Nyaay – Insaan ka Haq

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न्याय – इन्सान का हक़

Nyaayन्याय, यह एक बहुत अहम अधिकार है, जो इस्लाम ने इन्सान को इन्सान होने की हैसियत से दिया है। कु़रआन में आया है कि:

‘‘किसी गिरोह की दुश्मनी तुम्हें इतना न भड़का दे कि तुम नामुनासिब ज़्यादती करने लगो’’ (कु़रआन 5:8)

आगे चलकर इसी सिलसिले में फिर फ़रमाया:

‘‘और किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम इन्साफ़ से हट जाओ, इन्साफ़ करो, यही धर्म परायणता से क़रीबतर है’’ (5:8)। एक और जगह फ़रमाया गया है कि ‘‘ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, इन्साफ़ करने वाले और ख़ुदा वास्ते के गवाह बनो’’ (कु़रआन 5:8)

मालूम हुआ कि आम इन्सान ही नहीं दुश्मनों तक से इन्साफ़ करना चाहिए। दूसरे शब्दों में इस्लाम जिस इन्साफ़ की दावत देता है, वह सिर्फ़ अपने देश के रहने वालों के लिए या अपनी क़ौम के लोगों के लिए या मुसलमानों के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के सब इन्सानों के लिए है। हम किसी से भी बेइन्साफ़ी नहीं करते, हमारा हमेशा रवैया यह होना चाहिए कि कोई आदमी भी हम से बेइन्साफ़ी का अंदेशा न रखे और हम हर जगह हर आदमी के साथ न्याय और इन्साफ़ का ख़्याल रखें।

इन्सानी बराबरी

इस्लाम न सिर्फ़ यह कि किसी रंग व नस्ल के भेदभाव के बग़ैर तमाम इन्सानों के बीच बराबरी को मानता है, बल्कि इसे एक महत्वपूर्ण सत्य नियम क़रार देता है। क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया है कि:

‘‘ऐ इन्सानो! हम ने तुम को ‘एक’ मां और एक ‘बाप’ से पैदा (अर्थात् आदम और हव्वा से) किया।’’

दूसरे शब्दों में, इसका मतलब यह हुआ कि तमाम इन्सान अस्ल में भाई-भाई हैं, एक ही मां और एक ही बाप की औलाद हैं।

‘‘और हमने तुम को क़ौमों और क़बीलों में बांट दिया, ताकि तुम एक-दूसरे की पहचान कर सको’’ (49:13)

यानी क़ौमों और क़बीलों में यह तक़्सीम पहचान के लिए है। इसलिए है कि एक क़बीले या एक क़ौम के लोग आपस में एक-दूसरे से परिचित हों और आपस में सहयोग कर सकें। यह इसलिए नहीं है कि एक क़ौम दूसरी क़ौम पर बड़ाई जताए और उसके साथ घमंड से पेश आए, उसको कमज़ोर और नीचा समझे और उसके अधिकारों पर डाके मारे।

‘‘हक़ीक़त में तुम में इज़्ज़त वाला वह है, जो तुम में सबसे ज़्यादा ख़ुदा से डरने वाला है’’ (49:13)

यानी इन्सान पर इन्सान की बड़ाई सिर्फ़ पाकीज़ा चरित्र और अच्छे आचरण की बिना पर है, न कि रंग व नस्ल जु़बान या वतन की बिना पर। और यह बड़ाई भी इस उद्देश्य के लिए नहीं है कि अच्छे चरित्र और आचरण के लोग दूसरे इन्सानों पर अपनी बड़ाई जताएं, क्योंकि बड़ाई जताना स्वयं में एक बुराई है, जिसको कोई धर्मपरायण और परहेज़गार आदमी नहीं कर सकता और यह इस उद्देश्य के लिए भी नहीं है कि नेक आदमी के अधिकार बुरे आदमियों के अधिकारों से बढ़कर हों, या उसके अधिकार उनसे ज़्यादा हों, क्योंकि यह इन्सानी बराबरी के ख़िलाफ़ है, जिसको इस आलेख के शुरू में नियम के तौर पर बयान किया गया है। यह बड़ाई और इज़्ज़त अस्ल में इस वजह से है कि नेकी और भलाई नैतिक-दृष्टि से बुराई के मुक़ाबले में बहरहाल श्रेष्ठ है।

इस बात को अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने एक हदीस में बयान फ़रमाया है कि:

‘‘किसी अरबी को ग़ैर-अरबी पर कोई बड़ाई नहीं है, न ग़ैर-अरबी को अरबी पर कोई बड़ाई है। न गोरे को काले पर और न काले को गोरे पर कोई बड़ाई है। तुम सब आदम (अलैहि॰) की औलाद हो और आदम मिट्टी से बनाए गए थे।’’

इस तरह इस्लाम ने तमाम मानव-जाति में बराबरी क़ायम की और रंग, नस्ल भाषा और राष्ट्र के आधार पर सारे भेद-भावों की जड़ काट दी। इस्लाम के नज़दीक यह हक़ इन्सान को इन्सान होने की हैसियत से हासिल है कि उसके साथ उसकी खाल के रंग या उसकी पैदाइश की जगह या उसकी जन्म देने वाली नस्ल व क़ौम के आधार पर कोई भेदभाव न बरता जाए। उसे दूसरे के मुक़ाबले में नीच न ठहराया जाए। और उसके अधिकार दूसरों से कमतर न रखे जाएं। अमेरिका के अप्ऱ$ीक़ी नस्ल के लोगों का मशहूर लीडर ‘मैल्कम एक्स’ जो काली नस्ल के बाशिन्दों की हिमायत में सपे़$द नस्ल वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कश्मकश करता रहा था, मुसलमानों होने के बाद जब हज के लिए गया और वहां उसने देखा कि एशिया, अफ़्रीक़ा, यूरोप, अमेरिका यानी हर जगह के और हर रंग व नस्ल के मुसलमान एक ही लिबास में एक ख़ुदा के घर की तरफ़ चले जा रहे हैं, एक ही घर की परिक्रमा कर रहे हैं, एक ही साथ नमाज़ पढ़ रहे हैं और उनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है तो वह पुकार उठा कि यह है रंग और नस्ल के मसले का हल, न कि वह जो हम अमेरिका में अब तक करते रहे हैं।

आज ख़ुद ग़ैर-मुस्लिम विचारक भी, जो अंधे भेदभाव और पक्षपात में ग्रस्त नहीं हैं, यह मानते हैं कि इस मसले को जिस कामियाबी के साथ इस्लाम ने हल किया है, कोई दूसरा मज़हब और तरीक़ा हल नहीं कर सका है।

भलाई के कामों में हर एक से सहयोग और बुराई में किसी से सहयोग नहीं

इस्लाम ने एक बड़ा अहम उसूल यह पेश किया है कि:

‘‘नेकी और परहेज़गारी में सहयोग करो। बदी और गुनाह के मामले में सहयोग न करो’’ (5:2)

इसके माने यह है कि जो आदमी भलाई और ईशपरायणता का काम करे, यह देखे बग़ैर कि वह उत्तर का रहने वाला हो या दक्षिण का, वह यह हक़ रखता है कि हम उससे सहयोग करेंगे। इसके विपरीत जो आदमी बदी और ज़्यादती का काम करे, चाहे वह हमारा क़रीबी पड़ोसी या रिश्तेदार ही क्यों न हो, उसका न यह हक़ है कि रिश्तेदारी, नस्ल, वतन या भाषा और जातीयता के नाम पर वह हमारा सहयोग मांगे, न उसे हम से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हम उससे सहयोग करेंगे। न हमारे लिए यह जायज़ है कि ऐसे किसी काम में उसके साथ सहयोग करें। बदकार हमारा भाई ही क्यों न हो, हमारा और उसका कोई साथ नहीं है।

नेकी का काम करने वाला चाहे हम से कोई रिश्ता न रखता हो, हम उसके साथी और मददगार हैं, या कम से कम ख़ैरख़्वाह और शुभचिंतक तो ज़रूर ही हैं।

युद्ध के दौरान दुश्मनों के अधिकार के अन्तर्राष्ट्रीय ‘क़ानून’ की हैसियत

इससे पहले कि इस्लामी राज्य के नागरिकों के हक़ और अधिकार बयान किया जाए, यह बताना ज़रूरी है कि दुश्मनों के क्या अधिकार इस्लाम ने बताए हैं। युद्ध के शिष्टाचार की कल्पना से दुनिया बिल्कुल बेख़बर थी। पश्चिमी दुनिया इस कल्पना से पहली बार सत्राहवीं सदी के विचारक ग्रोशियूस (Grotius) के ज़रिये से परिचित हुई। मगर अमली तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध नियम उन्नीसवीं सदी के मध्य में बनाना शुरू हुए।

इससे पहले युद्ध के शिष्टाचार का कोई ख़्याल पश्चिम वालों के यहां नहीं पाया जाता था। जंग में हर तरह के जु़ल्म व सितम किए जाते थे और किसी तरह के अधिकार जंग करने वाली क़ौम के नहीं माने जाते थे। उन्नीसवीं सदी में और उसके बाद से अब तक जो नियम भी बनाए गए हैं, उनकी अस्ल हैसियत क़ानून की नहीं, बल्कि संधि की सी है। उनको अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून कहना हक़ीक़त में ‘क़ानून’ शब्द का ग़लत इस्तेमाल है। क्योंकि कोई क़ौम भी जंग में उस पर अमल करना अपने लिए ज़रूरी नहीं समझती। सिवाए इसके कि दूसरा भी उसकी पाबन्दी करे।

दूसरे शब्दों में जंग के इन सभ्य निमयों में यह बात मान ली गयी है कि अगर हमारा दुश्मन उनका आदर करेगा तो हम भी करेंगे और अगर वह जंग के ज़ालिमाना तरीक़ों पर उतर आएगा तो हम भी बे-रोक-टोक वही तरीक़े इस्तेमाल करेंगे। ज़ाहिर है कि इस चीज़ को क़ानून नहीं कहा जा सकता।

यही वजह है कि हर जंग में इन तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय क़ायदों और नियमों की धज्जियां उड़ाई गईं और हर बार उन पर पुनर्विचार किया जाता रहा, और उन में कमी व बेशी होती रही।


Courtesy :
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Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)


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