Eemaan (Part 2) – LaiLaha Illallah

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ईमान (भाग-2) – ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’

(1) परोक्ष (ग़ैब) पर ‘ईमान’

eeman 2देखिए जब आपको किसी चीज़ का ज्ञान नहीं होता तो आप ज्ञान वाले व्यक्ति की खोज करते हैं और उसके आदेश के अनुसार आचरण करते हैं। आप बीमार होते हैं तो ख़ुद अपना इलाज नहीं कर लेते बल्कि डाक्टर के पास जाते हैं। डाक्टर का प्रामाणिक होना, उसका अनुभवी होना, उसके हाथ से बहुत से रोगियों का अच्छा होना, ये ऐसी बातें हैं जिनके कारण आप ‘ईमान’ ले आते हैं कि उत्तम इलाज के लिए जिस योग्यता की आवश्यकता है वह उस डाक्टर में पाई जाती है। इसी ईमान (विश्वास) के कारण वह जिस दवा को जिस ढंग से सेवन करने को कहता है उसका आप सेवन करते हैं और जिस-जिस चीज़ से बचने का हुक्म देता है उससे बचते हैं। इसी तरह क़ानून के मामले में आप वकील पर ‘ईमान’ लाते हैं और उसके आदेशों का पालन करते हैं। शिक्षा के विषय में अध्यापक पर ‘ईमान’ लाते हैं और वह जो कुछ आपको बताता है उसको मानते चले जाते हैं। आपको कहीं जाना हो, और रास्ता मालूम न हो तो किसी जानकार व्यक्ति पर ‘ईमान’ लाते हैं और जो मार्ग वह आपको बताता है उसी पर चलते हैं। तात्पर्य यह है कि दुनिया के हर मामले में आपको जानकारी और ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी जानने वाले आदमी पर ‘ईमान’ लाना पड़ता है और उसके आदेशों का पालन करने पर आप मजबूर होते हैं, इसी का नाम परोक्ष (ग़ैब) पर ईमान है।

परोक्ष पर ईमान का अर्थ यह है कि जो कुछ आपको मालूम नहीं उसका ज्ञान आप जानने वालों से प्राप्त करें। और उसपर विश्वास कर लें। ईश्वर की सत्ता और गुण से आप परिचित नहीं हैं। आपको यह भी मालूम नहीं कि उसके फ़रिश्ते उसके आदेश के अन्तर्गत सम्पूर्ण विश्व का काम कर रहे हैं और आपको हर तरफ़ से घेरे हुए हैं। आपको यह भी ख़बर नहीं कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा क्या है? आपको आख़िरत (परलोक) के जीवन का भी सही हाल मालूम नहीं। इन सब बातों का ज्ञान आपको एक ऐसे मनुष्य के द्वारा प्राप्त होता है जिसकी सच्चाई, सत्यवादिता, ईश-भय, पवित्रतम जीवन और तत्वदर्शिता-सम्बन्धी बातों को देखकर आप मानते हैं कि वह जो कुछ कहता है, सच कहता है और उसकी सब बातें विश्वास करने योग्य हैं। यही परोक्ष पर ईमान है। अल्लाह का आज्ञापालन और उसकी इच्छा के अनुसार आचरण करने के लिए परोक्ष पर ईमान आवश्यक है, क्योंकि पैग़म्बर के सिवा किसी और साधन से आपको सही ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता और सही ज्ञान के बिना आप इस्लाम के तरीके़ पर ठीक-ठीक चल नहीं सकते।

(2) ईश्वर पर ईमान

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यह है, ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’। अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं।

यह ‘कलमा’ (उक्ति) इस्लाम की बुनियाद है। जो चीज़ मुस्लिम को एक ‘काफ़िर’ (इन्कारी), एक मुश्रिक (अनेकेश्वरवादी) और एक नास्तिक (Atheist) से अलग करती है वह यही है। इसी ‘कलमे’ के मानने और न मानने से मनुष्य और मनुष्य के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है। इसको मानने वाले एक समुदाय (Community) बन जाते हैं और न मानने वाले दूसरा समुदाय। इसके मानने वालों के लिए संसार से लेकर ‘आख़िरत’ (परलोक) तक उन्नति, सफलता और प्रतिष्ठा है और न मानने वालों के लिए निराशा, अपमान और तिरस्कार।

इतना बड़ा अन्तर जो मनुष्य और मनुष्य के बीच हो जाता है, वह केवल थोड़े से शब्दों के उच्चारण का नतीजा नहीं है। मुँह से यदि आप दस लाख बार ‘कुनैन, कुनैन’ पुकारते रहें और खाएँ नहीं, तो आपका ज्वर कदापि न उतरेगा। इसी प्रकार यदि मुख से ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ कह दिया, परन्तु यह न समझे कि इसका क्या अर्थ है और इन शब्दों का उच्चारण करके आपने कितनी बड़ी चीज़ को मान लिया है और इसके मानने से आप पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी आ गई है, तो ऐसा बेसमझी का उच्चारण कुछ विशेष लाभदायक नहीं। वास्तव में अन्तर तो उस समय होगा जब ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह’’ का अर्थ आपके दिल में उतर जाए, उसके अर्थ पर आपको पूर्ण विश्वास हो जाए। उसके विरुद्ध जितने भी विचार और धारणाएँ हैं वे सब आपके दिल से निकल जाएँ और इस कलमे का प्रभाव आपके मन और मस्तिष्क पर कम-से-कम इतना गहरा हो जितना कि इस बात का प्रभाव है कि आग जलानेवाली चीज़ है और ज़हर मार डालनेवाली चीज़। अर्थात् जिस प्रकार आग की विशेषता पर ईमान आपको चूल्हे में हाथ डालने से रोकता है और ज़हर की विशेषता पर ‘ईमान’ आपको ज़हर खाने से बचाता है, उसी प्रकार ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर ईमान आपको ‘शिर्क’ (बहुदेववाद) और ‘कुफ़्र’ (अधर्म) और नास्तिकता की हर छोटी-से-छोटी बात से भी रोक दे, चाहे वह विश्वास सम्बन्धी हो या व्यवहार सम्बन्धी।

‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का अर्थ

सबसे पहले यह समझिए कि ‘इलाह’ किसे कहते हैं। अरबी भाषा में ‘इलाह’ का अर्थ है ‘इबादत के योग्य’, अर्थात् वह सत्ता जो अपनी महिमा, और तेज और उच्चता की दृष्टि से इस योग्य हो कि उसकी पूजा की जाए और बन्दगी और ‘इबादत’ मंे उसके आगे सिर झुका दिया जाए। ‘‘इलाह’’ के अर्थ में यह भाव भी शामिल है कि वह अपार सामथ्र्य और शक्ति का अधिकारी है जिसके विस्तार को समझने में मानव-बुद्धि चकित रह जाए। ‘इलाह’ के अर्थ में यह बात भी शामिल है कि वह स्वयं किसी का मोहताज और आश्रित न हो और सब अपने जीवन-सम्बन्धी मामलों में उसपर आश्रित और उससे सहायता पाने के लिए मजबूर हों। ‘‘इलाह’’ शब्द में ‘छिपे होने’ का भाव भी पाया जाता है, अर्थात् ‘इलाह’ उसको कहेंगे जिस की शक्तियाँ रहस्यमय हों। फ़ारसी भाषा में ‘‘ख़ुदा’’ और हिन्दी में ‘‘देवता’’ और अंग्रेज़ी में ‘‘गॉड’’ का अर्थ भी इससे मिलता-जुलता है और संसार की अन्य भाषाओं में इस अर्थ के लिए विशेष शब्द पाए जाते हैं। (मिसाल के तौर पर ग्रीक में इसके लिए डेओस (Deo’s) शब्द आता है। लेटिन में डेऊस (Deus), गोथिक (Gothic) में गुथ (Guth), डैनिश (Danish) में गुड (Gud), जर्मन में गाट (Gott) ।

‘अल्लाह’ शब्द वास्तव में ईश्वर की व्यक्तिवाचक संज्ञा है। ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का शाब्दिक-अर्थ यह होगा कि कोई ‘इलाह’ नहीं है सिवाय उस विशेष सत्ता के जिसका नाम अल्लाह है। मतलब यह है कि सारे विश्व में अल्लाह के सिवा कोई एक सत्ता भी ऐसी नहीं जो पूजने योग्य हो। उसके सिवा कोई इसका हक़ नहीं रखता कि इबादत, उपासना और बन्दगी और आज्ञापालन में उसके आगे सिर झुकाया जाए। केवल वही एक सत्ता समूचे जगत की मालिक और हाकिम है। सब चीज़ें उसकी मोहताज हैं, सब उसी की सहायता पाने पर मजबूर हैं। उसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा संभव नहीं और उसकी सत्ता और व्यक्तित्व को समझने में बुद्धि दंग है।

‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ की वास्तविकता

यह तो केवल शब्दों का अर्थ था, अब इसकी हक़ीक़त को समझने की कोशिश कीजिए।

मानव के प्राचीन-से-प्राचीन इतिहास के जो वृत्तान्त हम तक पहुँचे हैं और प्राचीन-से-प्राचीन जातियों के जो भग्नावशेष (खंडहर) और चिन्ह देखे गए हैं, उनसे मालूम होता है मनुष्य ने हर युग में किसी न किसी को ‘ईश’ माना है और किसी न किसी की ‘इबादत’ (उपासना) अवश्य की है। अब भी संसार में जितनी जातियाँ हैं, चाहे वे नितांत बर्बर हों या पूरी तरह असभ्य, उन सब में यह बात पाई जाती है कि वे किसी को ईश्वर मानती हैं और उसकी इबादत करती हैं। इससे मालूम हुआ कि मानव-स्वभाव में ईश्वर का ख़याल बैठा हुआ है, उसके अन्तर में कोई ऐसी चीज़ है जो उसे मजबूर करती है कि किसी को ईश्वर माने और उसकी उपासना (इबादत) करे।

प्रश्न उभरता है कि वह क्या चीज़ है? आप स्वयं अपने अस्तित्व पर और समस्त मनुष्यों की दशा को देखकर इस प्रश्न का उत्तर मालूम कर सकते हैं।

मनुष्य वास्तव में बन्दा (दास, सेवक, उपासक) ही पैदा हुआ है। वह स्वभावतः आश्रित और मोहताज है, निर्बल है, निर्धन है। अनगिनत चीज़ें हैं जो उसके अस्तित्व को स्थिर रखने के लिए आवश्यक हैं, परन्तु उनपर उसे अधिकार प्राप्त नहीं है, आप-से-आप वे उसे मिलती भी हैं और उससे छिन भी जाती है।

बहुत-सी चीज़ें हैं जो उसके लिए लाभदायक हैं। वह उनको प्राप्त करना चाहता है, परन्तु कभी ये उसको मिल जाती हैं और कभी नहीं मिलतीं, क्योंकि उनको प्राप्त करना बिल्कुल उसके वश में नहीं है।

बहुत-सी चीजे़ं हैं जो उसको हानि पहुँचाती हैं। उसके जीवन भर के परिश्रम को पल भर में नष्ट कर देती हैं। उसकी कामनाओं को मिट्टी में मिला देती हैं। उसको बीमार करती और तबाही में डालती हैं। वह उनको दूर करना चाहता है कभी वे दूर हो जाती हैं और कभी नहीं होतीं। इससे वह जान लेता है कि उनका आना और न आना, दूर होना या न होना उसके वश में नहीं है।

बहुत-सी चीज़ें हैं जिनकी शान-शौकत और बड़ाई को देखकर वह हैरान हो जाता है। पहाड़ों को देखता है, नदियों को देखता है। बड़े-बड़े भयंकर और हिंसक जानवरों को देखता है। हवाओं के झकोर और तूफ़ान और पानी की बाढ़ और भूकम्प को देखता है, बादलों का गरजना और घटाओं की कालिमा और बिजली की कड़क, चमक और मूसलाधार बारिश के दृश्य उसके सामने आते हैं। सूर्य, चन्द्र और तारे उसे गतिशील दिखाई देते हैं। वह देखता है कि सब चीज़ें कितनी बड़ी, कितनी शक्तिशाली, कितनी विराट और भव्य हैं और उनकी अपेक्षा वह स्वयं कितना निर्बल और तुच्छ है।

ये विभिन्न दृश्य और स्वयं अपनी विशेषताओं की विभिन्न स्थितियों को देखकर उसके मन में आप-से-आप अपनी बन्दगी (दासता), पराश्रय और दुर्बलता महसूस होती है और जब यह अनुभूति होती है, तो इसके साथ ही स्वयं ईश्वर की कल्पना भी उभर आती है। वह उन हाथों का ख़याल करता है जो इतनी बड़ी शक्तियों के मालिक हैं। उनकी बड़ाई का एहसास उसे विवश करता है कि वह उनकी इबादत में सिर झुका दे। उनकी शक्ति का आभास उसे विवश करता है कि वह उनके आगे अपनी दीनता प्रस्तुत करे। उनकी लाभ पहुँचाने वाली शक्तियों की अनुभूति उसे विवश करती है कि वह अपनी परेशानी दूर करने के लिए उनके आगे हाथ फैलाए और उनकी हानि पहुँचाने वाली शक्तियों की अनुभूति उसे विवश करती है कि वह उनसे डरे और उनके प्रकोप से बचने के प्रयत्न करे।

अज्ञान की निम्नतम अवस्था में मनुष्य यह समझता है कि जो चीज़ें उसको भव्य और शक्तिवाली दीख पड़ती हैं या किसी तरह लाभ या हानि पहुँचाती हुई प्रतीत होती हैं, वही ईश्वर है, इसी लिए वह जानवरों और नदियों और पहाड़ों को पूजता है। पृथ्वी की पूजा करता है। अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य की पूजा करने लगता है।

यह अज्ञान जब कुछ कम होता है और कुछ ज्ञान का प्रकाश आता है तो उसे ज्ञात होता है कि ये सब चीज़ें तो स्वयं उसी की तरह मोहताज और कमज़ोर हैं। बड़े-से-बड़ा जानवर भी एक तुच्छ मच्छर की भाँति मरता है। बड़ी-से-बड़ी नदियाँ शुष्क हो जाती हैं और चढ़ती-उतरती रहती हैं। पहाड़ों को स्वयं मनुष्य तोड़ता-फोड़ता है। भूमि का फलना-पू$लना स्वयं भूमि के अपने अधिकार में नहीं। जब पानी उसका साथ नहीं देता तो वह सूख जाती है। पानी भी विवश है। उसका आना हवा पर निर्भर करता है। हवा को भी अपने पर अधिकार प्राप्त नहीं। उसका उपयोगी या अनुपयोगी होना दूसरे कारणों के अधीन है। चन्द्रमा और सूर्य और तारे भी किसी नियम के अधीन हैं। उस नियम के विरुद्ध वे ज़रा भी हिल नहीं सकते। अब उसका ध्यान गुप्त और रहस्यमय शक्तियों की ओर जाता है। वह सोचता है कि इन प्रत्यक्ष चीज़ों के पीछे कुछ गुप्त शक्तियाँ हैं जो इनपर शासन कर रही हैं और सब कुछ उन्हीं के अधिकार में है। यहीं से अनेक ईश और देवताओं की कल्पना का उदय होता है। प्रकाश और हवा और पानी और रोग, और स्वास्थ्य और विभिन्न दूसरी चीज़ों के ईश्वर अलग-अलग मान लिए जाते हैं और उनको काल्पनिक रूप देकर उनकी पूजा की जाती है।

इसके बाद जब और अधिक ज्ञान का प्रकाश आता है, तो मनुष्य देखता है कि संसार के प्रबन्ध और व्यवस्था में एक अटल नियम और एक बड़े ज़ाब्ते की पाबन्दी पाई जाती है। हवाओं के वेग, वर्षा के आगमन, ग्रहों की गति, ऋतुओं के परिवर्तन में कैसी नियमबद्धता पाई जाती है? किस प्रकार असंख्य शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ मिलकर काम कर रही हैं?

कैसा अटल नियम है। जो समय जिस काम के लिए निश्चित कर दिया गया है, ठीक उसी समय पर विश्व के समस्त साधन एकत्रा हो जाते हैं और कार्यों को पूरा करने हेतु एक-दूसरे को अपना योगदान देते हैं? विश्व-व्यवस्था का यह तालमेल देखकर मुशरिक (बहुदेववादी) व्यक्ति यह मानने के लिए मजबूर हो जाता है कि एक बड़ा ईश्वर भी है जो इन समस्त छोटे-छोटे ईश्वरों पर शासन कर रहा है, अन्यथा यदि सब एक-दूसरे से अलग और बिल्कुल स्वतंत्र होते तो संसार की पूरी-की-पूरी व्यवस्था बिगड़ कर रह जाती। वह इस बड़े ईश्वर को ‘‘अल्लाह’’ और परमेश्वर और ‘‘ख़ुदा-ए-ख़ुदाएगाँ’’ (ईश्वरों का ईश्वर) आदि नामों से संबोधित करता है, परन्तु इबादत और पूजा में उसके साथ छोटे ईश्वरों को भी शरीक रखता है। वह समझता है कि ‘ख़ुदाई’ और ईश-राज्य (The divine kingdom of God) भी सांसारिक राज्य जैसे हैं। जिस प्रकार संसार में एक सम्राट होता है और उसके बहुत से मंत्री, विश्वासपात्र प्रबन्धक और व्यवस्थापक और दूसरे अधिकार प्राप्त पदाधिकारी होते हैं, उसी प्रकार विश्व में भी एक बड़ा ईश्वर है और बहुत-से छोटे-छोटे ईश्वर उसके अधीन हैं। जब तक छोटे ईश्वरों को प्रसन्न न किया जाए बड़े ईश्वर तक पहुँच न हो सकेगी। इसलिए उनकी भी ‘इबादत’ और पूजा करो, उनके आगे भी हाथ फैलाओ, उनके ग़ुस्से से भी डरो, उनको बड़े ईश्वर तक पहुँचने का साधन बनाओ और भेंट और उपहार से उन्हें प्रसन्न रखो।

फिर जब ज्ञान और बढ़ता है तो ईश्वरों की संख्या घटने लगती है। जितने काल्पनिक ईश्वर अज्ञानियों ने गढ़ रखे हैं उनमें से एक-एक के बारे में विचार करने से मनुष्य को मालूम होता चला जाता है कि वे ईश्वर नहीं हैं। हमारी तरह बन्दे हैं, बल्कि हमसे भी अधिक मजबूर हैं। इस तरह वह उनको छोड़ता चला जाता है यहाँ तक कि अन्त में केवल एक ईश्वर रह जाता है, परन्तु उस एक के विषय में फिर भी उसके विचारों में बहुत कुछ अज्ञान बाक़ी रह जाता है। कोई यह ख़याल करता है कि ईश्वर हमारी तरह शरीरधारी है और एक स्थान पर बैठा हुआ प्रभुता चला रहा है। कोई यह समझता है कि ईश्वर पत्नी और बच्चेवाला है और मनुष्य की तरह उसके यहाँ भी सन्तानों की परम्परा है। कोई यह कल्पना करता है कि ईश्वर मानव-रूप में भूलोक पर आता है, कोई कहता है कि ईश्वर इस दुनिया के कारख़ाने को चलाकर शान्त बैठ गया है और अब कहीं आराम कर रहा है। कोई समझता है कि ईश्वर के यहाँ श्रेष्ठ व्यक्तियों और आत्माओं की सिफ़ारिश ले जाना ज़रूरी है और उनको वसीला और साधन बनाए बिना वहाँ काम नहीं चलता। कोई अपने ख़याल में ईश्वर का एक रूप निश्चित करता है और इबादत और उपासना के लिए उस रूप को अपने सामने रखना ज़रूरी समझता है। इस प्रकार की अनेक भ्रांतियाँ तौहीद (एकेश्वरवाद) को अपनाने पर भी मनुष्य के मन में बाक़ी रह जाती हैं जिनके कारण वह ‘शिर्व$’ (बहुदेववाद) या ‘कुफ़्र’ (अधर्म) में लिप्त होता है और यह सब अज्ञान का नतीजा है।

सबसे ऊपर ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का दर्जा है। यह वह ज्ञान है जो स्वयं ईश्वर ने हर ज़माने में अपने ‘नबियों’ (पैग़म्बरों) के द्वारा मनुष्य के पास भेजा है। यही ज्ञान सबसे पहले मनुष्य हज़रत आदम को देकर पृथ्वी पर उतारा गया था। यही ज्ञान आदम (अलैहि॰) के पश्चात हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा और दूसरे पैग़म्बरों को दिया गया था। फिर इसी ज्ञान को लेकर सबके अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) आए। यह विशुद्ध ज्ञान है जिसमें ज़रा-सा भी अज्ञान नहीं है। ऊपर हमने शिर्क और मूर्ति पूजा और कुफ़्र के जितने रूप लिखे हैं उन सबमें मनुष्य इसी कारण ग्रस्त हुआ कि उसने पैग़म्बरों की शिक्षा से मुँह मोड़कर स्वयं अपनी अनुभव-शक्ति और अपनी बुद्धि पर भरोसा किया। तो आइए हम बताएँ कि इस छोटे से वाक्य में कितनी बड़ी वास्तविकता का उल्लेख किया गया है।

(1) सबसे पहली चीज़ ईश्वरत्व (Divinity) की कल्पना है। यह विशाल विश्व जिसके आदि और अन्त और विस्तार का ख़याल करने से हमारी बुद्धि थक जाती है, जो न मालूम कितने समय से चला आ रहा है और न मालूम कितने समय तक चलता ही रहेगा, जिसमें असंख्य जीव आदि उत्पन्न हुए और होते जा रहे हैं, जिसमें ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक चमत्कार हो रहे हैं कि उनको देखकर बुद्धि दंग हो जाती है। इस विश्व में प्रभुता उसी की हो सकती है जो असीम हो, सदैव से हो और सदैव रहे, किसी का मोहताज न हो, निस्प्रह, अपेक्षारहित और परम स्वतंत्र हो, सर्वशक्तिमान हो। तत्वदर्शी (All-wise) और विवेकशील हो, सर्वज्ञ हो और कोई चीज़ उससे छिपी हुई न हो। सब पर उसका वश हो और कोई उसके आदेश का उल्लंघन न कर सके, अपार शक्ति का अधिकारी हो और विश्व की सभी चीज़ों को उससे जीवन और आजीविका-सामग्री मिले। दोष, अपूर्णता और हर प्रकार की कमज़ोरियों से रहित हो और उसके कामों में कोई हस्तक्षेप न कर सके।

(3) ईश्वरत्व के इन समस्त गुणों का केवल एक व्यक्तित्व में एकत्र होना आवश्यक है। यह असंभव है कि दो व्यक्तित्व में ये गुण समान रूप से पाए जाते हों, क्योंकि सब पर प्रभावपूर्ण अधिकार रखनेवाला और सबका शासक तो एक ही हो सकता है। यह भी संभव नहीं है कि ये गुण विभाजित होकर बहुत से ईश्वरों में बंट जाएँ, क्योंकि यदि शासक एक हो और सर्वज्ञ दूसरा और दाता तीसरा तो प्रत्येक ईश्वर दूसरे पर निर्भर होगा। और यदि एक ने दूसरे का साथ न दिया तो सम्पूर्ण संसार पलक झपकते ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यह भी संभव नहीं कि ये गुण एक से दूसरे में भेजे जा सवें$ अर्थात् कभी एक ईश्वर में पाए जाएँ और कभी दूसरे में, क्योंकि जो ईश्वर स्वयं जीवित रहने की शक्ति न रखता हो वह सम्पूर्ण जगत को जीवन प्रदान नहीं कर सकता, और जो ईश्वर ख़ुद अपने ईश्वरत्व की हिफ़ाज़त न कर सकता हो वह इतने बड़े जगत पर शासन नहीं कर सकता। अपितु आपको ज्ञान का जितना अधिक प्रकाश मिलेगा उतना ही अधिक आपको विश्वास होता जाएगा कि ईश्वरत्व के गुणों का केवल एक व्यक्तित्व में होना आवश्यक है।

(4) ईश्वरत्व की इस पूर्ण और सच्ची कल्पना को ध्यान में रखिए, फिर सम्पूर्ण जगत पर नज़र डालिए। जितनी चीज़ें आप देखते हैं, जितनी चीज़ों का अनुभव किसी साधन के द्वारा करते हैं, जितनी चीज़ों तक आपके ज्ञान की पहुँच है उनमें से एक भी उपरोक्त गुणों से युक्त नहीं है। संसार की सारी चीज़ें दूसरों पर आश्रित हैं, अधीन हैं, बनती और बिगड़ती हैं, मरती और जीती हैं। किसी को एक अवस्था में स्थिरता प्राप्त नहीं। किसी को अपने अधिकार से कुछ करने की ताक़त नहीं, किसी को एक सर्वोच्च नियम के विरुद्ध बाल बराबर हिलने का अधिकार नहीं। उनकी दशा स्वयं इसकी गवाह है कि उनमें से कोई ईश्वर नहीं। किसी में ईश्वरत्व की ज़रा-सी भी झलक तक नहीं पाई जाती, किसी का ईश्वरत्व में तनिक भी इख़्तियार नहीं है। यही है अर्थ ‘ला इला-ह’ का।

(5) विश्व की समस्त चीज़ों में ईश्वरत्व का इन्कार कर देने के बाद आपको मानना पड़ता है कि एक और सत्ता है जो सर्वोच्च है, केवल वही समस्त ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न है और उसके सिवा कोई ईश्वर नहीं। यह अर्थ है ‘इल्लल्लाह’ का। यह सबसे बड़ा ज्ञान है। आप जितनी जाँच-पड़ताल और खोज करेंगे आपको यही मालूम होगा कि यही ज्ञान का सिरा भी है और यही ज्ञान की अन्तिम सीमा भी। भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र (Astronomy), गणित (Maths), जीव-विज्ञान, जन्तु-विज्ञान (Zoology), मानवशास्त्र (Anthropology) तात्पर्य यह कि संसार की वास्तविकता की खोज करनेवाले जितने विज्ञान हैं उनमें से चाहे किसी विज्ञान को ले लीजिए, उसके अध्ययन में जितना आप आगे बढ़ते चले जाएँगे ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ की सच्चाई आप पर अधिक खुलती जाएगी और इसपर आपका यक़ीन बढ़ता जाएगा। आपको शास्त्रीय खोजों के क्षेत्र में हर-क़दम पर अनुभव होगा कि इस सबसे पहली और सबसे बड़ी सच्चाई से इन्कार करने के बाद जगत की हर चीज़ बेकार हो जाती है।

विस्तृत ईमान

आगे बढ़ने से पहले आपको एक बार फिर उन जानकारियों का जायज़ा ले लेना चाहिए जो आपको पिछले अध्यायों में प्राप्त हुई हैं।

(1) यद्यपि इस्लाम का अर्थ केवल अल्लाह का आज्ञापालन है, परन्तु ईश्वर की सत्ता, गुण और उसकी इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा और ‘आख़िरत’ (परलोक) के दंड और पुरस्कार का यथार्थ ज्ञान केवल ईश्वर के पैग़म्बर ही के द्वारा प्राप्त हो सकता है, इसलिए इस्लाम धर्म की वास्तविक परिभाषा यह हुई कि पैग़म्बर की शिक्षा पर ईमान लाना और उसके बताए हुए तरीक़े पर अल्लाह की बन्दगी करना ‘इस्लाम’ है। जो व्यक्ति पैग़म्बर के माध्यम को छोड़कर सीधे ईश्वर के आज्ञापालन और उसके आदेशों के पालन करने का दावा करे वह मुस्लिम नहीं है।

(2) प्राचीनकाल में अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग पैग़म्बर आते थे और एक ही जाति में एक के बाद दूसरे कई पैग़म्बर आया करते थे। उस समय हर जाति के लिए ‘इस्लाम’ उस धर्म का नाम था जो ख़ास उसी जाति के पैग़म्बर या पैग़म्बरों ने सिखाया, यद्यपि इस्लाम की वास्तविकता हर देश में और हर युग में एक ही थी; परन्तु धर्म-विधान (शरीअतें) अर्थात् ‘क़ानून’, और ‘इबादत’ (उपासना) के तरीके़ कुछ भिन्न थे। इसलिए एक जाति के लिए दूसरी जाति के पैग़म्बरों का अनुसरण ज़रूरी न था, यद्यपि ‘ईमान’ सब पर लाना ज़रूरी था।

(3) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) जब पैग़म्बर नियुक्त किए गए, तो आपके द्वारा इस्लाम की शिक्षा को पूर्ण कर दिया गया और सम्पूर्ण संसार के लिए एक ही धर्म-विधान (शरीअत) भेजा गया। आपकी ‘नुबूवत’ (पैग़म्बरी) किसी विशेष जाति या देश के लिए नहीं, बल्कि आदम की समस्त सन्तान के लिए है और हमेशा के लिए है। ‘इस्लाम’ के जो धर्म-विधान (शरीअतें) पिछले पैग़म्बरों ने प्रस्तुत किए थे, वे सब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आने के पश्चात् मंसूख़ (निरस्त) कर दिए गए और अब प्रलय आने तक न कोई नबी (पैग़म्बर) आने वाला है, और न कोई दूसरा धर्म-विधान (शरीअत) ईश्वर की ओर से उतरनेवाला है। अतः अब ‘इस्लाम’ केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के अनुसरण का नाम है। आपकी नुबूवत (पैग़म्बरी) को मानना और आप (सल्ल॰) के भरोसे पर उन सब बातों को मानना जिन पर ईमान लाने की आप (सल्ल॰) ने शिक्षा दी है और आप (सल्ल॰) के समस्त आदेशों को ईश्वरीय आदेश समझकर उनका पालन करना ‘इस्लाम’ है। अब कोई और ऐसा व्यक्ति ईश्वर की ओर से नियुक्त होने वाला नहीं है जिसको मानना मुस्लिम (ईश्वर का आज्ञाकारी) होने के लिए आवश्यक हो और जिसे न मानने से मनुष्य ‘काफ़िर’ (इन्कारी) हो जाता हो।


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