Islami Qanoon Mein Balatkaar Ki Sazaa, Kyaa Nirdayata Hai?

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इस्लामी क़ानून में बलात्कार की सज़ा, क्या निर्दयता है ?

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इस्लामी क़ानून में बलात्कार की सज़ा मौत है?
बहुत से लोग इसे निर्दयता कहकर इस दंड पर आश्चर्य प्रकट करते हैं।
कुछ का तो कहना है कि इस्लाम एक जंगली धर्म है।
एक सरल-सा प्रश्न लोगों से किया गया कि ईश्वर न करे कि कोई आपकी माँ अथवा बहन के साथ बलात्कार करता है और आप को न्यायाधीश बना दिया जाए और बलात्कारी को आपके सामने लाया जाए तो उस दोषी को आप कौन-सी सज़ा सुनाएँगे ?
प्रत्येक से एक ही उत्तर मिला कि मृत्यु-दंड दिया जाएगा। कुछ ने कहा कि वे उसे कष्ट दे-देकर मारने की सज़ा सुनाएँगे।
अगला प्रश्न किया गया कि यदि कोई आपकी माँ, पत्नी अथवा बहन के साथ बलात्कार करता है तो आप उसे मृत्यु-दंड देना चाहते हैं, परंतु यही घटना किसी दूसरे की माँ, पत्नी अथवा बहन के साथ होती है तो आप कहते हैं कि मृत्यु-दंड देना जंगलीपन है।
इस स्थिति में यह दोहरा मापदंड क्यों है ?

पश्चिमी समाज औरतों को ऊपर उठाने का झूठा दावा करता है:

औरतों की आज़ादी का पश्चिमी दावा एक ढोंग है, जिसके सहारे वे उनके शरीर का शोषण करते हैं, उनकी आत्मा को गंदा करते हैं और उनके मान-सम्मान से उनको वंचित रखते हैं। पश्चिमी समाज दावा करता है कि उसने औरतों को ऊपर उठाया। इसके विपरीत उन्होंने उनको रखैल और समाज की तितलियों का स्थान दिया है, जो केवल उन जिस्मफ़रोशों और काम-इच्छुकों के हाथों का एक खिलौना हैं, जो कला और संस्कृति के रंग-बिरंगे पर्दे के पीछे छिपे हुए हैं| अमेरिका को दुनिया का सबसे उन्नत देश समझा जाता है। अबकी उसी देश में बलात्कार की दर हिंदुस्तान जैसे देशों से बहुत अधिक है| औसतन वहाँ हर 32 सेकेंड में एक बलात्कार होता है और उनमे से केवल 0.8 प्रतिशत पे ही मुक़दमा चलाया जा पाता है|

उस दृश्य की कल्पना कीजिए कि अगर अमेरिका में पर्दे का पालन किया जाता। जब कभी कोई व्यक्ति एक स्त्री पर नज़र डालता और कोई अशुद्ध विचार उसके मस्तिष्क में उभरता तो वह अपनी नज़र नीची कर लेता। प्रत्येक स्त्री पर्दा करती अर्था्त पूरे शरीर को ढक लेती सिवाय कलाई और चेहरे के। इसके बाद यदि कोई उसके साथ बलात्कार करता तो उसे मृत्यु-दंड दिया जाता। ऐसी स्थिति में क्या अमेरिका में बलात्कार की दर बढ़ती या स्थिर रहती या कम होती?

यह और बात है की जिनको पर्दा नहीं करना होता है वो सीधे इसी बात से इनकार कर देते हैं की अर्धनग्न स्त्री के बाज़ारों में घूमने से और बलात्कार या उनकी शान में लोगों द्वारा बदकलामी का कोई रिश्ता नहीं है लेकिन हर समझदार व्यक्ति इस बात को समझता भी है और मानता भी है तभी तो स्त्रियों का पर्दा भारतीय सभ्यता में भी हर धर्म के लोगों में मौजूद है | हाँ इन पर्दों की शक्ल अलग हुआ करती है और तरीका अलग होता है |

इस्लाम ने स्त्रियों के कैसे इज्ज़त दी देखिये:

बेबिलोनिया सभ्यता में औरतें अपमानित की जातीं थीं, और बेबिलोनिया के क़ानून में उनको हर हक़ और अधिकार से वंचित रखा जाता था। यदि एक व्यक्ति किसी औरत की हत्या कर देता तो उसको दंड देने के बजाय उसकी पत्नी को मौत के घाट उतार दिया जाता था।

यूनानी सभ्यता में औरतों को सभी अधिकारों से वंचित रखा जाता था और वे नीच वस्तु के रूप में देखी जाती थीं। यूनानी देवगाथा में ‘‘पांडोरा’’ नाम की एक काल्पनिक स्त्री पूरी मानवजाति के दुखों की जड़ मानी जाती है। यूनानी लोग स्त्रियों को पुरुषों के मुक़ाबले में तुच्छ जाति मानते थे। यद्यपि उनकी पवित्रता अमूल्य थी और उनका सम्मान किया जाता था, परंतु बाद में यूनानी लोग अहंकार और काम-वासना में लिप्त हो गए। वैश्यावृति यूनानी समाज के हर वर्ग में एक आम रिवाज बन गई।

रोमन सभ्यता अपने गौरव की चरमसीमा पर थी, उस समय एक पुरुष को अपनी पत्नी का जीवन छीनने का भी अधिकार था। वैश्यावृति और नग्नता रोमवासियों में आम थी।

मिस्री सभ्यता में स्त्रियों को शैतान का रूप मानते थे। और इस्लाम से पहले का अरब में औरतों को नीच माना जाता और किसी लड़की का जन्म होता तो कभी-कभी उसे जीवित दफ़न कर दिया जाता था।

इस्लाम ने औरतों को ऊपर उठाया और उनको बराबरी का दर्जा दिया और वह उनसे अपेक्षा करता है कि वे अपना स्तर बनाए रखें|

स्त्रियों को उनका पर्दा कैसे उनको इज्ज़त दिलवाता है:

मान लीजिए कि समान रूप से सुन्दर दो जुड़वाँ बहनें सड़क पर चल रही हैं। एक केवल कलाई और चेहरे को छोड़कर पर्दे में पूरी तरह ढकी हो और दूसरी पश्चिमी वस्त्र मिनी स्कर्ट (छोटा लंहगा) और ब्लाऊज पहने हुए हो। एक लफंगा किसी लड़की को छेड़ने के लिए किनारे खड़ा हो तो ऐसी स्थिति में वह किससे छेड़छाड़ करेगा। उस लड़की से जो पर्दे में है या जो मिनी स्कर्ट पहने है ?

स्वाभाविक रूप से वह दूसरी लड़की से दुर्व्यवहार करेगा। ऐसे वस्त्र विपरीत लिंग को अप्रत्यक्ष रूप से छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार का निमंत्रण (Provocation, invitation) देते हैं। क़ुरआन बिल्कुल सही कहता है कि पर्दा औरतों के साथ छेड़छाड़ और उत्पीड़न को रोकता है।

क़ुरआन की सूरा नूर में कहा गया है—

‘‘और अल्लाह पर ईमान रखने वाली औरतों से कह दो कि वे अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी पाकदामिनी (शील) की सुरक्षा करें और वे अपने बनाव- श्रृंगार और आभूषणों को न दिखाएँ,इसमें कोई आपत्ति नहीं जो सामान्य रूप से ज़ाहिर हो जाए। और उन्हें चाहिए कि वे अपने सीनों पर ओढ़नियाँ ओढ़ लें और अपने पतियों, बापों, अपने बेटों….के अतिरिक्त किसी के सामने अपने बनाव-श्रृंगार प्रकट न करें।’’
(क़ुरआन, 24:31)

पर्दे के लिए आवश्यक शर्तें:

पवित्र क़ुरआन और हदीस (पैग़म्बर के कथन) के अनुसार पर्दे के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान देना आवश्यक है—

(i) पहला शरीर का पर्दा है जिसे ढका जाना चाहिए। यह पुरुष और स्त्री के लिए भिन्न है। पुरुष के लिए नाभि (Navel) से लेकर घुटनों तक ढकना आवश्यक है और स्त्री के लिए चेहरे और हाथों की कलाई को छोड़कर पूरे शरीर को ढकना आवश्यक है। यद्यपि वे चाहें तो खुले हिस्से को भी छिपा सकती हैं। इस्लाम के कुछ आलिम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि चेहरा और हाथ भी पर्दे का आवश्यक हिस्सा है।

अन्य बातें ऐसी हैं जो स्त्री एवं पुरुष के लिए समान हैं।

(i) धारण किया गया वस्त्र ढीला हो और शरीर के अंगों को प्रकट न करे।

(ii) धारण किया गया वस्त्र पारदर्शी न हो कि कोई शरीर के भीतरी हिस्से को देख सके।

(iii) पहना हुआ वस्त्र ऐसा भड़कीला न हो कि विपरीत लिंग को आकर्षित या उत्तेजित करे।

(iv) पहना हुआ वस्त्र विपरीत लिंग के वस्त्रों की तरह न हो।

इस्लाम ने, जो कि ईश्वर द्वारा रचित एक संपूर्ण जीवनशैली का नाम है, इस भयावह स्थिति को उत्पन्न होने से पहले ही इसे रोकने के कई उपाय किए हैं और इन्हें आस्था से जोड़ दिया है। यही कारण है कि मुस्लिम समाज में यौन अराजकता और बलात्कार का अनुपात बहुत कम है। पर्दा इन्हीं उपायों में से एक है। इन समस्त उपायों का सारांश निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है—

(1)  पुरुष और स्त्री के कार्य क्षेत्र का निर्धारण, पुरुष का कार्यक्षेत्र जीविका का उपार्जन और स्त्री का कार्यक्षेत्र उसका घर।
(2)  पुरुष और स्त्री के अनावश्यक और स्वतंत्र मेल-मिलाप पर प्रतिबंध।
(3)  महरम और ग़ैर-महरम रिश्तों का निर्धारण। (महरम उसे कहते हैं जिनमें आपस में विवाह नहीं हो सकता। ग़ैर-महरम वो लोग होते हैं जिनमें आपस में विवाह हो सकता है।)
(4)  पुरुषों को आदेश दिया गया कि वह स्त्रियों को न तो अनावश्यक देखें न ही उनसे मिलें।
(5)  स्त्रियों को भी आदेश दिया गया कि वह पुरुषों को न तो अनावश्यक देखें न उनसे मिलें। अगर मिलना आवश्यक हो तो पर्दे में रहते हुए मिलें।
(6)  स्त्रियों को आदेश दिया गया कि जब वह घर से बाहर निकलें तो पर्दा धारण करके निकलें।
(7)  पुरुष और स्त्री दोनों को आदेश दिया गया कि वह ग़ैर-महरम लोगों से एकांत में कदापि न मिलें।
(8)  महरम संबंधियों के सामने शरीर ढकने या खुले रखने की सीमाओं का निर्धारण किया गया।
(9)  स्त्री अपना सौंदर्य किन-किन लोगों के सामने ज़ाहिर कर सकती है इसकी सीमा का निर्धारण किया गया।

उपर्युक्त उपायों पर अगर थोड़ा-सा चिंतन-मनन कर लिया जाए तो यह बात सरलता से समझ में आ जाएगी कि इन उपायों को व्यवहार में लाकर महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को समाप्त किया जा सकता है। अर्थात् पर्दा स्त्री की दासता का नहीं, उसकी सुरक्षा और स्वतंत्रता का बोधक है।

इस प्रकार के विचार समाज के कई बुद्धिजीवी लोगों के भी हैं और वह समय-समय पर इसे व्यक्त भी करते रहते हैं—

(1)  आंध्र प्रदेश के डी.जी.पी. श्री दिनेश रेड्डी ने अभी कुछ समय पहले ये विचार व्यक्त किया कि तेज़ी से बढ़ते हुए बलात्कार की घटनाओं के लिए महिलाओं के उत्तेजित और भड़काऊ वस्त्र एक बड़ा कारण है।
(2) सन् 2005 में मुंबई विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री विजय खोले ने अपने एक वक्तव्य में कहा कि ‘‘लड़कियों का कम और भड़काऊ कपड़े पहनना बलात्कार का मुख्य कारण है।’’
(3) दिसम्बर 2011 में मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समाज ने घोषणा की, कि जींस एक उत्तेजक वस्त्र है और लड़कियों को इसे नहीं पहनना चाहिए।

समाज में जो लोग पर्दे का विरोध करते हैं उन्हें चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

(1) वह लोग जिनके समक्ष इस्लाम की जीवन-व्यवस्था और उसकी आस्था अभी स्पष्ट रूप से नहीं आ पाई है।
(2) वह लोग जिनकी मानसिकता इतनी बिगड़ी हुई है कि स्त्री के शरीर को निहारे बग़ैर उनकी प्यास ही नहीं बुझती।
(3) वह महिलाएं जो यह समझती हैं कि उनका सौंदर्य नुमाइश के लिए है और उन्हें इसके प्रदर्शन का पूर्ण अधिकार है।
(4) वह लोग जो पर्दे का विरोध मात्र इसलिए करते हैं कि, इस्लाम के हर क़ानून का विरोध करना है, चाहे वह क़ानून समाज के लिए कितना ही लाभदायक क्यों न हो।

इन सभी लोगों से निवेदन है कि विरोध करने से पूर्व वह इस्लाम की संपूर्ण जीवन-व्यवस्था, विशेष रूप से पर्दे के क़ानून का एक बार निष्पक्ष भाव से अध्ययन अवश्य कर लें।

पर्दे के विरोध का आधार कितना कमज़ोर है इसकी सत्यता को इसी बात से समझा जा सकता है कि आज पूरे संसार में इस्लाम को स्वीकार करने वाले लोगों में महिलाओं का अनुपात सबसे अधिक है। वहीं महिलाएं जिन्हें पर्दे से भयभीत होकर इस्लाम से दूर भागना चाहिए था, वही आज पर्दा धारण करके अपने आपको सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस करती हैं।

इनमें से कुछ महिलाओं की अनुभूति प्रस्तुत है—

(1) ‘‘जिन सड़कों पर मैं शॉर्ट और बिकिनी पहनकर घूमा करती थी, उन्हीं रास्तों पर जब मैं पहली बार इस्लामी वस्त्र धारण करके निकली तो दुकाने भी वहीं थीं, लोग भी वहीं थे, पर मैं यह अनुभव कर रही थी कि जैसे मैं पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गई हूं और सारी जंज़ीरें टूट गई हैं। हिजाब (पर्दा) धारण करने के बाद मैंने अनुभव किया कि जैसे मेरे कंधों से एक भार उतर गया हो। अब मैं अपना सारा समय शॉपिंग में या मेकअप करने में या अपने बालों को संवारने में नहीं लगाती। अब मैं अपने आपको पूर्ण रूप से स्वतंत्र महसूस करती हूं।’’ —सारा बोक्कर, मियामी, अमेरिका

(2) ‘‘ईश्वर की कृपा से अब मैं मुस्लिम हूं। मैं हिजाब (पर्दा) को एक मुकुट के रूप में धारण करती हूं। इससे जहां एक ओर मुझे शक्ति प्राप्त होती है, वहीं दूसरी ओर इस्लाम के बारे में सही जानकारी प्रदान करने का अवसर भी प्राप्त होता है।’’ —मरीटा रेहाना, आस्ट्रेलिया

(3) ‘‘ये बिल्कुल ग़लत धारणा है कि मुस्लिम महिलाएं अपने पति के दबाव के कारण पर्दा धारण करती हैं। सत्य तो यह है कि इससे उसकी मर्यादा की रक्षा होती है और वह दूसरों के कंट्रोल से अपने आपको बचा लेती है। दया योग्य हैं वह ग़ैर-मुस्लिम महिलाएं जो अपने शरीर की नुमाइश करती फिरती हैं।’’ —नकाता ख़ौला, जापान

(4) ‘‘जब मैंने पहली बार हिजाब (पर्दा) धारण किया तो मुझे प्रसन्नता के साथ संतोष का भी अनुभव हुआ। अब मैं अपने आपको सुरक्षित महसूस करती हूं और लोग पहले से अधिक मेरा आदर करते हैं। —सिस्टर नूर, भारत

(5) ‘‘इस्लाम की परदा-व्यवस्था, जो नारीय गरिमा को बढाती और उसके शील व नारित्व की सुरक्षा करती है, से अति प्रभावित होकर मैंने इस्लाम क़बूल कर लिया है। नक़ाब अब मेरे लिए एक सुरक्षा कवच है….।’’ —कमला सुरैया, तमिलनाडू 

इस्लाम ने अपनी परदा-प्रणाली द्वारा, और विपरीत लिंगों (Opposite sexes) के बेरोकटोक, अनियंत्रित, स्वच्छंद मेल-जोल पर अंकुश लगाकर व्यभिचार (ससहमति अवैध यौनाचार) तथा बलात्कर का प्रवेश-द्वार बन्द कर दिया। अब भी यदि कोई व्यक्ति (महिला या पुरुष) इस द्वार को तोड़ कर अपराध-गृह में घुस जाए तो इसका मतलब है कि वह मनुष्य नहीं, शैतान है। उसे कठोरतम सज़ा देकर समाज को ऐसी शैतनत तथा इसके अनेकानेक दुष्परिणामों और कुप्रभावों से बचाने का प्रावधान अवश्य करना चाहिए। अब इस्लाम उस पर अपना क़ानून लागू कर देता है।

क़ुरआन कहता है—

‘‘व्यभिचारिणी औरत और व्यभिचारी मर्द दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो। और उन पर तरस खाने की भावना अल्लाह के धर्म के विषय में तुम को न सताए अगर तुम अल्लाह और अन्तिम दिन (परलोक में हिसाब-किताब और कर्मों के बदला मिलने के दिन) पर ईमान रखते हो। और उनको सज़ा देते समय ईमान वालों का एक गिरोह (वहां) मौजूद रहे।’*
क़ुरआन (24:2)

*(ताकि समाज में यदि कुछ बुरे तत्व हों तो वे डर जाएं और ऐसा कुकृत्य करने की हिम्मत न कर सकें।)

वर्तमान सेक्युलर क़ानून ससहमति व्यभिचार (Fornication) को क़ाबिले सज़ा क़ानूनी जुर्म नहीं मानता (बल्कि, अफ़सोस है कि इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ‘मानवाधिकार’ मानता है)। यह सोचा ही नहीं जाता कि ससहमति व्यभिचार, यहीं नहीं रुका रहता बल्कि अगले चरण, ‘बलात्कार’ में भी क़दम रखे बिना इसका पूर्ण समापन नहीं होता। इस्लाम ने यह मूर्खता नहीं की है। हां इतना ख़्याल अवश्य रखा है इन्सानी कमज़ोरी का कि शरीअत ने अविवाहित (एक या दोनों पक्षों) को अस्सी-अस्सी कोड़े मारने की; और विवाहित होकर भी व्यभिचार/बलात्कार करने वाले को ‘पत्थर मार-मारकर मार डालने’ की सज़ा नियुक्त की है। इससे व्यभिचार/बलात्कार के ‘न्यूनतम स्तर’ को ‘शून्य-स्तर (Zero level) पर ले आना अभीष्ट (Required) है।

व्यभिचार/बलात्कार के असिद्ध आरोप की सज़ा:

इस्लाम की दृष्टि में चरित्रा-हनन (Character Assassination) और किसी को अनुचित बदनाम करना (Defamation) बड़ा पाप है। विशेषतः शीलवान स्त्रियों/पुरुषों पर व्यभिचार/ बलात्कार का झूठा आरोप लगाना तो महापाप है और क़ानूनन अपराध भी।

क़ुरआन कहता है-

‘‘और जो लोग पाकदामन (शीलवान) औरतों पर तोहमत (मिथ्यारोप) लगाएं, फिर चार गवाह लेकर न आएं उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो, और वे ख़ुद ही पापी हैं, सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधर जाएं; अल्लाह अवश्य (उनके प्रति) क्षमाशील और दयावान है।’’
क़ुरआन (24:4,5)

(यदि किसी व्यभिचारी/बलात्कारी पर चार गवाह न हों तो क़ानून तो उसे/उन्हें सज़ा नहीं देगा। लेकिन उसका/उनका साफ़ छूट जाना यह अर्थ हरगिज़ नहीं रखता कि उनके इस अपराध की कोई सज़ा ही न थी। परलोक जीवन में, जिसमें कि यहां के पापों व अपराधों का पूरी सज़ा मिलनी, ईश्वर की न्याप्रदता का तक़ाज़ा है, व्यभिचारी या बलात्कारी को नरक की घोर, कठोर यातना मिलकर रहेगी)।

नाहक़ (अनुचित) हत्या की सज़ा:

सेक्युलर क़ानून-व्यवस्था में, ‘मानवाधिकार’ के तर्क पर (कुछ अति विशेष मामलों को छोड़कर साधारणतया) हत्या की सज़ा ‘मौत’ का प्रावधान नहीं रखा गया है। यह क़ानून प्रत्यक्ष तथा आश्चर्यजनक रूप से हत्यारे के प्रति बड़ी हद तक सहानुभूति और दयाशीलता का पक्षधर है और जिसकी हत्या हुई उसके परिजनों (माता-पिता, औलाद, पत्नी, परिवार आदि) की भावनाओं, उनकी मुसीबतों व समस्याओं, उनकी आर्थिक कठिनाइयों से निस्पृह (Indifferent)। हत्यारे का तो ‘मानवाधिकार’ प्रिय हो जाता है और प्रभावित परिवार का मानवाधिकार उसके घर के अन्दर एड़ियां रगड़-रगड़ कर बिलखता, तड़पता रहता है। हत्यारा कुछ समय बाद जेल से छूटकर मौज कर रहा होता है और पीड़ित परिवार रंज, ग़म, ग्लानि, पीड़ा, अनाथपन, विधवापन, और कुछ मामलों में आर्थिक तबाही, बरबादी, बेबसी आदि की मार खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। परिणामतः हज़ारों हत्याएं प्रतिवर्ष होती हैं। अदालतें ऐसे मुक़दमों के बोझ तले दबी कराह रही होती हैं। हत्या के प्रतिरोध में भी हत्याएं होती हैं। शत्रुता, अशान्ति से परिवार, घराने और समाज प्रदूषित होकर रह जाते हैं।

इस्लाम ऐसी परिस्थिति को न बर्दाश्त करता है न उत्पन्न होने देता है, न पनपने, फलने-पू$लने देता है। क़ुरआन कहता है-

‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो तुम्हारे लिए हत्या के मुक़दमों में क़िसास (बदले) का आदेश लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने हत्या की हो तो उस आज़ाद आदमी से ही बदला लिया जाए, ग़ुलाम हत्यारा हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए, और औरत ने हत्या की हो तो उस औरत से। हां, यदि किसी क़ातिल के साथ, उसका भाई (अर्थात् मृतक का कोई परिजन, जो इन्सानी रिश्ते से ‘भाई’ ही है) कुछ नरमी करने के लिए तैयार हो तो सामान्य नियम के अनुसार ख़ून के माली (रुपये-पैसे से) बदले का निपटारा होना चाहिए और क़ातिल के लिए आवश्यक है कि भले तरीवे़$ से ‘ख़ून-बहा’ (हत्या प्रतिदान राशि) चुका दे…अक़्ल और सूझबूझ वालो, तुम्हारे लिए ‘क़िसास’ में ज़िन्दगी है। आशा है कि तुम इस क़ानून के उल्लंघन से बचोगे।’’
क़ुरआन (2:178,179)

क़ुरआन ने ‘क़त्ल की सज़ा क़त्ल’ (या हत्या-प्रतिदान-राशि) को ‘ज़िन्दगी’ कहा है क्योंकि इससे, आगे क़त्ल होने वाली बहुत-सी ज़िन्दगियां बच जाती हैं। अतः इसे ‘क्रूरता’ और ‘निर्दयता’ कहने का कोई औचित्य ही नहीं है।


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