धारणा का वर्णन किया है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें बताया है कि ये छिपी हुई सूक्ष्म सत्ताएँ (Spiritual Beings), जिनको देवता और ईश और ईश्वर की सन्तान कहते हो वास्तव में ये ईश्वर के ‘फ़रिश्ते’ (Angels) हैं। इनका ईश्वरत्व में कोई अधिकार और भाग नहीं है। ये सब ईश्वर के आज्ञाकारी हैं और इतने आज्ञापालक हैं कि ईश्वरीय आदेश का तनिक भी उल्लंघन नहीं कर सकते। ईश्वर इनके द्वारा अपने राज्य का प्रबन्ध करता है और ये ठीक-ठीक उसके आदेश का पालन करते हैं। इनको स्वयं अपने अधिकार से कुछ करने की शक्ति प्राप्त नहीं। ये अपनी शक्ति से ईश्वर की सेवा में कोई प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते। इनमें यह साहस और ताक़त नहीं कि उसके सामने किसी की सिफ़ारिश करें, इनकी पूजा करना और इनसे सहायता की याचना करना तो मनुष्य के लिए अपमान है, क्योंकि मनुष्य की सृष्टि के प्रारंभिक दिन ईश्वर ने इनसे आदम के सामने नत-मस्तक कराया था और आदम को इनसे बढ़कर ज्ञान प्रदान किया था और इनको छोड़कर आदम को धरती पर ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) प्रदान किया था। तो जिस मनुष्य के सामने इन फ़रिश्तों ने सिर झुकाया हो उसके लिए इससे बढ़कर क्या अपमान हो सकता है कि वह उलटा उनके आगे झुके, माथा टेके और उनसे सहायता माँगे।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने एक ओर तो हमको फ़रिश्तों को पूजने और ईश्वरत्व में उन्हें शरीक करने से रोक दिया, दूसरी ओर आप (सल्ल॰) ने हमें यह भी बताया कि फ़रिश्ते ईश्वर के श्रेष्ठ बन्दे हैं, उसके पैदा किए हुए हैं, पापों से रहित हैं। उनकी प्रवृ$ति ही ऐसी है कि वे ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन नहीं कर सकते। वे सदैव ईश्वर की बन्दगी और इबादत में लगे रहते हैं। उन्हीं में से एक चुने हुए फ़रिश्ते के द्वारा ईश्वर अपने पैग़म्बरों पर वह्य (ईश्वरीय वाणी) भेजता है। उस फ़रिष्ष्श्ते का नाम जिबरील (अलैहि॰) है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पास जिबरील (अलैहि॰) ही के द्वारा क़ुरआन की आयतें अवतरित हुई थीं। इन्हीं फ़रिश्तों में से वे फ़रिश्ते भी हैं जो हर समय आपके साथ लगे हुए हैं। आपके हर अच्छे और बुरे काम को हर समय देखते रहते हैं। आपकी हर बुरी और अच्छी बात को हर समय सुनते हैं और नोट करते रहते हैं, उनके पास हर व्यक्ति के जीवन का रिकार्ड (अभिलेख) सुरक्षित रहता है। मरने के पश्चात् जब आप ईश्वर के सामने हाज़िर होंगे, तो यह आपका कर्म-लेख प्रस्तुत कर देंगे और आप देखेंगे कि जीवन भर आपने खुले-छिपे जो कुछ भी नेकियाँ और बुराइयाँ की थीं वे सब उसमें मौजूद हैं।
‘फ़रिश्तों’ के अस्तित्व का विवरण हमको नहीं बताया गया, केवल उनके गुण बताए गए हैं और उनके अस्तित्व पर विश्वास करने का हुक्म दिया गया है। हमारे पास यह मालूम करने का कोई साधन नहीं कि वे कैसे हैं और कैसे नहीं। अतएव अपनी बुद्धि से उनके व्यक्तित्व के विषय में कोई बात गढ़ लेना अनुचित है। और उनके अस्तित्व को न मानना ‘कुप्ऱ$’ (अधर्म) है, क्योंकि न मानने और उनका इन्कार करने के लिए किसी के पास कोई सुबूत नहीं और इन्कार का अर्थ ईश्वर के रसूल (पैग़म्बर) को झूठा ठहराना है (ईश्वर इससे हमें बचाए)। हम उनके अस्तित्व को इसलिए मानते हैं कि ईश्वर के सच्चे रसूल (पैग़म्बर) ने हमको उनका अस्तित्व होने की सूचना दी है।
(4) अल्लाह की किताबों पर ईमान
तीसरी चीज़ जिस पर ‘ईमान’ लाने की शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा हमको दी गई है, वे ईश्वर की किताबें हैं जो उसने अपने ‘नबियों’ (पैग़म्बरों) पर उतारीं।
ईश्वर ने जिस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर क़ुरआन उतारा है, उसी तरह आपसे पहले जो रसूल (पैग़म्बर) हुए हैं, उनके पास भी अपनी किताबें भेजी थीं। उनमें से कुछ किताबों के नाम हमको बता दिए गए हैं, जैसे इबराहीम के सहीपे़$ जो हज़रत इब्राहीम (अलैहि॰) पर अवतरित हुए, तौरात (Torah) जो हज़रत मूसा (अलैहि॰) पर उतरी। ज़बूर (Psalms) जो हज़रत दाऊद (अलैहि॰) के पास भेजी गई और इंजील (Gospel) जो हज़रत ईसा (अलैहि॰) को दी गई। इनके अतिरिक्त दूसरी किताबें जो दूसरे रसूलों (पैग़म्बरों) के पास आई थीं उनके नाम हमें नहीं बताए गए। इसलिए किसी और धार्मिक ग्रंथ के बारे में हम निश्चित रूप से न यह कह सकते हैं कि वह ईश्वर की ओर से है और न यह कह सकते हैं कि वह ईश्वर की ओर से नहीं है। हाँ, हम ‘ईमान’ लाते हैं कि जो ग्रंथ भी ईश्वर की ओर से अवतरित हुए थे वे सब सत्य थे।
जिन किताबों के नाम हमको बताए गए हैं, उनमें इब्राहीम के ‘सहीफ़े’ तो अब संसार में पाए नहीं जाते। रहीं तौरात, ज़बूर और इंजील, तो वे यहूदियों और ईसाइयों के पास मौजूद तो अवश्य हैं, परन्तु क़ुरआन में हमें बताया गया है कि इन सब किताबों में लोगों ने ईश्वर के ‘कलाम’ को बदल डाला है और अपनी ओर से बहुत-सी बातें उनमें मिला दी हैं। स्वयं ईसाई और यहूदी भी मानते हैं कि मूल ग्रंथ उनके पास नहीं हैं केवल उनके अनुवाद बचे रह गए हैं जिनमें शताब्दियों से फेरबदल (Alteration) होता रहा है और अब तक होता चला आ रहा है। फिर इन ग्रंथों के पढ़ने से भी स्पष्ट मालूम होता है कि इनमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो ईश्वर की ओर से नहीं हो सकतीं। इसलिए जो ग्रंथ पाए जाते हैं वे ठीक-ठीक ईश्वरीय ग्रंथ नहीं हैं, उनमें अल्लाह का कलाम और मनुष्य का कलाम मिल-जुल गए हैं। और यह मालूम करने का कोई साधन नहीं कि अल्लाह का कलाम कौन-सा है और मनुष्यों का कलाम कौन-सा है। अतएव पिछले ग्रंथों पर ईमान लाने का जो आदेश हमें दिया गया है वह केवल इस हैसियत से है कि ईश्वर ने क़ुरआन से पहले भी संसार की प्रत्येक जाति के पास अपने आदेश अपने नबियों (पैग़म्बरों) के द्वारा भेजे थे। और वे सब उसी ईश्वर के आदेश थे जिसकी ओर से क़ुरआन आया है। क़ुरआन कोई नया और अनोखा ग्रंथ नहीं है बल्कि उसी शिक्षा को जीवित करने के लिए भेजा गया है जिसको पहले युग के लोगों ने पाया और खो दिया, या बदल डाला या उसमें मनुष्य के ‘कलाम’ (वाणी) को मिला-जुला दिया।
क़ुरआन ईश्वर का सबसे अन्तिम ग्रंथ है। इसमें और पिछले ग्रंथों में कई हैसियतों से अन्तर है :
पहले जो ग्रंथ आए थे उनमें से अधिकतर की मूल प्रतियाँ संसार से ग़ायब हो गईं और उनके केवल अनुवाद रह गए, परन्तु क़ुरआन जिन शब्दों में अवतरित हुआ था ठीक-ठीक उन्हीं शब्दों में मौजूद है। उसके एक अक्षर बल्कि एक मात्र में भी परिवर्तन नहीं हुआ।
पिछले ग्रंथों में लोगों ने ईश्वरीय वाणी में अपना कलाम मिला दिया है। एक ही ग्रंथ में ईश्वरीय वाणी भी है, क़ौमों का इतिहास भी है, महापुरुषों की जीवन गाथाएँ भी हैं, टीका और व्याख्या भी है और धर्म—शास्त्रियों के निकाले हुए धार्मिक मसले भी हैं। और ये सब चीज़ें इस तरह गडमड हैं कि ईशवाणी को इनमें से अलग छाँट लेना संभव नहीं है, परन्तु क़ुरआन में विशुद्ध ईश्वरीय वाणी (Words of God) हमें मिलती है और उसमें किसी दूसरे के कलाम की ज़रा भी मिलावट नहीं है। क़ुरआन की टीका हदीस, फ़िक़्ह (स्मृति-शास्त्र), रसूल के जीवन चरित्र, पैग़म्बर के साथियों (सहाबा) के जीवन चरित्रा और इस्लाम के इतिहास पर मुसलमानों ने जो कुछ भी लिखा वह सब क़ुरआन से बिल्कुल अलग दूसरे ग्रंथों में लिखा हुआ है। क़ुरआन में उनका एक शब्द भी मिलने नहीं पाया है।
जितने धार्मिक ग्रंथ संसार की विभिन्न जातियों के पास हैं, उनमें से एक के बारे में भी एतिहासिक प्रमाण से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि उसका सम्बन्ध जिस नबी (पैग़म्बर) से जोड़ा जाता है वास्तव में उसी का है, बल्कि कुछ धार्मिक ग्रंथ ऐसे भी हैं जिनके बारे में सिरे से यह भी नहीं मालूम कि वे किस ज़माने में किस नबी पर अवतरित हुए थे, परन्तु क़ुरआन के बारे में इतने अटल ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं कि कोई व्यक्ति हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथ उसका सम्बन्ध होने में सन्देह, कर ही नहीं सकता। उसकी ‘आयतों’ तक के विषय में यह मालूम है कि कौन-सी आयत कब और कहाँ उतरी है।
पिछले ग्रंथ जिन भाषाओं में उतरे थे वे एक ज़माने से मुर्दा हो चुकी हैं। अब संसार में कहीं भी उनके बोलनेवाले बाक़ी नहीं रहे, और उनके समझनेवाले भी बहुत कम पाए जाते हैं, ऐसे ग्रंथ यदि मूल और वास्तविक रूप से पाए भी जाएँ तो उनके आदेशों को ठीक-ठीक समझना और उनका पालन करना संभव नहीं, परन्तु क़ुरआन जिस भाषा में है वह एक जीवित भाषा है, संसार में करोड़ों व्यक्ति आज भी उसे बोलते, और करोड़ों व्यक्ति उसे जानते और समझते हैं। उसकी शिक्षा का सिलसिला संसार में हर जगह चल रहा है। हर व्यक्ति उसको सीख सकता है और जिसे उसके सीखने का मौक़ा प्राप्त नहीं उसको हर जगह ऐसे व्यक्ति मिल सकते हैं जो क़ुरआन का अर्थ उसे समझाने की योग्यता रखते हों।
जितने धार्मिक ग्रंथ संसार की विभिन्न जातियों के पास हैं उनमें से प्रत्येक ग्रंथ में किसी विशेष जाति को संबोधित किया गया है, और प्रत्येक ग्रंथ में ऐसे आदेश पाए जाते हैं जो मालूम होता है कि एक विशेष युग की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के लिए थे, परन्तु अब न उसकी आवश्यकता है, और न उन्हें व्यवहार में लाया जा सकता है। इससे यह बात अपने आप ज़ाहिर हो जाती है कि ये सब ग्रंथ अलग-अलग क़ौमों के लिए ही विशेष थे। इनमें से कोई ग्रंथ भी सारे संसार के लिए नहीं आया था। फिर जिन क़ौमों के लिए ये ग्रंथ आए थे उनके लिए भी ये सदैव के लिए न थे, बल्कि किसी विशेष युग के लिए थे। अब क़ुरआन को देखिए। इस ग्रंथ में हर जगह मनुष्य को संबोधित किया गया है। फिर इस ग्रंथ में जितने आदेश दिए गए हैं वे सब ऐसे हैं जिनका हर युग में और हर जगह पालन किया जा सकता है। यह बात साबित करती है कि क़ुरआन सम्पूर्ण संसार के लिए और सदा के लिए है।
पिछले ग्रंथों में से प्रत्येक में भलाई और सच्चाई की बातें बयान की गई थीं। नैतिकता और सत्यवादिता के नियम सिखाए गए थे, ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के तरीके़ बताए गए थे, परन्तु कोई एक किताब भी ऐसी न थी जिसमें समस्त विशेषताओं को एक जगह एकत्र कर दिया गया हो और कोई चीज छोड़ी न गई हो। यह बात केवल क़ुरआन में है कि जितनी विशेषताएँ पिछले ग्रंथों में अलग-अलग थीं वे सब इसमें एकत्र कर दी गई हैं और जो विशेषताएँ पिछले ग्रंथों में नहीं थीं वे भी इस किताब में आ गई हैं।
समस्त धार्मिक ग्रंथों में मनुष्य के हस्तक्षेप से ऐसी बातें मिल गई हैं जो वास्तविकता के विरुद्ध हैं, बुद्धि के विरुद्ध हैं, अत्याचार और अन्याय पर आधारित हैं, मनुष्य की धारणा और कर्म दोनों को बिगाड़ती हैं यहाँ तक कि बहुत से ग्रंथों में अश्लील, अनैतिक बातें भी पायी जाती हैं। क़ुरआन इन सब चीज़ों से बचा हुआ है। इसमें कोई बात भी ऐसी नहीं जो बुद्धि के विपरीत हो, या जिसको प्रमाण या तजुर्बे से ग़लत साबित किया जा सकता हो। इसके किसी आदेश में अन्याय नहीं है, इसकी कोई बात मनुष्य को गुमराह करनेवाली नहीं है। इसमें अश्लीलता और अनैतिकता का नामोनिशान तक नहीं है। आरंभ से अंत तक पूरा क़ुरआन उच्चकोटि की तत्वदर्शिता व बुद्धिमत्ता (Wisdom) और न्याय व इन्साफ़ की शिक्षा और सन्मार्ग-दर्शन, उत्तम आदेश और नियमों से परिपूर्ण है।
यही विशेषताएँ हैं जिनके कारण पूरी दुनिया की क़ौमों को आदेश दिया गया है कि क़ुरआन पर ‘ईमान’ लाएँ और समस्त ग्रंथों को छोड़कर केवल इसी एक ग्रंथ का आज्ञापालन करें क्योंकि मनुष्य को ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिताने के लिए जितने आदेशों की आवश्यकता है वे सब इसमें बिना कमी-बेशी के बयान कर दी गई हैं, यह ग्रंथ आ जाने के बाद किसी दूसरे ग्रंथ की आवश्यकता ही नहीं रही।
जब आपको मालूम हो गया कि क़ुरआन और दूसरे ग्रंथों में क्या अन्तर है, तो यह बात आप ख़ुद समझ सकते हैं कि दूसरे ग्रंथों पर ईमान और क़ुरआन पर ईमान में क्या अन्तर होना चाहिए, पिछले ग्रंथों पर ‘ईमान’ केवल तसदीक़ की हद तक है अर्थात् वे सब ईश्वर की ओर से थे और सच्चे थे और उसी उद्देश्य से आए थे जिसको पूरा करने के लिए क़ुरआन आया है और क़ुरआन पर ‘ईमान’ इस हैसियत से है कि यह विशुद्ध ईश्वरीय वाणी (अल्लाह का कलाम) है, सर्वथा सत्य है, इसका प्रत्येक शब्द सुरक्षित है, इसकी हर बात सत्य है, इसके हर आदेश का अनुपालन अनिवार्य है और हर वह बात रद्द कर देने योग्य है जो क़ुरआन के विरुद्ध हो।
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