धर्म का वास्तविक स्वरूप (मूल आधारों की खोज)
एक ही पूज्य
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतोवशी।
सूर्याचन्द्रमासी धाता यथापूर्वमकल्पयत्।।
दिवं च पृथिवी चासन्तरिक्षमथो स्व:(ऋ0 10/190/2-3)
‘‘उसी र्इश्वर ने दिन और रात रचा। निमिष आदि से युक्त विश्व का वही अधिपति है। पूर्व के अनुसार ही उसने सूर्य, चन्द्र, स्वर्ग लोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को रचा।’’
सविता पश्चातात् सविता पुरस्तात्।
सवितोत्तरात्तात् सविताधरात्तात्।।(ऋ0 10/36/14)
‘‘वह पूरब, पश्चिम, ऊपर और नीचे सब दिशाओं में हैं।’’
य एक इत् तमुष्टिहि कृष्टीनां विचर्षणि:।
पतिर्जज्ञे वृषक्रतु:।।(ऋ0 6/45/16)
‘‘वह एक हैं जो मनुष्यों का स्वामी होकर प्रकट हुआ है, और जो सब देखने वाला है, उसी का स्तवन (अर्थात् पूजा एवं प्रशंसा) करो।’’
म चिदन्यद् वि शंसत सखायों मा रिषण्यत।
(ऋ 8/1/1)
‘‘तुम किसी दूसरे देव की स्तुति मत करो। किसी दूसरे देव की स्तुति करके दुखी मत होओ।’’
अर्थात्- ऐश्वर्यशाली परमात्मा को छोड़कर अन्य देव की उपासना करने से मनुष्य संकट में पड़कर दुख होता हैं।
य एक इद् विदयते वसु मर्ताय दाशुषे। (ऋ0 1/84/7)
‘‘वह एक हैं, दयालु हविदाता (दानी) को धन देने में सामथ्र्य है। (अर्थात धन का देव वही हैं।)’’
वेदों में र्इश्वर के अनेक गुणों की चर्चा की गर्इ हैं और उन्ही गुणों के आधार पर र्इश्वर को अनेक नामों से याद किया गया है।
कहा गया है-
इंन्द्र मित्र वरूणमग्निमाहुस्थों दिव्य: स सुपर्णो गरूत्मान।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु:।।(ऋ0 1/164/46)
‘‘एक सत्यस्वरूप र्इश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा, इन्द्र, मित्र, वरूण, दिव्य, सुपर्ण, गरूत्मान, नामों से याद करते हैं।’’
त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतामसि त्वं विष्णुरूरूगायों नमस्य:।
त्वं ब्रहम्मा रयिविद् ब्रहम्णस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरन्ध्या।। (ऋ0 2/1/3)
‘‘हे अग्ने! तू श्रेष्ठों का बलवान नेता इन्द्र हैं। तू व्यापक होने से विष्णु और बहुतों से स्तत्य हैं।हे वेद के पालक अग्ने! तू धन का वेत्ता ब्रहम्मा हैं। हे धारण करनेवाले अग्ने! त् विविध प्रकार की बुद्धियों से युक्त मेधावी है।’’
क्रत्व: समह दीनता प्रतीपं जगमा शुचे
मृका सुक्षत्र मृकय।।(ऋ0 7/89/3)
‘‘ हे धनवान और पवित्र! मै कर्म करने की दीनता के कारण प्रतिकूल परिस्थिति को प्राप्त हुआ हूं। हे उत्तम क्षात्रतेजवाले! मुझे सुखी करो, आनंदित करो।’’
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान।
(यजु0 40/16)
‘‘हे प्रकाशक ! हमे उत्तम मार्ग से अभ्युदय की ओर ले चल।’’
न तस्य प्रतिमा अस्ति।
(यजु0 32/3)
उसकी कोर्इ प्रतिमा (मूर्ति, रूप) नही है।
अन्ध: तम: प्रविशन्ति ये•संभूतिमुपासते। (यजु0 40/9)
‘‘अंधकार मे प्रविष्ट होते हैं जो असंभूति (गढ़े हुए देवी-देवताओं) की उपासना करते हैं।’’
अत: एक मात्र देव सब कुछ का कत्र्ता है, विश्व में जो कुछ हैं, छोटा, बड़ा सबका रचयिता, अधिपति। सर्वशक्तिमान, पूज्य। स्वामी, कृपाशील, विष्णु (पालन-पोषण करने वाला), सर्वज्ञान संपन्न (सर्वज्ञ)। सर्वव्यापी, दयालु, सत्वन का अधिकारी, धनदाता । सुपथ एवं सत्य-मार्ग दिखानेवाला, असीम। निराकार, प्रलय एवं परलोक का स्वामी एक अकेला स्वामी एक अकेला प्रभु है।
इस प्रकार हमारे सीमित शब्दो मे भी असीम परमेश्वर के अनेक गुणात्मक नाम है। इन नामों को रूप नही दिया जा सकता हैं। रूप सीमित होता हैं। गुण और रूप काफी अन्तर है।
र्इश्वर के सम्बन्ध मे यह विश्वास धर्म का प्रथम आधार हैं।
प्रलय
जिस प्रकार इस लोक मे प्रत्येक वस्तु का एक अंत हैं, उसी प्रकार इस वर्तमान जगत् का भी एक अंत हैं। इस संसार के इस अंत और इस महा विनाश को प्रलय कहा गया हैं। अरबी मे इसको कियामत कहा जाता है। कुरआन मे प्रलय अर्थात कियामत की चर्चा संक्षिप्त मे कर्इ स्थान पर आर्इ हैं किन्तु र्इश-दूत (पैगम्बर) हजरत मुहम्मद (स0) के वचनों के संकलन (हदीस) मे वह सविस्तार वर्णित हैं। इसी प्रकार भारतीय धर्मग्रन्थों में भी प्रलय (कियामत) की चर्चा बार-बार और सविस्तार विद्यमान है।
यथा: प्रलय का समय निकट आने पर मानव-समाज की स्थिति क्या होगी?
प्रलय के निकट समय मे क्या चिहन प्रकट होंगे? इत्यादि।
जब प्रलय का समय नजदीक आ जाएगा तो नरसिघा को फूंका जाएगा। आरंभ मे तो सुरीली आवाज आएगी और लोग गाने-बजाने के रसिया हो जाने के कारण के उस आवाज की ओर लपकेंगे। धीरे-धीरे वह आवाज तेज होती जाएगी। यहां तक कि लोग घबराकर उससे भागने लगेंगे। फिर वह असहय हो जाएगी और लोग घबराहट मे मरने लगेंगे।
एक बार फिर नरसिंघा में फूंक मारी जाएगी, तो ब्रहम्माण्ड की यह सारी व्यवस्था बिगड़ जाएगी। धरती-आकाश सब टूट-फूट जाएंगे।
फिर एक फूक मारी जाएगी, तो एक दूसरी बहुत धरती तांबे की धातु से बनी खड़ी होगी और संसार मे जन्मे प्रथम मानव के समय से अंतिम समय तक के सारे लोग, धरती मे उनके जहां-जहां भी शरीरांश बिखरे पड़े होंगे, सब एकत्रित होकर शरीर-धारण कर लेंगे।
प्रलय के बाद के जीवनकाल को परलोक (आखिरत) कहा जाता हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण (12/4/14-18) के अनुसार जल, वायु, इत्यादि सब अपने उत्पादकों तत्व मे लीन होकर नष्ट हो जाएंगे। सबके नष्ट हो जाने के बाद शुद्ध , निर्लेप, मात्र ब्रहम्मा रह जाएगा। शेष संसार अव्यक्त रूप् में परिवर्तित हो जाएगा।
कुरआन का भी यही कहना हैं कि-
‘‘इस पृथ्वी पर जो कुछ या कोर्इ है वह सब मिट जाएगा। एक कृपाशल प्रभु पालनहार का प्रतापवान स्वरूप् ही शेष रह जाएगा।’’
उत्पादक तत्व मे लीन हो जाने की बात गुरू नानक जी ने भी कही हैं, किन्तु वह यह लय परमात्मा मे हो जाती हैं, मानते हैं। उनकी यह बात पता नही कि अपने मौलिक रूप में हैं या बाद मे बदल दी गर्इ है। मुझे यह दूसरी बात प्रतीत होती हैं। तत्वों का तत्वों में लीन होना समझ में आता हैं, परन्तु परमात्मा में लीन होने का अर्थ यह हैं कि मनुष्य और अन्य सम्पूर्ण वस्तुएं परमात्मा के शरीर का अंश हैं और उसी से निकली है। यह धारणा किसी प्रकार से सही नही हैं। तथ्य यह हैं कि सब कुछ परमात्मा की सृष्टि हैं, न कि स्वयं परमात्मा या उसका कोर्इ अंश।
श्रीमदभागवत महापुराण के द्वादस स्कन्ध में प्राकृतिक प्रलय होने की बात आर्इ हैं। उल्लिखित है कि उस समय सैकड़ो वर्ष तक वर्षा नही होगी, जिससे मनुष्यादि जीव तड़प-तड़प कर कर विनष्ट हो जाएंगे अनन्तर भगवान के मुख से भड़की हुर्इ अग्नि समस्त चराचर को फूंक डालेगी।
इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रलय मे विश्वास इहलोक और परलोक के बीच की एक सीढ़ी है, यह उसी प्रकार कि जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन के बाद मृत्यु के बाद यमलोक (पितरलोक) फिर परलोक है।
परलोक (अंतिम दिन)
प्रलय के बाद जो लोक या जगत् अस्तित्व मे आएगा उस लोक या जगत को भारतीय ग्रन्थों मे परलोक और इस्लाम मे आखिरत के नाम से उल्लेख किया गया है । समस्त मनुष्य इहलाके के आरंभ से अंत तक जो मृत्युपाकर पितरलोक मे प्रवेश करेंगे।
उस लोक के तीन चरण है।
1- पुनर्जीवित होकर र्इश्वर के समक्ष एकत्रित होना
2- कर्मो की जॉच, तौल और फैसला
3- कर्मानुसार स्वर्ग या नरक मे प्रवेश पाना
जैसा कि वृहदारण्यकोपनिषद की बात आ चुकी है कि मनुष्य के लिए दो ही स्थान हैं।
एक इहलाके, दूसरा परलोक।
तीसरे बीच वाले का नाम संध्या है।
इसी प्रकार आदि शंकराचार्य ने भी अपने भाष्य मे यही बात कही हैं। पारलौकिक जीवन को वेदों मे दिव्य-जन्म कहा गया है। ऋग्वेद (1/44/6) के ये शब्द हम नही भूल सकते ‘‘प्रतिरन्नायुर्जीवसें नमस्या दैव्यं जनमं्’’ अर्थात तुम्हें फिर से आयु एवं जीवन प्राप्त होना निश्चित है। स्पष्ट हैं कि मृत्यु के पश्चात केवल एक और जीवन हैं, न कि इसी लोक मे शारीरिक बदलाव बार-बार होते रहना हैं।
ऋग्वेद (1/58/6) मे एक स्थान पर कितनी साफ बात कही गर्इ हैं:
होतारमग्ने अतिथि वरेण्यं मित्र न शेवं दिव्याय।।
अर्थात हे अग्नि, दिव्य जन्म हवन करनेवाले को नही, प्रत्येक समय संसार के मित्र (परमेश्वर) का वरण करनेवाले को हैं।
अत: वर्तमान जन्म के बाद केवल एक और जन्म है और वह दिव्य जन्म हैं। एक स्थान पर द्विजन्माने का शब्द आया हैं, अर्थात दोनो को माननेवाले। इस प्रकार दिव्य जन्म, अंतिम दिन, दिव्याय जन्मने जैेसे शब्दों से पुन: जीवित होने एवं परलोक की धारणा की पुष्टि स्पष्टता: होती हैं और साथ ही इसी दुनिया मे बार-बार जन्म लेने की धारणा अवैदिक ठहरती हैं। वेदो के पूर्व में आए महर्षि (दूत) भी केवल दो ही जन्म की बात करते रहे है, कर्इ जन्मों की नही। इस प्रकार यही विश्वास सत्य ठहरता है।
अन्य दूसरें बड़े धर्म इस्लाम और र्इसार्इ (Christian) भी दो ही जीवन मानते हैं-
इहलौकिक एवं पारलौकिक जीवन।
कर्इ विद्धान इस प्रश्न पर दार्शनिकीय धोखा खा चुके है। हम धोखा न खाएं।
शतपथ ब्राहम्मण में कहा गया हैं
कि उस लोक मे कर्मो को तराजू पर रखा जाएगा और पलड़े में जो कर्म भारी होगा, मनुष्य उसी को प्राप्त होगा। जो इस रहस्य को समझता है वह इस लोक मे अपने को जांचता रहता हैं कि उसके कौन-से कर्म हलके और कौन-से भारी हो रहे है। सतर्क लोग उपर उठ जाते हैं, महान बन जाते हैं। कारण यह कि वे सदैव अच्छे कर्म करने का प्रयास करते हैं और अच्छे कर्म अर्थात पुण्य कर्म सदैव प्रबल यानी भारी होते है और पाप के कर्म हलके
(11/2/7/33)।
मनुरूमृति में भी कहा गया हैं कि
आत्मा-स्वरूप् पुरूष (देवा) मनुष्य के कर्मो को देखते रहते हैं, हालांकि मनुष्य यह समझता है कि उसे अकेले मे कोर्इ नही देखता। पुराणों मे उन आत्मा-स्परूप् पुरूषों को चित्रगुप्त का नाम दिया गया हैं औ कुरआन में ‘किरामज कातिबीन’ कहा गया हैं।
कुरआन में हैं कि
जिसके सुकर्मो का पलड़ा भारी होगा, वह सुखदायक जीवन पाएगा और जिसका पलड़ा हलका हो गया तो उसका ठिकाना हावियां हैं। हाविया के विषय मे कुरआन मे ही स्पष्ट किया गया हैं कि वह दहकती हुर्इ आग अर्थात नरकाग्नि हैं।
(कुरआन 101/6-11)
परलोक मे फैसले से पूर्व कर्मो को तौलने की एक प्रक्रिया होगी। इससे मनुष्य अपने बारे मे स्वंय समझ सकेगा कि हमारी वास्तविक स्थिति क्या है। फिर कुरआन के अनुसार मनुष्य को उसके बड़े-बड़े दुष्कर्मो को सार्वजनिक रूप् से सुनाया जाएगा और उसको अपना जवाब देने का अवसर दिया जाएगा। यदि वह किसी भी बुरे कर्म के चार्ज को झुठलाएगा तो तुरन्त र्इश्वर उसके हाथ, पैर, जिहवा इत्यादि अंगो को शक्ति दे देगा कि वे बोले।
मनुष्य ने जिन अंगो को उस बुरे कर्म में प्रयोग किया होगा, वे अंग तत्काल उसके विरूद्ध गवाही देने लगेंगे। उनकी गवाहियों को सुनकर वह सटपटा जाएगा। कुछ बुरे कर्म व्यक्ति के स्वयं से संबंधित और कुछ अन्य से संबंधित हो सकते हैं। अन्य से संबंधित दुष्कर्म मे जिन व्यक्तियों के खिलाफ उसने गलत काम किया होगा, वे बुलाए और वे अपनी गवाहियां पेश करेंगे।
फिर तुरन्त उनके सामने चित्रगुप्त (पवित्र लेखक फरिश्तों) द्वारा क्षण-क्षण का तैयार किया गया रिकार्ड सामने रख दिया जाएगा। जीवन का सम्पूर्ण रिकार्ड देखकर मनुष्य बोल उठेगा कि भला यह कैसा रिकार्ड हैं जो तैयार हो गया और हमे जान भी न सके। इसमें तो छोटी-बड़ी कोर्इ ऐसी चीज नही हैं जो हमने अंजाने मे भी की हो और वह दर्ज होने से छूट गर्इ हो (कुरआन, 18: 49)।
इतने विस्तृत रिकार्ड को देखकर व्यक्ति कायल हो जाएगा कि वह इसका भागी हैं। बुरा व्यक्ति अपने को कोसेगा। वह कहेगा कि काश! मुझे पुन: सांसारिक जीवन देकर भेज दिया जाता, तो अवश्य ही अच्छे कर्म करके आता (कुरआन, 39:58)।
किन्तु यह तो मात्र उसकी इच्छा ही होगी। उसी समय नरक या स्वर्ग का फैसला सुना दिया जाएगा।
यही फैसले का वह अंतिम दिन है, जिसकी ओर समस्त र्इश-दूत (महर्षिगण अथौत् अम्बिया) ध्यान दिलाते रहे। लेकिन मनुष्य ने ध्यान नही दिया और वह इसी सांसारिक जीवन को सब कुछ समझता रहा । वह इस भ्रम मे पड़ा रहा कि मरने के बाद पुन: इसी संसार में जीवन पाना है। ऐसा व्यक्ति कैसी-कैसी यातनाओ से पीड़ित होगा, आज वह उसकी कल्पना भी नही सकता। इसी प्रकार जिसने उस दिन मे विश्वास करके सतर्क जीवन बिताया और दूतों को कहना माना, सुकर्म किया उसके लिए स्वर्गलोक का शाश्वत सुखधाम हैं, जिसमें सुख ही सुख हैं।
अथर्ववेद मे कहा गया:
स्वर्गा लोका अमृतेन विष्ठा
(18/4/4)
अर्थात स्वर्गलोक अमरता से परिपूर्ण हैं।
वेदों मे स्वर्गलोक का विस्तृत वर्णन मिलता है।
ऋग्वेद (9/113/11) मे यह कामना की गर्इ हैं कि आनन्द और स्नेह जिस लोक मे वर्तमान रहते है, और जहां सभी कामनाएं इच्छा होते ही पूर्ण होती हैं। उसी अमरलोक में मुझे जगह दो।
इसी प्रकार की कामना अथर्ववेद (4/34/6) में भी की गर्इ हैं। इसमें कहा गया हैं कि
घी के प्रवाहवाली मधुरस के तटवाली, निर्मल जल से युक्त जल, दही और दूध्र से परिपूर्ण धाराएं मुझे प्राप्त हो। ऋग्वेद में यह भी कहा गया हैं कि अच्छा व्यक्ति स्वर्ग मे सुन्दर नारी प्राप्त करता है।
इसी प्रकार नरक का भी चित्र मिलता है। कहा गया हैं कि नरक अत्यन्त यातना का लोक है। वेदो, मनुस्मृति, भागवत महापुराण इत्यादि में नरक की भयानकता और विकरालता पढ़ कर मन अत्यंत भयाकुल हो उठता हैं और उससे बचने की विकलता पैदा हो जाती हैं। यही भावना मूल्यावान भी हैं और इसके बिना हम इहलोक मे भी शान्ति नही पा सकते हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण के पंचम स्कन्ध के अनुसार अट्ठार्इस प्रकार के नरक है। आत्मा का हनन करनेवाले, दुराचारी, पापी, असत्य-गामी लोग नरक को प्राप्त होते है। (ऋ0 4/5/5 एवं यजु0 40/3) यह नियमगत स्थिति मृत्यु के प्श्चात आत्मा की है।
नरक को कौन लोग जाते हैं और स्वर्ग को कौन? इन विषयों पर धर्मग्रन्थों में काफी विस्तृत चर्चा है। कुरआन तो इस विषय मे अनुपम है। कुरआन बार-बार नरक के दृश्य को सामने लाता है और तर्क देकर मनुष्य को सत्यमार्गी बनाना है।
काश! सारे मनुष्य इस ग्रन्थ को पढ़ते और समझने का यत्न करते।
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By: डा0 मकसूद आलम सिद्दीक
Courtesy :
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