रमज़ान : एक प्रशिक्षण
ईश्वर की भक्ति में लीन होकर मनुष्य उसके प्रति अपने समर्पण को व्यक्त करने के लिए सदैव से तप और उपवास करता आ रहा है। यही कारण है कि समस्त धर्मों में भक्ति का यह रूप पाया जाता है कि मनुष्य कुछ समय के लिए खान-पान से स्वयं को अलग करके अपने आपको उसकी उपासना में लीन कर देता है। ईसाई हों या यहूदी, हिन्दू हों या पारसी, समस्त धर्मों में यह प्रथा पाई जाती है।
ईश्वर ने जब इस्लाम को समस्त मानवजाति के लिए मार्गदर्शन बनाकर अपने अंतिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के माध्यम से क़ुरआन के रूप में भेजा, तो उसने मुसलमानों को इस सत्य से अवगत भी कराया कि तुमसे पूर्व के लोगों पर भी रोज़े अनिवार्य किए गए थे।
‘‘ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए रोज़े अनिवार्य कर दिए गए, जिस तरह तुमसे पहले नबियों के अनुयायियों के लिए अनिवार्य किए गए थे। इससे उम्मीद है कि तुममें तक़वा (ईश्परायणता) पैदा होगा।’’
क़ुरआन(2:183)
अनिवार्यता का उद्देश्य
रोज़ों के अनिवार्य किए जाने का उद्देश्य ‘‘तक़वा’’ की प्रवृत्ति को पैदा करना है। तक़वा (ईश्परायणता) से तात्पर्य है बुराइयों से बचना। जो लोग एकेश्वरवाद को स्वीकार कर स्वयं को उसी एक शक्तिशाली ईश्वर के समक्ष समर्पित करना चाहते हैं, उनसे आशा की जाती है कि वो स्वयं भी बुराइयों से बचें और समाज में फैली हुई बुराइयों को मिटाने का भरसक प्रयत्न करें, चाहे समाज उसका कितना ही विरोध करे।
रमज़ान एक प्रशिक्षण
लोगों के विचार एवं व्यवहार में यह परिवर्तन इतना सरल न था, अतः ईश्वर ने यह आवश्यक समझा कि लोगों के अन्दर इस प्रवृत्ति को उत्पन्न करने के लिए उन्हें प्रति वर्ष पूरे एक माह का प्रशिक्षण दिया जाए। उसने अपने सर्वव्यापी ज्ञान के आधार पर प्रशिक्षण के लिए उस माह को चुना, जिसमें क़ुरआन का अवतरण हुआ था और वह था रमज़ान का महीना।
‘‘रमज़ान वह महीना है जिसमें क़ुरआन उतारा गया जो इन्सानों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन है और ऐसी स्पष्ट शिक्षाओं पर आधारित है जो सीधा मार्ग दिखाने वाली और सत्य और असत्य का अन्तर खोलकर रख देने वाली हैं। अतः अब से जो व्यक्ति इस महीने को पाये उसके लिए अनिवार्य है कि इस पूरे महीने के रोज़े रखे…।’’
क़ुरआन(2:185)
प्रशिक्षण कैसे
इस पवित्र महीने के लिए ईश्वर ने एक माह का एक ऐसा कार्यक्रम गठित कर दिया है, जिसके पूरा करने में एक व्यक्ति को काफ़ी प्रयत्न करना पड़ता है।
(1) पूरे महीने प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय (पौ फटने) से पहले उठना और कुछ भोजन ग्रहण करना।
(2) प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक खान-पान और अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश में रखना। इस अवधि में जल, फल, अन्न एवं हर प्रकार के खाने-पीने की वस्तुओं का प्रयोग तथा यौन क्रिया करना मना है। इसी को इस्लाम में ‘‘रोज़ा’’ कहा जाता है।
(3) सूर्योदय से पूर्व सामूहिक रूप से ईश्वर के समक्ष उपस्थित होकर उसके द्वारा बताए गए नियम व पद्धति के अनुसार उसकी उपासना (नमाज़ पढ़ना) करना।
(4) इसी ‘‘रोज़े’’ की अवस्था में अपनी समस्त दिनचर्या को पूरा करना। इस्लाम की शिक्षा यह नहीं है कि ईश्वर की उपासना सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्व का त्याग कर ही संभव है। इस्लाम के अनुसार तो इस दायित्व की पूर्ति के लिए भरपूर प्रयत्न करना भी ईश्वर की उपासना का एक अंग है।
(5) सूर्यास्त के समय रोज़े की अवधि समाप्त होते ही, सामूहिक रूप से जलपान ग्रहण करना (इफ़्तार करना)। रोज़े की अवधि समाप्त होने के बाद भी जलपान ग्रहण न करना अनुशासनहीनता है।
(6) फिर तत्काल सामूहिक रूप से ईश्वर के समक्ष उपस्थित होकर नमाज़ में लीन हो जाना, जिसे मग़रिब की नमाज़ कहते हैं।
(7) उसके कुछ ही घंटे बाद रात्रि की नमाज़ (इशा की नमाज़) के लिए फिर उपस्थित हो जाना। इशा की नमाज़ के बाद तरावीह की नमाज़ पढ़ी जाती है, जिसमें प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके एक माह में पूरा पवित्रा क़ुरआन पढ़ा जाता है।
(8) इसके बाद रात्रि में सोने की अनुमति है, परन्तु ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें प्रेरणा दी है कि हम मध्य रात्रि या उसके कुछ समय बाद उठकर एकांत में अपने ईश्वर के समक्ष तहज्जुद की नमाज़ में खड़े होकर उसके प्रति अपने समर्पण को व्यक्त करें।
(9) इस अतिव्यस्त कार्यक्रम में पांचों नमाज़ों को उनके समय पर पूरा करना है और यदि संभव हो तो पूरे महीने में एक बार क़ुरआन का अध्ययन भी कर लें।
(10) इस अति व्यस्त एवं कठिन कार्यक्रम में यह भी सम्मिलित है कि अपने पूरे वर्ष की आय एवं समस्त संपत्ति पर ज़कात (अनिवार्य धनदान) भी दी जाए। इसकी मात्रा ईश्वर ने ही सुनिश्चित की है।
रमज़ान के इस महीने में ईश्वर हमसे यह भी अपेक्षा करता है कि पूरा समय उसके बनाए हुए नियमों का पालन करेंगे और उनकी अवहेलना (अनादर) से बचने का भरसक प्रयत्न करेंगे और यदि समय के साथ इसमें सुस्ती आती है, तो अगला रमज़ान हमारे अन्दर नई शक्ति का संचालन कर हमें फिर तक़वा पर जमा देगा।
रमज़ान का सामाजिक महत्व
रमज़ान मात्र मुसलमानों के इबादत का महीना नहीं है, बल्कि यह समाज-सुधार का भी एक शक्तिशाली माध्यम है।
(1) तक़वा :
समाज में फैले हुए भ्रष्टाचार एवं अपराध को रोक पाने के समस्त प्रयत्न की असफलता से, ये सत्य अब उजागर हो गया है कि मात्र पुलिस और क़ानून के बल पर समाज से बुराइयों को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसको समाप्त करने का एक ही रास्ता है और वो है ‘‘तक़वा’’ अर्थात् लोगों के हृदय में इस भावना को जागृत करना कि वे ईश्वर के सामने उत्तरदायी हैं और इस कारण वह स्वयं अपने आपको समस्त बुराइयों से दूर रखें। रमज़ान इसी भावना को जागृत करने का महीना है।
(2) ईश्वर से संबंध :
ईश्वर से संबंध-विच्छेद (अलग होकर) करके समाज नैतिक पतन का शिकार हो जाता है, जैसा कि वर्तमान समाज में हुआ है। रमज़ान ईश्वर से संबंध सुदृढ़ करने का प्रभावशाली माध्यम है। अतः रमज़ान नैतिक पतन से समाज की रक्षा करता है और समाज के उत्थान में सहायक सिद्ध होता है।
(3) अनुशासन :
अनुशासनहीनता समाज के उत्थान में सबसे बड़ी रुकावट है। रमज़ान लोगों में अनुशासन का सद्गुण पैदा करता है और उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाता है।
(4) सामूहिकता :
लोगों के समूह का ही दूसरा नाम समाज है। सामूहिकता की भावना जितनी शक्तिशाली और दृढ़ होगी समाज भी उतना ही मज़बूत होगा। व्यक्तिवाद इसके लिए अति हानिकारक है। रमज़ान में सामूहिकता की स्थिति प्रबल होती है।
(5) मानव-प्रेम :
रमज़ान मानव-प्रेम का महीना है। ईश्वर के प्रति समर्पण लोगों में आपसी प्रेम और सौहाद्र तथा एक-दूसरे के काम आने की भावना पैदा करता है।
(6) सहनशीलता एवं धैर्य :
रमज़ान में ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए स्वेच्छा से हलाल चीज़ों को कुछ समय के लिए अपने ऊपर हराम कर लेने से सहनशीलता और धैर्य की भावना उत्पन्न होती है, जो समाज को शक्तिशाली बनाने के लिए अतिआवश्यक है।
(7) ग़रीबी उन्मूलन :
ग़रीबी समाज के लिए एक अभिशाप है। इसको दूर करने के सभी कार्यक्रम अब तक व्यर्थ सिद्ध हुए हैं। ज़कात ग़रीबी-उन्मूलन का एक प्रभावकारी रास्ता एवं विकल्प है। यह एक ईश्वरीय व्यवस्था है जिसमें धनाढ्य वर्ग स्वेच्छा से अपनी आय का एक अंश ग़रीबों को दे देता है और उसके बदले में उससे किसी भी प्रकार के लाभ की आशा तक नहीं रखता। इस ईश्वरीय व्यवस्था को अगर सामूहिकता के साथ सुनियोजित ढंग से लागू किया जाए, तो इसमें इतनी शक्ति है कि यह समाज से ग़रीबी को पूर्ण रूप से समाप्त कर दे। इतिहास साक्षी है कि ऐसा पहले हो चुका है।
रमज़ान और क़ुरआन
रमज़ान वो महीना है जिसमें क़ुरआन का अवतरण आरंभ हुआ, जिसे ईश्वर ने समस्त मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए भेजा और जिसके बारे में ईश्वर ने यह भी बता दिया कि क़ुरआन संसार की समस्त चीज़ों से अधिक महत्वपूर्ण हैं :
‘‘ऐ नबी (सल्ल॰), कहो कि—‘‘यह अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया है कि यह चीज़ उसने भेजी, इस पर तो लोगों को ख़ुशी मनानी चाहिए, यह उन सब चीज़ों से उत्तम है जिन्हें लोग समेट रहे हैं।’’
क़ुरआन(10:58)
अर्थात् एक प्रकार से रमज़ान क़ुरआन के अवतरण का वार्षिकोत्सव भी है, जिससे प्रतिवर्ष क़ुरआन से हमारे व्यावहारिक संबंध का नवजागरण होता रहता है और ईश्वरीय मार्गदर्शन से हमारा संबंध टूटने नहीं पाता।
ईद का त्योहार वास्तव में क़ुरआन के अवतरण की ख़ुशी मनाने का त्योहार है, जो रमज़ान समाप्त होने के अगले ही दिन मनाया जाता है।
रमज़ान इस भावना को भी नया जीवन देता है कि क़ुरआन मात्र मुसलमानों की धार्मिक पुस्तक नहीं है, बल्कि यह तो समस्त मानवजाति के लिए है और यह तो पूरे संसार को प्रकाशमय करने आई है और यह मुसलमानों का कर्तव्य है कि वे इस ईश्वरीय संदेश को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाए अन्यथा उन्हें ईश्वर के सामने कठोर दंड भुगतना पड़ेगा।
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