रजब के कूंडे
दुश्मने इस्लाम ने जितनी कोशिश इस्लाम का असल चेहरा बदलने के लिये की हैं अगर वो इतनी ही कोशिश इस्लाम को समझने मे करते तो शायद उनको दुनिया और आखिरत दोनो मे फ़ायदा पहुंचता मगर जब किसी के दिल और कानो पर मुहर लग जाती हैं तो उसे शैतान की राह के सिवा कुछ नही मिलता|
इन दुश्मनो ने इस्लाम मे बिदअतो को इतनी खूबसूरती के साथ बनाकर पेश किया के ये बिदअते असल दीन हैं, भोली-भाली मुस्लिम कौम इनके जाल मे फ़ंस कर असल दीन को भूल कर इन बिदअतो मे मश्गूल हो गयी| साथ ही कुछ जाहिल किस्म के मौलवियो ने भी इन बिदअतो की हकीकत जानना तो दूर उल्टा इन्हे इतना बढ़ावा दिया के धीरे-धीरे ये बिदअते इस्लाम का एक अरकान बन गयी और आज हालत ये हैं के मुसल्मान खुद को मुसल्मान कहता हैं कल्मा नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का पढ़ता हैं और अमल इस्लाम के मुखालिफ़ (बिदअतो) करता हैं| इन्ही बिदअतो मे से एक बिदअत रजब के कूंडे हैं जिसे मुसल्मान बड़े जौक-शौक से मनाता हैं| आइये ज़रा इसका जायज़ा लेते हैं के ये बिदअत की हकीकत क्या हैं|
रजब के कूंडे रजब के महीने मे मनाये जाते हैं और लोग इसे इमाम जाफ़र सादिक के नाम से कूंडे भरते हैं| इसको साबित करने के लिये एक झूठी कहानी का सहारा लेते हैं जिस का मसला कुछ इस तरह हैं की मदीना मे एक गरीब लकड़हारा रहता था, उसकी बीवी वज़ीर के घर झाड़ू देती थी| एक दिन उसने महल(घर) के दरवाजे के पास इमाम जाफ़र बिन मुहम्मद सादिक को ये फ़रमाते सुना कि जो शख्स आज 22 रजब को नहा धो कर मेरे नाम के कूंडे भरे, फ़िर अल्लाह से जो भी दुआ करे वो कबूल होगी, नही तो कयामत के दिन वो मेरा गिरेबान पकड़ ले| उस लकड़हारे की बीवी ने ऐसा ही किया और उसका शौहर बहुत सी माल दौलत लेकर वापस लौटा और एक आलीशान मकान बना कर उसमे रहने लगा और वज़ीर की बीवी ने कूंडे की हकीकत से इन्कार किया तो उसके शौहर की वज़ारत चली गयी| फ़िर जब उसने तौबा की और कूंडे की हकीकत को तस्लीम किया तो उसके शौहर की वज़ारत बहाल हो गयी और वो पहले की तरह मालदार हो गये| इसके बाद बादशाह और उसकी कौम हर साल बड़ी धूम-धाम से कूंडे की रस्म मनाने लगी|
इस मनगढ़तं कहानी को कुरान और हदीस की रोशनी मे देखे तो पता चलता हैं के इसमे एक शिर्किया काम की दावत दी गयी हैं क्योकि इसमे गैर उल्लाह (इमाम ज़ाफ़र सादिक) के नाम से नज़्र नियाज़ दी जाती हैं और गैर उल्लाह के नाम से नज़्र नियाज़ करना शिर्क हैं| क्योकि नज़्र मानना इबादत हैं और इबादत खालिस अल्लाह ही के लिये खास हैं, इसे किसी दूसरे के लिये करना अल्लाह के साथ शिर्क हैं| लिहाज़ा किसी नबी, वली, बुज़ुर्ग, पीर आदि के लिये नज़्र माना शिर्क हैं|
अल्लाह के रसूल सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का फ़र्मान हैं-
जो आदमी यह नज़्र माने कि वह अल्लाह की इताअत करेगा उसे चाहिये की अपनी नज़्र पूरी करके अल्लाह की इताअत करे, और जो आदमी अल्लाह की नाफ़रमानी की नज़्र माने तो उसे चाहिये की नाफ़रमानी न करे यानि अपनी नज़्र पूरी न करे|
(बुखारी)
इसी तरह इस कहानी मे 22 रजब को कूंडा भरने की बात कही गयी हैं जिसका इमाम जाफ़र सादिक की पैदाईश या मरने के दिन से कोई ताल्लुक नही, क्योकि रजब के महीने मे न उनकी पैदाईश हुयी और न मौत और मदीना के अन्दर जिस वज़ारत और बादशाहत का ज़िक्र किया गया हैं उसका तारिख मे कोई ज़िक्र नही मिलता बल्कि इमाम जाफ़र सादिक के ज़िन्दगी मे मुसलमानो की दारुल सल्तनत या तो दमिश्क मे रही या बगदाद मे| दरहकीकत ये शिर्किया रस्म और दूसरी रस्मो की तरह शियाओ से सुन्नीयो के अन्दर आई जो हकीकत मे अल्लाह के रसूल के जलीलो कद्र सहाबी हज़रत मुआविया रज़ि0 की वफ़ात (22 रजब) पर खुशी मनाते मनाते हैं लेकिन पर्दा डालने के लिये लकड़हारे की कहानी गढ़ ली गयी|
इसी तरह रजब के कूंडे भरने वाले इसी बीच अल्लाह की हलाल कर्दा चीज़ो जैसे गोश्त, मछली वगैराह खाने से बचाव करते हैं, जो के अल्लाह के इस कौल की खिलाफ़ वर्ज़ी हैं-
ऐ ईमानवालो अल्लाह ने जो पाक चीज़े तुम्हारे लिये हलाल की हैं उन को हराम मत करो|
(सूरह अल मायदा 5/87)
इस्रा और मेराज कि रात की बिदअत
रजब के महीने मे की जाने वाली इन बिदाअत मे से एक बिदाअत 27 वी रात को इस्रा व मेराज का जश्न मनाना हैं जिसके बारे मे न अल्लाह के रसूल सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम से कोई दलील मिलती हैं न सहाबा से| बल्कि इन इबादत अक्ली एतबार से भी गलत हैं जैसे-
1. इस्रा और मेराज जिस रात को हुआ इसकी तारिख, महीना और साल का कोई भी सबूत नही बल्कि इस बारे मे उल्मा के कई कौल मिलते हैं जो दस से भी ज़्यादा हैं| लिहाज़ा इस रात को खास मानना बेअक्ल और बेबुनियाद हैं|
2. अगर इस रात की सही दिन तारीख उल्मा के किसी एक कौल को सही मान भी लिया जाये तब भी ये जायज़ नही के इस रात मे कोई ऐसी इबादत करे जो कि अल्लाह के रसूल सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम और उनके सहाबी या ताबाईन या तबा ताबाईन से साबित नही| लिहाज़ा इसका कोई सबूत नही मिलता के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने इसे कभी खुद किया हो या अपने सहाबी को करने का हुक्म दिया हो| साथ ही नबी के बाद इस रात की इबादत का ज़िक्र या हुक्म खुलफ़ा राशीदीन से भी नही मिलता और न कभी खुद खुलफ़ा राशीदीन ने इसको किया| इसलिए अगर इस रात का कही भी कोई ज़िक्र होता तो किसी न किसी सहाबी के ज़रिये कोई न कोई हदीस हम तक ज़रूर पहुंचती लेकिन ऐसा कही भी नही मिलता| बल्कि अल्लाह के रसूल ने अपनी ज़िन्दगी मे हर किस्म की इबादत के ताल्लुक से ही ज़ाती तौर पर अमल या अपने सहाबी के किसी हुक्म के ज़रिये नही पहुंचाया और आज जो लोग इस बिदअत को दीन ए इस्लाम का अहम रुक्न समझ कर करते हैं तो वो क्या ये साबित करना चाहते हैं के वो नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम से या सहाबा से या उनके बाद के लोगो से ज़्यादा दीनदार और अमल करने वाले हैं|
3. इस जश्न के अन्दर कई तरह के नाजायज़ और गैर इस्लामी काम किये जाते हैं जिनका शरियत ए इस्लामिया से कोई ताल्लुक नही और सबसे ताज्जुब की बात ये हैं इस जश्न को मनाने वाले अनगिनत लोगो शरियत इस्लामी से हज़ारो मील दूर हैं जिनको ये तक शर्फ़ हासिल नही के नमाज़ पढ़े जो उन पर फ़र्ज़ हो चुकी हैं| अलबत्ता वो ऐसी बिदअतो मे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं| और ऐसी खुशी का इज़हार करते हैं जैसे उन्होने दुनिया मे ही अपनी मग्फ़िरत करा ली हो और उन्हे जन्नत का सर्टिफ़िकेट मिल गया हो|
लिहाज़ा ये दीन का हिस्सा नही बल्कि बिदअत हैं जिसके लिये नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम का फ़रमान हैं के हर बिदअत गुमराही हैं और हर गुमराही जहन्नम मे ले जाने वाली हैं| लिहाज़ा इसको करने वाले अपने बचाव का कोई जवाब पहले ही सोच ले के उन्हे आखीरत मे अल्लाह को क्या जवाब देना हैं|
सलातुर्रगाइब
इस महीने की मशहूर बिदअतो मे एक बिदअत सलातुर्रगाइब हैं जो इस महीने के पहले जुमेरात का रोज़ा रखने के बाद पहले जुमे की रात को मगरिब और इशा की नमाज़ के बीच पढ़ी जाती हैं| इस बिदाअत को करने के लिये एक ऐसी हदीस का सहारा लिया जाता हैं जिस के मौज़ू (मनगढ़ंत) होने पर तमाम उल्मा का इत्तेफ़ाक हैं| इस बिदअत मे 12 रकात नमाज़ हैं हर रकात मे सूरह फ़ातिहा के बाद तीन बार सूरह कद्र और 12 बार सूरह इख्लास पढ़ी जाती हैं और हर 2 रकात पर सलाम फ़ेरा जाता हैं, नमाज़ से फ़ारिग होने के बाद 70 बार दरुद शरीफ़ पढ़ा जाता हैं और उसके बाद 2 सजदे किये जाते हैं और हर सजदे मे 70-70 बार “सुब्बुहुन कुद्दुसुन रब्बुल मलाईकते वर्रुहे” पढ़ी जाती हैं| इसके बाद अपनी हाजत का सवाल किया जाये तो हाजत पूरी हो जाती हैं| फ़िर इस नमाज़ की वह फ़ज़ीलत गिनाई गयी हैं जिन पर खुद इस हदीस के बातिल होने का पता चलता हैं| जैसे उस आदमी के सारे गुनाह माफ़ कर दिये जायेगे चाहे वो समुन्दर के बराबर हो, कयामत के दिन वह अपने घर वालो के साथ 700 लोगो की सिफ़ारिश करेगा, कब्र के अज़ाब से निजात पायेगा, मैदाने हश्र मे वह नमाज़ उस के सर पर साया करेगी…वगैराह| इस हदीस को अल्लामा इब्ने जौज़ी ने अपनी किताब “अल मौज़ुआत” मे ज़िक्र किया हैं|
इस नमाज़ की बिदअत की शुरुआत सबसे पहले बैतुल मुकद्दस मे 480 हिजरी के बाद ईजाद की गयी, इससे पहले किसी ने भी इस नमाज़ को नही पढ़ा|
(अबू बक्र अत तरतूशी की अल हवादिस वल बिदअ)
इस नमाज़ के बिदअत और गैर इस्लामिक होने मे कोई शक नही खासकर ये नमाज़ सहाबा इकराम के बाद वजूद मे आई और न ही नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने इसे कभी अपनी ज़िन्दगी मे पढ़ा और न सहाबा को इसे पढ़ने की तरगीब दिलाई| इसके अलावा न ही ताबाईन मे से किसी से ये साबित हैं और न तबा ताबाईन से ये नमाज़ साबित हैं|
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमियाह रह0 फ़रमाते हैं-
सलातुर्रगाइब का कोई बुनियाद नही बल्कि यह ईजाद कर ली गयी बिदअत हैं| इसलिये इसे न जमात के साथ पढ़ना मुस्तहब हैं और न अकेले बल्कि सही मुस्लिम से साबित हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने जुमे की रात को क्याम के लिये और जुमे के दिन को रोज़ा रखने कि लिये खास करने से मना फ़रमाया हैं और इस बारे मे जिस हदीस को पेश किया जाता उसके झूठ और मनगढ़ंत होने पर उलमा का इत्तेफ़ाक हैं, सलफ़ और आइम्मा इकराम ने सिरे से इसको ब्यान ही नही किया हैं|
(मजमूअ फ़तावा 23/132)
साथ ही ये भी फ़रमाया –
अइम्मा ए दीन इस बात पर एक मत हैं कि सलातुर्रगाइब बिदअत हैं, न तो इसे नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने मसनून करार दिया हैं और न ही आप के खुलफ़ा ने और न ही अइम्मा ए दीन जैसे इमाम मालिक, शाफ़ई, हंबल, अबू हनीफ़ा, सौरी, औज़ाई और लैस वगैराह मे से किसी ने इसे मुसतहब समझा हैं और इस के बारे मे जो हदीस हैं वो मुहद्दिस के नज़दीक बिना किसी इख्तेलाफ़ के मौज़ूअ हैं|
(मजमूअ फ़तावा 23/134)
इमाम इब्नुल कैयिम रह0 फ़रमाते हैं –
इसी तरह रजब के पहले जुमा की रात को सलातुर्रगाइब पढ़ने की हदीसे नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम पर झूठ गढ़ी हुई हैं|
(अलमनारुल मुनीफ़ पेज नं 95)
रजबी सियाम व कियाम
रजब के महीने मे ईजाद कर ली गयी बिदाअतो मे एक बिदाअत ये भी है के इस महीने मे खास तौर से रोज़ा रखना या कियामुल्लैल करना भी हैं| ऐसा करने वाले इन बिदाअतो को करने के लिये ऐसी कमज़ोर दलीलो का सहारा करते हैं जिसका कोई वजूद नही बल्कि अकसर उल्माए दीन ने इन्हे बातिल और गलत करार दिया है-
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया रह0 फ़रमाते हैं-
रजब और शाबान के महीने को एक साथ रोज़े या ऐतिकाफ़ के लिये खास करने के लिये नबि सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम, सहाबा या अइम्मा ए मुस्लिमीन से कोई चीज़ नही आई बल्कि सहीह बुखारी, मुस्लिम से साबित हैं के नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम शाबान से ज़्यादा किसी और महीने मे नफ़्ली रोज़ा नही रखते थे अलबत्ता जहा तक रजब के रोज़े का ताल्लुक हैं तो इस की सभी हदीसे ज़ैइफ़ बल्कि मौज़ू और मनगढ़ंत हैं| उल्मा उनमे से किसी हदीस पर भरोसा नही करते हैं और यह इस तरह की ज़ैइफ़ नही हैं जो फ़ज़ायल के अन्दर ब्यान की जाती हैं बल्कि ये तो खालिस गढ़ी हुई झूठी हदीसे हैं|
(मजमूअ फ़तावा 25/290, 291)
अल्लामा इब्ने रजब रह0 फ़रमाते हैं-
रजब के महीने की फ़ज़ीलत मे नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम और आप के सहाबा से कोई भी पुख्ता सबूत नही हैं|
(लताईफ़ुल मआरिफ़ पेज 140)
हाफ़िज़ इब्ने हजर रह0 फ़रमाते हैं-
रजब के महीने की फ़ज़ीलत या उसके रोज़े की फ़ज़ीलत या उसके किसी खास दिन के रोज़े की फ़ज़ीलत या इस महीने मे किसी खास रात का कियाम करने की फ़ज़ीलत मे कोई सही हदीस नही आई हैं जो सबूत बन सके| मुझ से पहले अबू इस्माईल अल हरवी ने भी इसी बात को साफ़ किया हैं|
(तबईनुल अजब बिमा वरदा फ़ी फ़ज़ले रजब पेज 5)
रजबी उमराह
कुछ लोगो की अकसरियत इस महीने मे उमराह करने के कायल हैं और ये गुमान करते हैं कि इस महीने मे उमराह करने की फ़ज़ीलत दूसरे महीनो से ज़्यादा हैं| हालाँकि इस बारे मे भी नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम की कोई सही हदीस मौजूद हैं न ही किसी उल्मा की या मुहद्दिस की इस बारे मे राये हैं कि रजब का उमराह की फ़ज़ीलत दूसरे महीनो से ज़्यादा हैं बल्कि आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने अपनी ज़िन्दगी मे सिर्फ़ 4 बार उमराह किया हैं और उन मे कोई भी रजब के महीने मे नही किया हैं|
उरवा बिन ज़ुबैर रज़ि0 से मस्जिद नबवी मे अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि0 के इस कौल कि नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने एक उमराह रजब मे किया था के बारे हज़रत आयशा रज़ि0 से पूछा तो उन्होने जवाब दिया –
अल्लाह अबू अब्दुर्रहमान पर रहम करे आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने जो भी उमराह किया मै उस मे आप के साथ मौजूद थी और आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने कभी भी रजब के महीने मे उमराह नही किया|
(सही बुखारी)
खास बात ये के अगर रजब के महीने मे अगर उमराह करने की फ़ज़ीलत दूसरे महीनो से ज़्यादा होती तो आप सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम इस बात को सहाबा रज़ि0 को ज़रूर बताते जैसे आप ने ये फ़रमाया –
रमज़ान मे उमराह करना हज करने के बराबर हैं|
(बुखारी व मुस्लिम)
लिहाज़ा रजब के महीने मे जो लोग इन बिदाअतो को अन्जाम देते हैं उनको चाहिये के वो खालिस इस्लाम की तालिम जो नबी सल्लल लाहो अलैहे वसल्लम ने सहाबा को, सहाबा ने ताबाईन को और ताबाईन तबा ताबाईन को और इनसे आइम्मा, मुहद्दिस, उलमा तक पहुची उस पर तहकीक करे और इन बिदाअतो से बचे| मत भूले के कल हमे अल्लाह के सामने इसका जवाब भी देना हैं|
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By: IslamTheTruth
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